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छोटा बजट, छोटे स्टार ही फायदे का सौदा

कंटेंट में भारी मगर बजट और स्टार कास्ट में छोटी फिल्मों की धूम, बड़े सितारों की फिल्में कमाई में फिसड्डी
असली हीरोः न्यूटन फिल्म में राजकुमार राव

आजकल बॉलीवुड में छोटा ही शानदार और फायदे का सौदा है। सत्तर एमएम के परदे पर भव्यता ने लंबे समय तक राज किया। लेकिन आखिरकार बॉलीवुड के भेजे में यह बात आ ही गई कि नए दौर की सिनेमाई अर्थव्यस्‍था में भव्यता और विशालता के खास मायने नहीं हैं। इस साल लगता है फिल्‍मकारों के हाथ बॉक्स ऑफिस पर कमाई का एक आसान-सा सूत्र लग गया है, एक नई-नवेली अनोखी-सी पटकथा चुनो, छोटे-से-छोटा बजट रखो, प्रोडक्शन की डेडलाइन पर टिके रहो और गैर-जरूरी खर्चों से बचो। यह बेशक हिंदी सिनेमा में बरसों से चल रहे ढर्रे में एक बड़े बदलाव का संकेत है। दरअसल कंटेंट के बदले स्टारों की चमकदमक पर आश्रित कई बड़े बजट की फिल्मों की नाकामी, वह भी लगभग साथ-साथ ही, से यह बदलाव कुछ तेजी से आया लगता है।    
गैंगस्टर का जलवाः बाबूमोशाय बंदूकबाज फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दीकी

इसमें कोई शक नहीं कि इस साल बहुत से ऐसे निर्माताओं के चेहरे पर मुस्कराहट आई, जिनकी फिल्मों में सुपर स्टार न होने के बावजूद उनकी फिल्में चलीं, जबकि फिल्म रिलीज होने से पहले उनके बारे में प्रचार का कोई हल्ला भी नहीं था। इसके उलट उन निर्माताओं के चेहरे मायूसी से भर गए जिनकी फिल्म में सब कुछ लकदक था। इरफान खान की हिंदी मीडियम का कुल बजट 25 करोड़ रुपये था। निजी स्कूलों की पढ़ाई का हाल बताती यह फिल्म हिट हुई। फिल्म ने घरेलू बाजार में ही अपने बजट का तीन गुना कमा लिया। नवाजुद्दीन सिद्दीकी की फिल्म बाबूमोशाय बंदूकबाज का बजट 5 करोड़ था लेकिन एक गैंगस्टर की कहानी ने ट्रेड पंडितों को आश्चर्य में डालते हुए कमाई का आंकड़ा 13 करोड़ रुपये कर लिया। आयुष्मान खुराना भी इस कमाई यात्रा में शामिल रहे। बिलकुल अलग तरह के विषय पर बनी उनकी ताजा फिल्म शुभ मंगल सावधान ने भी साबित किया कि ‘पुरुष समस्या’ जैसा असामान्‍य विषय भी बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ हो सकता है। फिल्म ने रिलीज के दो हफ्ते के भीतर अपने बजट से दोगुना यानी 35 करोड़ रुपये समेट लिए।

बॉलीवुड में बदलाव सामने दिखाई दे रहा है। दर्शकों में बड़े सितारों के प्रति प्यार और उनका जादू जैसे कहीं बिला गया है। नामचीन निर्देशकों की सूची में आने वाले निर्देशक इम्तियाज अली की जब हैरी मेट सेजल मल्टीप्लेक्स के इस दौर में त्रासदी साबित हुई, जबकि शाहरुख ‘किंग’ खान इसमें मौजूद थे।

बॉक्स ऑफिस के एक और चमकते सितारे सलमान खान की फिल्म ट्यूबलाइट का हश्र किसी से छुपा नहीं है। हालांकि तुलनात्मक रूप से इसने 120 करोड़ रुपये का ठीकठाक कलेक्शन किया। लेकिन बजट बहुत बड़ा होने की वजह से वितरकों को भारी भरकम नुकसान उठाना पड़ा। डिज्नी प्रोडक्शन की जग्गा जासूस भी बॉक्स ऑफिस पर धराशाई हो गई। रणबीर कपूर की यह फिल्म लंबे वक्त से बन रही थी। लेकिन प्रोडक्शन के भारी बोझ तले यह फिल्म भी दब गई। इस आंधी में अपने हिसाब से काम करने वाले रामगोपाल वर्मा भी नहीं बचे। अमिताभ बच्चन को लेकर बनाई गई उनकी फिल्म सरकार 3 वह जादू नहीं जगा पाई जो इस कड़ी की पहली दो फिल्मों ने जगाया था। इनके अलावा कुछ और बड़े सितारे हैं जो सफलता का स्वाद नहीं चख पाए। अजय देवगन की बादशाहो, अनिल कपूर की मुबारकां ने शुरुआती तौर पर तो अच्छा बिजनेस किया लेकिन जिन लोगों ने पैसा  लगाया वे फिल्म से होने वाली कमाई को मुनाफा कह सकें ऐसा नहीं हो सका। साल की पहली तीन तिमाही छोटे बजट वाले प्रोजेक्ट्स के लिए ही सफल रही। यह खुशी उस उद्योग के हिस्से आई है जिसके बारे में धारणा है कि यहां पैसा पानी की तरह बहाया जाता है और कार्यशैली छितरी हुई है।

मजे की बात है कि बॉलीवुड गर्व से स्टार सिस्टम की डींग हांकता है, जो वह खुद बनाता है। फिर इस डींग के तमगे को लंबे समय तक पहने भी रहता है। लेकिन कभी किसी समय कुछ बड़े नामी व्यावसायिक कलाकारों की गिरफ्त में रहने वाला बॉक्स ऑफिस अब प्रतिभावान, साधारण शक्ल-सूरत वाले, आम कलाकारों की जद में है। छोटे और मध्यम बजट की फिल्मों ने उन कलाकारों की फिल्मों को भी बॉक्स ऑफिस पर अपना ठिकाना बनाने का मौका दिया है, जिनके पास प्रचार और विज्ञापन का पैसा नहीं होता लेकिन वास्तविक और शानदार कहानी होती है। मुनाफा कमा रहीं ऐसी फिल्में इसका उदाहरण हैं।  

जरा गौर कीजिएः शुभ मंगल सावधान में भूमि पेडनेकर और आयुष्मान खुराना

इसका असर यह हो रहा है कि अब ऐसा लगने लगा है कि कंटेंट उन सितारों पर हावी हो रहा है जो अब तक फिल्मों के भविष्य के इकलौते खेवनहार थे। अब फिल्म बनाने वालों की नई जमात और अभिनेता वास्तविक जीवन के चरित्रों को निभाने में शंकित नहीं रहते फिर भले ही वास्तविक पात्र कितना ही अनगढ़ क्यों न हो। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि यह फिल्मों का दूसरा जन्म है क्योंकि हिंदी फिल्में शानदार देहयष्टि वाले नायकों से बाहर निकल आई हैं। और उनसे भी जो परदे पर करते कुछ नहीं थे लेकिन उनका हल्ला बड़ा था। 

लेकिन क्या यह बदलाव वास्तव में दर्शकों की रुचि का बदलाव है? कई लोगों का मानना है कि यह कोई नई परिघटना नहीं है। दर्शक तो हमेशा से नामी कलाकारों के बजाय अच्छे विषय वाली फिल्मों को सराहते रहे हैं। हिट फिल्म हिंदी मीडियम के निर्देशक साकेत चौधरी कहते हैं, ‘‘बॉलीवुड में केवल एक बदलाव आया है वह यह कि अब इंडस्ट्री बजट के लिहाज से काम करने के लिए बढ़िया जगह हो गई है।’’ वह आगे कहते हैं, ‘‘क्या ये वही दर्शक तो नही हैं जो आमिर खान की तारे जमीं पर और दंगल की सराहना करते हैं या अक्षय की नई फिल्म के प्रति उत्साहित रहते हैं? मुझे लगता है यह पूरा साल ही ऐसी फिल्मों के लिए मुफीद रहा है जब अच्छी विषयवस्तु वाली बहुत सारी फिल्मों ने मिलकर बढ़िया प्रदर्शन किया है।’’ चौधरी कहते हैं, ‘‘हिंदी मीडियम दर्शकों के साथ जुड़ाव बना पाई क्योंकि दर्शक विषय के साथ खुद को जोड़ पाए। छोटी और स्वतंत्र फिल्में नए दौर को आगे बढ़ाने में मदद कर रही हैं। जब से नेटफ्लिक्स और अमेजन जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म आए हैं फिल्म की लागत को रिकवर करने के मौके भी बढ़े हैं। अब प्रोड्यूसर निवेश से डरते नहीं क्योंकि वे जानते हैं, तय बजट में अच्छी फिल्म बनाएंगे तो उनका पैसा आसानी से वापस मिल जाएगा।’’

चौधरी बताते हैं कि ऐसा नहीं है कि छोटी फिल्में केवल युवा कलाकारों जैसे राजकुमार राव और आयुष्मान खुराना के लिए ही फायदे का सौदा हैं, बल्कि सीमित बजट में विषय को लेकर बनाई गई फिल्में अक्षय कुमार जैसे बड़े सितारे को भी फायदा दे रही हैं। वह कहते हैं, ‘‘अक्षय ने साबित किया है कि स्टार पॉवर, कंटेंट के साथ मिल जाए तो क्या धमाल हो सकता है।’’ वह आगे कहते हैं, ‘‘ऐसी फिल्मों ने उन्हें अभिनेता और स्टार दोनों रूपों में निखरने का मौका दिया है।’’

चौधरी के पास इस बात के लिए अपने तर्क हैं। वह बताते हैं कि जिन सालों में उनके समकालीन सलमान और शाहरुख संघर्ष कर रहे थे, अक्षय तब भी एक के बाद एक हिट दे रहे थे। इस साल जॉली एलएलबी 2 और टॉयलेट : एक प्रेम कथा दोनों ने 125 करोड़ रुपये से ज्यादा कमाई की। इसी से पता चलता है कि इस व्यावसायिक दुनिया में अब कोई भी सितारा कंटेंट यानी विषय की अवेहलना नहीं कर सकता। आयुष्मान खुराना और राजकुमार राव को लेकर इस साल की एक और बड़ी हिट बरेली की बर्फी बनाने वाली अश्वनी अय्यर-तिवारी भी इससे सहमत दिखती हैं। उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर बरेली की रोमांटिक कहानी परदे पर लाने वाली अश्वनी कहती हैं, ‘‘इन दिनों भारतीय फिल्म उद्योग हॉलीवुड की राह पर चल पड़ा है। जैसे हृषीकेश मुखर्जी वाली फिल्मों वाले दिन वापस आ गए हैं। ऐसे दिन जब सभी को मालूम है कि कौन सा निर्देशक कैसी फिल्म बनाएगा।’’ वह कहती हैं, ‘‘यह खुशी की बात है, किसी कलाकार की व्यक्तिगत छवि से ज्यादा स्क्रिप्ट में मौजूद चरित्र स्क्रीन पर महत्वपूर्ण हो गया है। इससे एक अभिनेता सही मायनों में परदे पर निकल कर आ रहा है।’’ 

हाल ही में छत्तीसगढ़ के नक्सली क्षेत्र में आम चुनाव में मतदान कराने को लेकर न्यूटन फिल्म निर्देशित करने वाले अमित वी मसूरकर सोचते हैं कि फिल्मों में विभिन्न विषयों को लेकर दर्शक पहले के मुकाबले ज्यादा खुले दिमाग के हो गए हैं। वह कहते हैं, ‘‘मल्टीप्लेक्स में जाने वालों की संख्या में निरंतर इजाफा हो रहा है। फिल्म देखने की उनकी इच्छा और खर्च करने का सामर्थ्य दोनों बढ़ रहा है। यहां तक कि वे हॉलीवुड की नई फिल्म पर भी अतिरिक्त पैसा खर्च करने को तैयार हैं जो भारत और अमेरिका में इन दिनों एक ही दिन रिलीज होती है।’’

मसूरकर कहते हैं कि जिन्हें कला सिनेमा कहा जाता था ऐसी फिल्मों में कुछ अच्छी फिल्में भी होती थीं लेकिन वे व्यावसायिक रूप से अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती थीं। अब मल्टीप्लेक्स के जमाने में ऐसी फिल्मों के पास भी बेहतर अवसर हैं क्योंकि फिल्मों के नियमित दर्शक विषय वस्तु में नयापन चाहते हैं। वह राजकुमार राव और आयुष्मान खुराना जैसे नए और युवा कलाकारों के बारे में कहते हैं, ‘‘अब तक फिल्मी सत्ता पर काबिज सभी सुपरसितारे अपनी उम्र के अर्द्धशतक में हैं। बढ़ती उम्र के साथ वे ऐसे विषय चाहते हैं जो उनकी उम्र पर फबे। इस कारण ने फिल्मी परदे का मैदान नए कलाकारों के लिए खोल दिया है। यही वजह है कि नए कलाकारों का उदय सहज रूप से हो रहा है।’’

हालांकि यह कहना जल्दबाजी होगी कि टिकट काउंटर पर सितारों के प्रति दीवानगी से ऊपर विषयों पर आधारित सिनेमा का चलन सच में आ गया है। या यह एक सनक है जो चल रही है। बाबूमोशाय बंदूकबाज के पटकथा लेखक गालिब असद भोपाली का दावा है कि यह ट्रेंड तभी खत्म होगा जब फिल्म बनाने वाले एक जैसी फिल्में बनाने से परहेज करने लगेंगे। वह कहते हैं, ‘‘कोई नहीं जानता कि यह ट्रेंड कितना लंबा चलेगा। बॉलीवुड वैसे भी आंख पर पट्टी बांध कर उसके पीछे दौड़ पड़ता है जो लोकप्रिय हो जाता है। फिर एक दिन आता है जब दर्शक एक जैसी फिल्में देख कर ऊब जाते हैं। मैं डरता हूं उस दिन से जब आज के दौर में चल रहे वास्तविक सिनेमा से दर्शक बेजार हो जाएगा। बीते दिनों के गीतकार असद भोपाली के बेटे गालिब बताते हैं कि बाबूमोशाय बंदूकबाज हिट हो गई क्योंकि दर्शकों ने शॉर्पशूटर के साथ जुड़ाव महसूस किया। नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने यह भूमिका निभाई थी। वह कहते हैं, ‘‘यह ऐसा चरित्र नहीं था जिसे लार्जर दैन लाइफ कहा जा सके लेकिन यह बहुत असली था जिसे कहीं न कहीं किसी न किसी ने आसपास के माहौल में देखा होगा। लेकिन ऐसे चरित्रों को हर दूसरी गैंगस्टर फिल्मों में नहीं दोहराया जा सकता।’’  

बॉलीवुड वाकई गुणवत्ता वाला सिनेमा चाहता है तो मौजूदा दौर में चल रही भेड़चाल इसके लिए बड़ी चुनौती होगी। उम्मीद की जा सकती है कि दर्शक अच्छे विषय वाली फिल्में देखने के ही आदी होंगे। ऐसे में किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि कुछ भारी विषयों वाली फिल्में और इक्का-दुक्का फार्मूलाबद्ध फिल्में फ्लॉप हो जाएं। आने वाले महीनों में अपनी उम्र के पचासवें साल में खड़े सुपर सितारे एक बार फिर सब चीजें पटरी पर ले आएंगे। आखिरकार पैसे को ही भगवान समझने वाले इस उद्योग में हर शुक्रवार को ट्रेंड और कमाई के आंकड़े बदलने का माद्दा जो है। 

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