शरद पवार महाराष्ट्र ही नहीं, देश के शीर्षस्थ नेताओं में गिने जाते हैं। उनका संबंध नेताओं की उस पीढ़ी से है जिसमें लोग कार्यकर्ता की तरह सक्रिय होकर धीरे-धीरे नेतृत्वकारी भूमिका में पहुंचते थे। पवार ने राजनीति में लंबी पारी खेली है और अभी भी क्रीज पर डटे हुए हैं और राज्यसभा के सदस्य हैं। ऐसे अनुभवी नेता की आत्मकथा अपनी शर्तों पर का हिन्दी में प्रकाशन महत्वपूर्ण घटना है। भारतीय राजनीति में रुचि रखने वालों को यह पुस्तक अनिवार्य रूप से पढ़नी चाहिए। यह आत्मकथा शरद पवार और वरिष्ठ पत्रकार आनंद अगाशे के बीच कई सत्रों में हुई बातचीत संकलित करके तैयार की गई है। इसका प्रकाशन अंग्रेजी में हुआ था। उनकी पुत्री और सांसद सुप्रिया सुले ने इसकी भूमिका लिखी है। दुर्भाग्य से, हिंदी संस्करण में प्रूफ की गलतियां हैं और कहीं-कहीं भाषा में भी असावधानी है, मसलन नमाज ‘अदा’ की जाती है, ‘अता’ नहीं। इसी तरह अंग्रेजी शब्द ‘इंटीग्रेशन’ है, ‘इंट्रीजेशन’ नहीं।
शरद पवार ने बेबाकी और साफगोई से पारिवारिक पृष्ठभूमि और राजनीति में प्रवेश की चर्चा की है। आत्मकथा से उनके बारे में तो जानकारी मिलती ही है, साथ ही 1960 से लेकर अब तक की भारतीय राजनीति का भी यह मूल्यवान दस्तावेज है जिसके जरिए अनेक नई बातें सामने आती हैं और पुरानी बातों की पुष्टि होती है।
शरद पवार की मां शारदा बाई अध्ययनशील, निष्ठावान और आदर्शों के लिए समर्पित महिला थीं, जो तीन दिन के शरद को गोदी में लेकर पुणे के स्थानीय बोर्ड की बैठक में भाग लेने चली गई थीं। वे वामपंथी विचारों की थीं और किसान मजदूर पार्टी के गठन के समय कांग्रेस छोड़कर उस पार्टी में शामिल हो गई थीं। पवार उनके मार्क्सवादी विचारों से सहमत नहीं थे और लोकतांत्रिक ढंग से सामाजिक-आर्थिक बदलाव में यकीन रखते थे। अनुशासनप्रिय और सख्त होने के बावजूद शरद पवार उनसे बहस करते थे। उनका कहना है कि इसी अनुभव के कारण उनके अपने विरोधियों के साथ व्यक्तिगत रिश्ते कभी नहीं बिगड़े। कांग्रेस संगठन में पवार को यशवंतराव चव्हाण लाए थे और उनके प्रति उनकी श्रद्धा अंत तक बनी रही।
चन्द्रशेखर हों या बाल ठाकरे, राजीव गांधी हों या मनमोहन सिंह, जॉर्ज फर्नांडीस हों या प्रणव मुखर्जी, अटल बिहारी वाजपेयी हों या बीजू पटनायक सभी के बारे में उन्होंने सम्मान और गर्मजोशी के साथ लिखा है। बाल ठाकरे के बारे में उनके आकलन में एक बात खटकती है कि अपने स्नेहिल व्यक्तिगत और पारिवारिक रिश्तों का जिक्र करते हुए उन्होंने एक बार भी बाल ठाकरे की हिंसा पर आधारित फासिस्ट राजनैतिक शैली की ओर इशारा नहीं किया। राजीव गांधी के साथ लगता है उनके संबंध औपचारिकता की हद तक ही मधुर थे। उनमें वास्तविक और स्वाभाविक ऊष्मा नहीं थी।
आत्मकथा से पुष्टि होती है कि जिन दिनों चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री थे, तब बाबरी मस्जिद विवाद के समाधान के लिए गंभीर प्रयास किए गए थे और अगर वे कुछ समय और प्रधानमंत्री रहते तो शायद मस्जिद के ध्वंस की नौबत न आती। चन्द्रशेखर अपनी बात पर टिके रहने वाले व्यक्ति थे और राजीव गांधी की मंशा हरियाणा पुलिस के सिपाहियों द्वारा जासूसी के कथित प्रयास के मुद्दे पर उनकी सरकार को सिर्फ थोड़ा-सा हिलाने की थी, गिराने की नहीं। जब राजीव गांधी ने उन्हें इस्तीफा वापस लेने के लिए संदेश भिजवाया तो चन्द्रशेखर ने उसे ठुकरा दिया। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के समय प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव कितने निष्क्रिय थे, इसकी पुष्टि भी पुस्तक से होती है।
अंत में दो महत्वपूर्ण दस्तावेज 31 मार्च, 1969 को कांग्रेस पार्टी की स्थिति के बारे में चव्हाण को लिखा पत्र और 15 मई, 1999 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी के ‘विदेशी मूल’ के मुद्दे को उठाने के बाद पी.ए. संगमा और तारिक अनवर के साथ संयुक्त रूप से सोनिया को लिखा गया पत्र, परिशिष्ट के रूप में जोड़े गए हैं।
राज्यसभा के सदस्य और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के महासचिव तथा मुख्य प्रवक्ता देवीप्रसाद त्रिपाठी ने भी उन पर केन्द्रित पुस्तक स्वयंसिद्ध लिखी है। इसमें अधिकतर उनके संस्मरण या पवार और अन्य लोगों के साथ बातचीत आधारित विवरण हैं। इसमें पवार राजनीतिज्ञ के रूप में कम संवेदनशील व्यक्ति के रूप में अधिक नजर आते हैं। यह पुस्तक भी अत्यंत पठनीय है। इसे वाणी प्रकाशन ने छापा है। 182 पृष्ठों की इस पुस्तक की कीमत 495 रुपये है।