सातवें दशक तक फिल्म संगीत की कई विधाओं और शैली में स्थिरता आ गई थी। हर शैली में कुछ बड़े नाम इस कदर स्थापित हो चुके थे कि उनसे प्रतिद्वंद्विता आसान नहीं थी। फिल्मों के बढ़ते बजट, व्यावसायिक रूप से निश्चिंतता और आश्वस्ति के कारण भी निर्माता प्रतिष्ठित नामों की तरफ झुकते थे। इन कारणों से इस दशक में नए संगीतकारों का प्रवेश पिछले दशकों के मुकाबले कम रहा।
1962 में मधुबाला प्राइवेट लिमिटेड द्वारा बनाई गई पठान में यूं तो कुछ भी विशेष नहीं था पर फिल्म इतिहास में यह फिल्म नौ संगीतकारों-फकीर मुहम्मद, जिम्मी, असर, शंभू, दत्तराज, राजभूषण, डेविड, बृजभूषण और श्यामबाबू के कारण याद की जाएगी। इनमें से असर और बृजभूषण ने आगे चलकर नाम कमाया। असर ने लाला और सत्तार के साथ मिलकर तिकड़ी बनाई। फकीर मुहम्मद और असर द्वारा संगीतबद्ध ‘चांद मेरा बादलों में खो गया’ (तलत) मशहूर हुआ। फिल्मों से अलग फकीर मुहम्मद ने मुस्लिम संस्कृति और विवाह-गीतों की भी रचना की जिन्हें कलंदर आजाद ने गाया।
सातवें-आठवें दशक में संगीत की बदलती प्रवृत्तियों के दौर में ऐसे संगीतकार भी आए जो अधिक दूर तक न जा पाए। राजरतन ने देखा प्यार तुम्हारा (1963) की सुंदर लोरी ‘तारों की गोरी, चांद की गुड़िया जागे है बिटिया आ जा तू’ (सुमन) और लोकशैली के ‘आई बहार मेरे अंगना में आली’ (लता) के साथ दो अलग-अलग दिशाओं का संगीत चलाकर भी एकात्मकता और मेलोडी के प्रति सी. रामचंद्र जैसी आस्था जगाई थी। लेकिन परिवर्तन के दौर में राजरतन की फिर पूछ-परख नहीं हुई। रामू उस्ताद (1971) विशेष प्रभाव नहीं जमा पाई पर मदीने की गलियां (1979) में उनका संगीत आकर्षक था। रफी के स्वर में, ‘हर एक शय से आला’ इतना सुंदर है कि इसे रफी के अंतिम वर्षों के श्रेष्ठतम गीतों में रखा जाना चाहिए। ‘आप जब से खयालों में आने लगे’ को निःसंदेह अनुराधा भी अपने आरंभिक दौर के श्रेष्ठ गीतों में शामिल करती होंगी।
भूले-बिसरे संगीतकारों में एस.मदन और एस.किशन भी शामिल किए जाने चाहिए। उस्ताद नजीर खां से शिक्षा ग्रहण कर वह 1942 में संगीतकार विनोद के सहायक बने और वर्षों उनके साथ काम किया। विनोद की मृत्यु के बाद अजीजी हिंदी के साथ वह डंका में सहायक रहे। प्रदीप कुमार, निरूपा राय अभिनीत बंटवारा (1961) एस.मदन की पहली हिंदी फिल्म थी। इस फिल्म का दिलकश गीत ‘ये रात ये फिजाएं, फिर आएं या न आएं’ (आशा, रफी, साथी) को एच.एम.वी. ने ‘यादों की मंजिल’ शृंखला में शामिल किया है। दारा सिंह अभिनीत डंका (1961) में एस.मदन ने पंजाबी शैली का संगीत दिया। डंका असफल रही पर इस बीच एस.मदन ने मामाजी जैसी कई पंजाबी फिल्मों में लोकप्रिय संगीत दिया। ‘न मैं कोई वली औलिया’ उनका सुपरहिट गीत था।
एस. किशन जेंटलमैन डाकू (1960), लालच (1960) और अफलातून (1961) में कुछ विशेष नहीं कर पाए। रहस्य प्रधान प्राइवेट डिटेक्टिव (1962) में भी उनका संगीत था। इस फिल्म में सविता बनर्जी का गाया, हैरत सीतापुरी का लिखा गीत, ‘मेरी घघरी में घुंघरू लगा दे, फिर मेरी चाल देखना’ से मिलते-जुलते शब्द लेकर शकील और नौशाद ने संघर्ष (1968) ‘मेरे पैरों में घुंघरू बंधा दे, फिर मेरी चाल देख ले’ (रफी) बनाया। यह गीत सुपरहिट रहा, पर एस. किशन और हैरत सीतपुरी की रचना अनजानी रह गई। एस. किशन स्टंट, वेशभूषा और रहस्यात्मक फिल्मों तक ही सिमटे रहे। अरब का लाल (1964), खूनी खजाना (1965), तातार की हसीना (1968) सभी असफल फिल्में थीं। हालांकि खूनी खजाना में ‘ऐ दिल बता हम कहां आ गए’ (मुबारक बेगम) चर्चित गीत था। तातार की हसीना में भी एस. किशन ने रफी से एक सुंदर गीत गवाया, ‘अब मदद फरमाइए महबूब-ए-सुबहानी मेरी।’ पर यह लोकप्रिय नहीं हुआ। सुमन, महेंद्र के सुंदर दो गाने ‘रंगीं है नजारा’ वाली परियों की शहजादी, या बदले की आग और आखिरी मुकाबला फिल्में प्रदर्शित न होने के कारण एस. किशन का संगीत अनसुना रह गया।
शिमला में जन्मे और दिल्ली में बचपन बिताने वाले संगीतकार सतीश भाटिया रेडियो कार्यक्रमों की रचनाओं के प्रसिद्ध संगीतकार रहे। वर्षा ऋतु पर आधारित बंदिशों को लेकर निर्मित उनका संगीतबद्ध किया एलबम चर्चित था। इस एलबम में उन्होंने पारंपरिक बंदिशों, संगीत-शैलियों, ऑरकेस्ट्रेशन और गायकी का शानदार प्रयोग किया। खुसरो की रचना ‘अम्मा मेरे’, नजीर अकबराबादी का कलाम ‘ओ यार चल के देखें’, सुरूर की रचना ‘उठे वो झूम के’ (सलाहुद्दीन, शिप्रा बोस), मुहम्मद शाह ‘रंगीला’ की बंदिश ‘झूला किन डारो’, पारंपरिक कजरी ‘पिया ले सावन’ और ‘झुक आई बदरिया’ (गुलाम सादिक खान), जफर की कम चर्चित रसीली रचना ‘मेरे दिल की कुंजी’, पारंपरिक बंदिशें ‘सावन बरसे भादों बरसे’ (शिप्रा बोस) और ‘सावन आया’ जैसे दुर्लभ नगीनों को सुनने पर लगता है जैसे मध्ययुगीन उत्तर भारतीय संस्कृति अपनी लोक, दरबारी, नैसर्गिक और रचनात्मक सभी रूपों में साकार हो गई है। जहां तक फिल्मों का सवाल है। इस क्षेत्र में भाटिया कभी-कभी ही आए। 1950 में मालदार में उन्होंने हेमंत कुमार, रोशन और उषा भाटिया से गीत गवाए। फिल्म चली नहीं और सालों बाद 1967 में वी. शांताराम ने बूंद जो बन गई मोती का संगीत उन्हें सौंपा जो लोकप्रिय रहा। मुकेश के स्वर में शाब्दिक सौंदर्य से भरपूर ‘हरी-हरी वसुंधरा पे नीला-नीला ये गगन’ की भैरवी आधारित अनुगूंज आज तक कायम है। अपनी काव्यात्मक लयकारी के कारण यह मुकेश के सर्वश्रेष्ठ गीतों में शुमार है। ‘हां, मैंने भी प्यार किया’ (मुकेश-सुमन) सुंदर सपनीली धुन और पहाड़ी शैली की बांसुरी से सजा गीत इसी फिल्म की देन है। फिल्म का शीर्षक गीत (मन्ना डे, आशा भोंसले) में बांसुरी का प्रयोग संगीतकार के जन्म-स्थान शिमला की पहाड़ी धुनों की याद दिलाता है। इसी पहाड़ी जैसी धुन से आरंभ होता था, ‘अंखियां तरसन लागीं’ (सुमन)। ऑरकेस्ट्रेशन और इंटरल्यूड्स की बांसुरी पर गीत विशेष में अलग अंदाज का गौड़ मल्हार का हल्का शास्त्रीय रंग देकर ढोल को अद्धा त्रिताल में बजवाकर सतीश भाटिया ने इस गीत को अनुपम बना दिया है। इस एक फिल्म से ही सतीश भाटिया फिल्म जगत में हमेशा याद किए जाएंगे।
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)