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‘मानुष-मर्म’ के कवि

वादों-प्रतिवादों के बीच भी कुंवर नारायण को ‘स्वीकृति’ मिली तो यह उनके ‘नैतिक’ लेखन का ही बल था
कुंवर नारायण (19 सितंबर 1927-15 नवंबर 2017)

हिंदी के बहुत बड़े जगत में कुंवर नारायण की उपस्थिति एक बहुत बड़ी उपस्थिति थी। और आगे भी बनी रहेगी, यह मानने के सभी कारण हैं। उन्होंने लगभग सत्तर वर्षों तक अनथक रूप से अपने लिए एक ‘रचनात्मक’ दुनिया ही बनाई, और इस दुनिया से जो कुछ उन्होंने साहित्य जगत को सौंपा, उसमें सुरुचि, सुघड़ता, आत्मीयता, गंभीरता और किसी न किसी जीवन-मर्म की गहराई देखने को मिली। यह ‘गहराई’ अपनी ओर आकर्षित करती थी और बहुतों को उनकी कविता, कथा, आलोचना, और चिंतन की ओर बार-बार लौटने को प्रेरित करती थी। चित्रकला, नाटक, सिनेमा, संगीत, नृत्य और तमाम अन्य अनुशासनों पर भी समय-समय पर उन्होंने लिखा, सोचा-विचारा-संजोया।

उनके लिखे और बोले में एक ऐसी पारदर्शिता रही है, जिसके आर-पार कोई भी देख सकता था और उनकी लिखी-बोली बात को बहुत दूर तक ग्रहण कर सकता था। भाषा में काम करने वाले जानते हैं कि किसी गूढ़ बात को शब्दों में संप्रेषित करना, कभी आसान नहीं होता, और इतना आसान तो कभी नहीं होता कि लिखी और कही गई बात ‘आसान’ लगे। लेकिन कुंवर जी का एक बड़ा गुण यह था कि चाहे मित्रों के बीच चल रही चर्चा में वे कुछ कह रहे हों, या सभा-गोष्‍ठी में बोल रहे हों, वे सहज ही संप्रेषित होते थे। यही गुण उनके लिखने में भी रहा है। जाहिर है ऐसी आसानी, आसानी से स्वभाव का हिस्सा नहीं बनती। उसके पीछे स्वभाव की ‘रक्षा’ और परिष्कार की जरूरत भी पड़ती है। भाषा के साथ एक सहजता और आत्मीयता के रिश्ते को भी पनपाना पड़ता है। शब्द-भंडार को बढ़ाना पड़ता है कि कुछ कहते-लिखते हुए शब्दों का एक ‘अचूकपन’ हासिल किया जा सके। कविता की जरूरत की ये पंक्तियां ही देखिए : ‘‘बहुत कुछ दे सकती है कविता/ क्योंकि बहुत कुछ हो सकती है कविता/जिंदगी में/अगर हम जगह दें उसे/जैसे फूलों को जगह देते हैं पेड़/जैसे तारों को जगह देती है रात/...वैसे कोई चाहे तो जी सकता है/ एक नितांत कविता रहित जिंदगी/ कर सकता है/ कविता रहित प्रेम।’’ उन्होंने मुक्त-छंद में ही अधिक लिखा पर स्वयं ‘छंद’ उनसे कभी छूटा नहीं।

उन्होंने सचमुच स्वयं हिंदी कविता को बहुत कुछ दिया है। उनकी कविता से हिंदी कविता की परंपराओं की स्मृति कभी नहीं गई, साथ ही कविता को ‘नया’ और आधुनिक जमाने में ‘आधुनिक’ करने की एक जरूरी और उचित स्पर्धा भी हमेशा बनी रही। उन्होंने मिथकों और इतिहास का भी बहुत सधा हुआ इस्तेमाल किया—आत्मजयी, वाजश्रवा के बहाने और कुमारजीव जैसे काव्य तो इसका उदाहरण हैं ही, उनकी बहुत-सी कविताएं भी हैं। समकालीन, राजनीतिक-सामाजिक स्थितियां भी उनकी कविता में आती रहीं और सिर्फ तत्कालीन होकर नहीं रह गईं,  भविष्य में भी टिकने वाली बनी रहीं। उन्होंने अपने जीवन से जुड़ी जगहों पर भी अपूर्व और अविस्मरणीय कविताएं लिखीं।

कुंवरजी का जन्म अयोध्या, फैजाबाद में हुआ था। स्कूली-कॉलेजी पढ़ाई भी वहीं हुई। कर्मस्थली बनी लखनऊ। पैतृक व्यवसाय कारों के व्यापार का था—‘स्पीड मोटर’ नाम से बड़े शोरूम-गैराज को हममें से बहुतों ने देखा है। पर, व्यापार में बहुत कम, और लिखने-पढ़ने में बहुत ज्यादा रुचि रखने वाले कुंवर नारायण ने क्रमशः अपना एक बहुत बड़ा निजी पुस्तकालय तैयार किया, साहित्य और कलाओं की दुनिया में ही रमे, और इन्हीं सबके बहुतेरे रचनाकारों के अत्यंत आत्मीय बने। महानगर, लखनऊ वाले घर में कब-कौन उनके साथ ठहरा, या वहां आ-आकर उनसे मिलता रहा, अन्य शहरों से, इसकी सूची बनाने चलें तो वह बहुत लंबी होगी। तत्काल जो नाम याद आ रहे हैं वे ये हैं : अज्ञेय, सत्यजित राय, पंडित जसराज, संयुक्ता पाणिग्रही, व.ब. कारंथ, निर्मल वर्मा। जब तक कुंवर जी लखनऊ में रहे यही स्थिति बनी रही कि चाहे, लखनऊ के रचनाकार हों, किसी भी विधा के, या बाहर के, कुंवर जी से उनका ‘मिलना’ सबसे ऊपर रहता था, और वह भी उन सबसे मिलना चाहते थे, जिनकी लिखने-पढ़ने में या किसी अन्य कला विधा में दिलचस्पी हो। लखनऊ पर ‘लखनऊ’ शीर्षक से ही उन्होंने एक बहुचर्चित कविता लिखी, और एक अविस्मरणीय कविता लिखी ‘एक जन्म दिन जन्म स्थान पर।’ जगहों को भी उन्हीं ने हमेशा गहराई से अनुभव किया, और ‘घर’ को, और उसकी आसपास की चीजों को भी। घर से सटे पेड़ पर लिखी गई उनकी कविता भी, जब भी पढ़िए, नए अर्थ और आशय सौंपती है।

निजी अनुभव किस प्रकार सार्वजनिक और सर्वकालिक बनता है, बशर्ते वह एक ‘मानुष’ दृष्टि से ही जाना गया हो, और उसमें गहरी संवेदना हो, यह भी अन्य बड़े कवियों की कविता की तरह, कुंवर नारायण की कविता पढ़कर जाना जा सकता है। प्रकृति से भी कुंवर जी का लगाव गहरा था, और पर्यावरणीय चिंताओं की जड़ें भी उनकी कविता में गहरी हैं। उन्होंने देश-विदेश की कई यात्राएं भी कीं, और कई खंडों में लिखी गई उनकी कविता ‘एक यात्रा के दौरान’ भी मेरी प्रिय कविताओं में है। उन्हें चीजों को गौर से, अत्यंत आत्मीयता से, विवरणों सहित, सूक्ष्मता से देखते हुए खुद भी देखा है, तब, जब सांची गए थे हम कुछ लोग, और तब भी जब एक बार अयोध्या में, फैजाबाद में, उनके साथ कुछ समय रहने का सुयोग हुआ था। मजे-मजे में, किंचित विनोद के साथ किसी चीज पर की गई उनकी कोई टिप्पणी भी आपको बहुत कुछ दिखा सकती थी, हंसा तो देती ही थी। हां, ‘गंभीर’ और सदाशय कुंवर जी में हास्य-विनोद की मात्रा भी कम न थी, और इसने भी उनके लिखे हुए को कई बार अत्यंत जीवंतता प्रदान की है। यह गुण उनकी कविता में भी झलकता है, और बहुत अधिक झलकता है, उनके कहानी संग्रह आकारों के आसपास की कहानियों में, जिन्हें बहुतेरे लोग ठीक ही, हिंदी-कहानी के एक अनुपम संग्रह, एक अनुपम पड़ाव के रूप में याद करते हैं।

जब कुंवर जी लखनऊ छोड़कर, दिल्ली रहने के लिए आने लगे, और फिर अंततः यहीं बस गए तब एक सुखद संयोग हमारे लिए यह बना कि उन्होंने ग्रेटर कैलाश के एस ब्लॉक में रहना शुरू किया, जहां हम पहले से ही बी ब्लॉक में रह रहे थे। मिलना-जुलना प्रायः होने लगा। मैं अकसर पैदल ही उनके वहां चला जाता, और उनके तथा भारती जी (कुंवर जी की पत्नी) के आतिथ्य का लाभ उठाता। उनसे मिलना, हर बार, कुछ ‘पाकर’ लौटना होता था। जैसे-जैसे उनके बेटे अपूर्व बड़े हुए उनसे भी संवाद होना शुरू हुआ। प्रसंगवश यहीं याद कर लूं कि अपूर्व ने पिता कुंवर नारायण की कविताओं का अंग्रेजी में खरा अनुवाद तो किया ही है, कुंवर जी की जैसी सेवा रात-दिन उसने उनके अंतिम दिनों में चार-पांच माह की है, उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है।

कुंवर जी की कविता में पारिवारिक संबंधों की भी एक मार्मिक उपस्थित है, और इस सिलसिले में उनकी कविता ‘नीम के फूल’ मुझे हमेशा याद आती है। यह भी कुछ गौर करने लायक चीज ही है कि उनकी कविता की विषय-वस्तु चाहे जो हो, वह उस विषय-वस्तु के पार जाकर अपनी मानवीय संवेदनाओं का वृहत्तर जगत खोजती और पाती मालूम देती है। शहर और आदमी की ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं : ‘‘अपने खूंखार जबड़ों में/दबोच कर आदमी को/ उस पर बैठ गया है/ एक दैत्य शहर/... उसने बुरी तरह/ चीर-फाड़ डाला है मनुष्य को/ लेकिन शहर भी अब/ एक बिलकुल फर्क तरह के/ मानव-रक्त से/प्रभावित हो चुका है/ अकसर उसे भी/एक बीमार आदमी की तरह/ दर्द से कराहते हुए सुना गया है।’’

कवि कुंवर नारायण की पीढ़ी धर्मवीर भारती, विजयदेव नारायण साही, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वर जी आदि की पीढ़ी रही है, इसी में रहे हैं कृष्णा सोबती, मनोहरश्याम जोशी, और निर्मल वर्मा, श्रीलाल शुक्ल जैसे लेखक भी। अपनी पीढ़ी से तो उनके घनिष्‍ठ रिश्ते रहे ही, वे पूर्ववर्ती पीढ़ियों वाले अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल के लखनऊ में बड़े हुए और इन सबका स्नेह उन्हें मिला। परवर्ती पीढ़ियों के अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे से लेकर गिरधर राठी, मंगलेश डबराल, विनोद भारद्वाज, असद ज़ैदी, यतींद्र मिश्र, गगन गिल, उदय प्रकाश, गीत चतुर्वेदी— सबके साथ संवादरत रहे। दरअसल, कुंवर जी की यह उपस्थिति स्वयं ‘आधुनिक’ हिंदी संसार की उनके प्रति एक सहज खिंचाव का पता देती है, और बताती है कि उनके महत्व को पीढ़ियां सहज ही स्वीकार करती रही हैं।

औरों के लिखे हुए में कुंवर जी की रुचि का पता बहुतेरी घटनाएं देती हैं, उन्हीं में से एक यह घटना बहुत कुछ कह देती है : जब कुछ मित्रों-शुभचिंतकों को अशोक सेकसरिया को बिना बताए उनका एक संग्रह-प्रकाशित करने की सूझी तो अशोक सेकसरिया की कुछ जरूरी कहानियों की कतरनें कुंवर जी के पास से ही मिलीं, जिन्हें वे वर्षों तक संभाले रहे थे। यह लेखकी नामक संग्रह में संकलित हुईं।

कुंवर जी ने साहित्यिक समालोचना लिखी, कई पुस्तकों की समीक्षा की, जो आज और आज से पहले में संकलित हैं। विश्व कविता से अनुवाद किए जो न सीमाएं, न दूरियां में हैं। उनका संपादकीय योगदान भी याद रखने लायक है। युगचेतना ने बहुतेरे नए लेखकों-कवियों को छापा। छायानट ने अपने कुछ ही अंकों में नाट्य-रंगकर्म-फिल्म पर सुचिंतित सामग्री दी।

एक समय दिल्ली में वे आचार्य कृपालनी के साथ रहे। स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों से लेकर गांधीवादी, समाजवादी कार्यकर्ताओं से उनका परिचय था और आजादी के बाद के भी कुछ राजनेताओं को वे निकट से जानते थे, पर, वे सत्ताधारियों से विचारों का ही साझा करते थे और आजीवन एक लेखक-कवि की प्रतिबद्धता के प्रति ही जागरूक रहे। मिले हुए समय का सार्थक उपयोग कम ही लोग कर पाते हैं, वैसा जैसा कुछ व्यवस्थित ढंग से ही कुंवर नारायण ने किया। और अपने रचना-जीवन की दुनिया को वे सचमुच हमेशा बड़ा करने में लगे रहे। चौदहवें साहित्य अकादेमी संवत्सर व्याख्यान (2003) में साहित्य के कुछ अंतर्विषयक संदर्भ में एक जगह वे कहते हैं, ‘‘समीक्षा ने बहुधा मनुष्य के आर्थिक-सामाजिक यथार्थ को कुछ इस तरह सीमित परिभाषित किया कि एक वृहत्तर जीवन-यथार्थ की परिकल्पना मानो गौण हो। समीक्षा कुछ मुद्दों पर ठहर गई और ठहरी रही। ये मुद्दे आज भी गैर-जरूरी नहीं हो गए हैं, लेकिन इनको सोचने के तरीकों और भाषा में बदलाव जरूरी है। यानी किन्हीं कारणों से जिन ‘समीक्षा’ पदों, और भाषा की पहुंच संकुचित और कमजोर हो गई है, उनमें नई जान डालने के लिए जरूरी है कि हमारी साहित्यिक संवेदनाओं की हमारे समय की विशिष्‍ट जानकारियों के साथ एक ज्यादा उदार, खुले और व्यापक संवाद की स्थिति बने। स्वयं अर्थशास्‍त्र जैसा अर्ध-वैज्ञानिक विषय भी जब अपने को अधिक विस्तृत और मानवीय बनाने के लिए साहित्य जैसी विधाओं की ओर देख रहा है, ऐसे में साहित्य-समीक्षा का प्रायः कुछ विमर्शों से आगे न बढ़ना विडंबनापूर्ण है। कई बार समीक्षा-पदों के संकुचित और एकतरफा होने के पीछे वैचारिक ध्रुवीकरण भी एक बड़ा कारण रहा है।’’

कुंवर जी के पास संस्मरणों और ‘किस्सों’ की कमी न थी, मज़ाज और जिगर मुरादाबादी के साथ के संस्मरण वे सुनाते थे और विभिन्न विधाओं के कलाकारों के भी। वे बुद्धिजीवी थे, रसिक और सहृदय थे, धीर-चित्त वाले थे, सबकी बातें धीरज के साथ ही सुनते-समझते थे। वादों-प्रतिवादों के बीच भी उन्हें ‘स्वीकृति’ मिली, वे सबकी सराहना का कारण बने तो इसके पीछे उनके ‘नैतिक’ और सृजनात्मक लेखन का ही बल था। साहित्य अकादेमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, ज्ञानपीठ पुरस्कार से वे सम्मानित हुए, और पद्मभूषण से अलंकृत। इस सूची में और भी बहुत कुछ है। पर, कुंवर जी की असल पहचान तो उनकी कृतियों में ही है, जो एक बड़ी संख्या में ही उपलब्ध हैं। बहुत कुछ ऐसा भी है, जो अभी प्रकाश में आना बाकी है।

कुंवर जी ने अंग्रेजी के अपने एक प्रिय कवि आर.एस. थॉमस की एक पुस्तक मुझे मेरे जन्मदिन पर भेंट की थी। इस पुस्तक, आर.एस.थॉमसः कलेक्टेड पोयम्स 1945-1990 की कविता ‘सर्किल्स’ की कुछ पंक्तियां हिंदी अनुवाद में कुछ यों होंगी :

‘‘जन्म है मृत्यु का मनुष्य से ही,

है मनुष्य इसीलिए मृत्यु से पहले भी,

बढ़कर मनुष्य से भी है मनुष्य

बाद में मृत्यु के,

स्वप्न हरा देता है मृत्यु को

और जो है स्वप्न देखता,

मरेगा वह नहीं कभी।’’

(लेखक वरिष्‍ठ कवि, साहित्य और कला समीक्षक हैं)

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