मरुभूमि में आजकल अजीब-से हालात देखने को मिल रहे हैं। लगातार कोई न कोई वारदात समाज में हलचल पैदा कर रही है मगर राजनैतिक दल या तो खामोश हैं या महज दर्शक बने हुए हैं। हाल में भोपा (ओझा-गुनी) के हाथों औरत को डायन बताकर सताए जाने के कई मामले सामने आये, मगर सत्तारूढ़ भाजपा तो मौन साधे ही रही, प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने भी इसे मुद्दा बनाने से परहेज किया। बकौल एक सामाजिक कार्यकर्ता, सियासी पार्टियां वायदामाफ गवाह की तरह काम करने लगी हैं।
यह पहली घटना नहीं है जब राजनैतिक दलों ने सतह पर आए मुद्दों से किनारा किया हो। हाल ही में जयपुर की एक मलिन बस्ती को हटाने का फरमान आया तो खड्डा बस्ती के कमसिन बच्चे तल्ख धूप में सड़कों पर निकले और फरियाद लेकर राजस्थान हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश प्रदीप नांद्रजोग की रिहायश तक गए। बच्चे परीक्षा तक मोहलत देने की गुहार कर रहे थे। वे सत्तारूढ़ भाजपा के दफ्तर नहीं गए, न ही प्रतिपक्ष में बैठी कांग्रेस के कार्यालय जाना ठीक समझा। यह बताता है कि लोगों में सियासी पार्टियों की बजाय मदद के लिए दूसरे प्रतिष्ठानों से संपर्क करने का रुझान बढ़ा है।
राजस्थान के अलवर में कोई छह महीने पहले कथित गोरक्षकों ने हरियाणा के नूह के पहलू खान की पीट-पीट कर जान ले ली। विरोधी दल कांग्रेस तक ने इस पर चुप रहना बेहतर समझा। इस घटना के विरोध में मेवात युवा संगठन ने अलवर में मार्च निकाला। इस संगठन के प्रमुख सद्दाम हुसैन कहते हैं, “भाजपा का रवैया सबको पता है। पर हमें दुख हुआ जब कांग्रेस भी हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। पार्टी ने प्रशासन को एक ज्ञापन देकर अपने फर्ज की इतिश्री कर ली।” इसी घटना को लेकर हाल में पूर्व आइएएस हर्ष मंदर के नेतृत्व में ‘कारवां-ए-मोहब्बत’ जब अलवर होकर निकला तो सियासी दलों ने आंखें बंद कर लीं।
कोई तीन साल पहले नागौर में एक भूमि विवाद को लेकर तीन दलितों को ट्रैक्टर से कुचल कर मार डाला गया। इस दर्दनाक घटना ने सियासी पार्टियों को उद्वेलित नहीं किया। आखिरकार मानवाधिकार कार्यकर्ता कविता श्रीवास्तव और मैगसायसाय पुरस्कार से सम्मानित अरुणा राय सामने आईं। उनके प्रदर्शन के बाद ही सरकार ने घटना की जांच सीबीआइ को सौंपने का फैसला किया। दलित अधिकार कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी इस सियासी मंजर से नाराज भी हैं और क्षुब्ध भी। वे कहते हैं, “जब-जब दलितों पर जुल्म की घटनाएं हुईं, प्रमुख दल चुप्पी साधे मिले। मामला चाहे दलितों को मंदिर प्रवेश से रोकने का हो या दलित दूल्हे को सरेआम घोड़ी से उतारने का। इन पार्टियों का गरीब अवाम से कोई सरोकार नहीं रह गया है।”
राज्य में करीब 15 लाख दिव्यांगों को वाजिब हक दिलाने के लिए सक्रिय जयपुर के रतनलाल बैरवा का कहना है कि पिछले साल 22 मई को आठ-दस हजार दिव्यांग अपनी मांगों को लेकर जयपुर की सड़कों पर निकले। बैरवा कहते हैं, “सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी को क्या कहें, हमारे लिए तो विपक्ष भी वैसा ही है। हमसे मिलने कोई नहीं आया।”
भीलवाड़ा की सामाजिक कार्यकर्ता तारा अहलूवालिया पिछले कई साल से ग्रामीण राजस्थान में डायन के नाम पर प्रताड़ित की जा रही महिलाओं की मददगार बन कर उभरी हैं। पिछले दिनों उन भोपाओं के विरुद्ध आवाज उठी जो गावों में औरतों को डायन घोषित करते हैं। वे कहती हैं, “मुझे बहुत धक्का लगा जब दोनों प्रमुख दलों ने इस मुद्दे को पूरी तरह अनदेखा किया। भोपाओं का सियासी असर है। मामले सामने आए तो पुलिस ने महज शांति भंग का मामला बना कर परदा डाल दिया। पर हमने लड़ाई लड़ी।” हालांकि कांग्रेस प्रवक्ता अर्चना शर्मा इससे सहमत नहीं हैं। वे कहती हैं, “हम बराबर मुद्दे उठाते रहे हैं। मैं सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिक संगठनों की भूमिका की सराहना करती हूं।” सत्तारूढ़ भाजपा के प्रवक्ता और विधायक अभिषेक मटोरिया कहते हैं, “भाजपा ऑफिस की जन सुनवाई में लोगों की भीड़ उमड़ती है। विधायकों और सांसदों के पास भी लोग पहले की तरह ही पहुंच रहे हैं।”
दक्षिण राजस्थान में आदिवासियों के बीच सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. नरेंद्र गुप्ता तस्वीर का अलग रूप प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं, “पूरी व्यवस्था एजेंट आधारित हो गई। गांव-गांव एजेंट होते हैं। उन्हीं की सुनी जाती है।”
फिलहाल, राज्य के दोनों प्रमुख दल एक साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी में जुटे हैं। भाजपा की चिंता है कि कहीं सत्ता उसके हाथ से फिसल न जाए तो वनवास काट रही कांग्रेस में दोहरी बेचैनी है। पहली सत्ता में लौटने की और दूसरी यह कि सरकार बनने पर ताजपोशी किसकी हो। दोनों पार्टियां यही सोच कर खुश हैं कि सिंहासन की इस लड़ाई में कोई तीसरा दावेदार नहीं है।