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आहत भावनाओं से उपजा था सिख कट्टरपंथ

सिख परंपरा में हिंसा अपरिहार्य तो नहीं मगर हक के लिए शहादत तक लड़ने पर जोर रहा है
आस्थाः सिखों के सभी दस गुरु

समूचे सिख इतिहास में धार्मिक विचार और कट्टरपंथ के संभावित संबंधों के सिलसिले में तीन दौर महत्वपूर्ण हैं। एक, प्रारंभिक सिख परंपरा। दूसरे, बीसवीं सदी का शुरुआती दौर। और तीसरे, बीसवीं सदी की आखिरी चौथाई के साल। ये तीनों दौर अलग-अलग राजनैतिक सत्ता से वाबस्ता हैं। पहले में मुगल बादशाह का राज था, तो दूसरा दौर अंग्रेजी राज का है और आखिरी दौर आजाद भारत का है। आज के लिहाज से आखिरी दौर का हमारे लिए विशेष महत्व है।

प्रारंभिक सिख परंपरा

गुरु नानक ने अहिंसा का समर्थन नहीं किया। वास्तव में, उन्होंने ईश्वर की म‌हिमा का बखान करने वाले एक शूरवीर योद्धा की छवि प्रदर्शित की। जो भी लड़ाई में बहादुरी से लड़ता है वो खत्री (क्षत्रिय) है। गुरु नानक कहते हैं, ‘जौ तों प्रेम खेलन को चाओ, सिर धर तली गली मोरी आओ।’ बाद में यह ‘प्रेम खेलन’ शहादत का पर्याय बन गया। भौतिक संसाधनों और संस्‍था के लिहाज से सिख पंथ ने 16वीं शताब्दी में तेजी से प्रगति की। स्वतंत्र शहर रामदासपुर की स्‍थापना, अमृतसर के बीच हरमंदिर साहब का निर्माण, धर्मग्रंथ के तौर पर पोथी का संकलन और गुरु नानक के चौथे उत्तराधिकारी गुरु अर्जन द्वारा सिख पंथ के संगठन निर्माण में यह परिलक्षित होता है। गुरु अर्जन भगवान की कृपा से स्‍थापित ‘हलीमी राज’, या उदार राज की बात करते थे जिसमें उत्पीड़न और जबर्दस्ती की जगह न हो।

1606 में उनकी शहादत के बाद उनके बेटे और उत्तराधिकारी गुरु हरगोबिंद ने आध्यात्मिकता के साथ सैन्य कौशल को भी आगे बढ़ाया। वे दो तलवार रखते थे, एक, मीरी (लौकिक ताकत की प्रतीक) और दूसरी, पीरी (आध्यात्मिकता की प्रतीक)। धार्मिक मामलों की सुनवाई के लिए उन्होंने अकाल तख्त का निर्माण किया। गुरु तेग बहादुर ने विचार और विवेक की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए ‘प्रेम खेलन’ यानी शहादत पर जोर दिया। एक समकालीन लेखक ने उन्हें भारत का सुरक्षा कवच (हिंद दी चादर) और दुनिया का सुरक्षा कवच (जग चादर) के तौर पर पेश किया। उनकी शहीदी सिखों में शहादत की धारणा के प्रतीक के तौर पर देखी जाती है।

शौर्य की तलवारः बंदा बहादुर की प्रतिमा

शहादत को खालसा का संस्‍थानिक विचार गुरु गोबिंद सिंह ने बनाया। हथियार उठाना और जरूरत होने पर अंतिम दम तक लड़ाई खालसा सिंहों का कर्तव्य माना गया। गुरु गोबिंद सिंह के दौर में ही ‘राज करेगा खालसा’ का आदर्श स्‍थापित हुआ जिसका मतलब यह था कि खालसा सिंह न केवल आत्मरक्षा के लिए बल्कि जीतने और राज करने के लिए भी लड़ेंगे। जफरनामा में गुरु गोबिंद सिंह ने औरंगजेब को लिखा था, ‘जब सभी शांतिपूर्ण तरीके नाकाम हो जाएं तो तलवार उठाना जायज है।’ गौरतलब है कि दसम ग्रंथ में गुरु गोबिंद सिंह को राम और कृष्‍ण की तरह दैवीय अवतार माना गया है।

सिखों के इतिहासकार इस बात का उल्लेख करने में विफल रहे हैं कि 18वीं शताब्दी का खालसा राज गुरु गोबिंद सिंह की विरासत थी। औरंगजेब और बहादुर शाह के साथ शांतिपूर्ण समझौता करने में वे कामयाब रहे थे। सितंबर 1708 तक उनका मानना था कि बहादुर शाह के साथ उनकी वार्ता का स्वीकार्य नतीजा नहीं निकल पाएगा। उन्होंने पंजाब से मुगल शासन को समाप्त करने और खालसा राज की स्‍थापना के लिए बंदा को नियुक्त किया था। बंदा द्वारा स्‍थापित राज काफी कम समय तक अस्तित्व में रहा। लेकिन, यह एक मिसाल बन गया। ‘राज करेगा खालसा’ विचार ने सिंहों को 1760 के दशक में खालसा राज की स्‍थापना होने तक अपना संघर्ष जारी रखने के लिए प्रेरित किया। 1765 में लाहौर में चलाया गया खालसा सिक्का, 1710 में बंदा द्वारा इस्तेमाल की गई मुहर और गुरु गोबिंद सिंह की मुहर में एक चीज सामान्य थी, गुरु नानक से मिले डेग, तेग और फतह (लंगर, तलवार और विजय) का विचार।

अंग्रेजी राज में विद्रोह

अंग्रेजों के राज में सिखों का विद्रोह कई रूपों में प्रकट हुआ। अमेरिका में 1913 में द हिंदी एसोसिएशन ऑफ द पेसिफिक कोस्ट की स्‍थापना हुई, जो ‘गदर पार्टी’ के नाम से जाना जाता है। 1914 की गर्मियों में क्रांतिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए उर्दू और गुरुमुखी में गदर साप्ताहिक की शुरुआत की। ज्यादातर क्रांतिकारी सिख थे। देश की आजादी की प्रेरणा उन्होंने सिख परंपराओं से ली। 1915 में गदर क्रांतिकारियों के जत्‍थे पंजाब में आने लगे। 42 क्रांतिकारियों को मौत की सजा दी गई, 114 को उम्रकैद और 93 को लंबी और छोटी अवधि के लिए कैद की सजा सुनाई गई। वे पंजाब को क्रांति की विरासत दे गए। अगस्त 1922 में एक संगठन का गठन हुआ जो ‘बब्बर अकाली जत्‍था’ के नाम से जाना गया। इसका गठन राजनैतिक स्वतंत्रता हासिल करने के लिए किया गया था। अगस्त 1923 में यह संगठन गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। आंदोलन के ज्यादातर नेता पूर्व गदर क्रांतिकारी थे। इनमें से छह को 1926 में फांसी दे दी गई

कनाडा के गदर क्रांतिकारियों ने संतोख सिंह और रतन सिंह को अपना प्रतिनिधि बनाकर नवंबर 1922 में मॉस्को में चौथे अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट सम्मेलन में भेजा। वे 1923 में भारत लौटे। संतोख सिंह पहचान लिए गए और दो साल के लिए अपने गांव में नजरबंद कर दिए गए। अप्रैल 1928 में आजादी के लिए मजदूरों और किसानों की एक पार्टी ‘कीर्ति किसान पार्टी’ का गठन हुआ। सितंबर 1934 में ‘कीर्ति किसान पार्टी’ पर प्रतिबंध लग गया।

अन्य क्रांतिकारी समूह ‘नौजवान भारत सभा’ का गठन भगत सिंह ने किया था। भगत सिंह और उनके कामरेड साथियों का मानना था कि “इकलौता आदमी भी कुछ दिनों में हजारों पर्चों की तुलना में ज्यादा प्रचार कर सकता है।” देश की आजादी और समाजवादी विचारों पर भारतीय समाज की पुनर्संरचना के लिए 1928 में ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ सक्रिय हुआ। भगत सिंह और उनके साथियों ने दिल्ली असेंबली में अप्रैल 1929 में ‘बहरों को सुनाने’ के लिए बम फेंका। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु पर मुकदमा चला और मार्च 1932 में उन्हें फांसी दी गई।

शुरुआती प्रतिध्वनिः स्टॉकहोम गुरुद्वारा, कैलिफोर्निया में जुटे लोग

आजाद भारत में कट्टरता

1940 के दशक में पंजाब ‘खालिस्तान’ और ‘सिख राज्य’ जैसे शब्दों से परिचित था। स्वायत्त सिख राज्य की मांग को लेकर कुछ चर्चा भी थी। लेकिन स्वायत्त सिख राज्य या खालिस्तान कभी भी सिखों के सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक दल अकालियों के राजनैतिक कार्यक्रम का हिस्सा नहीं रहा। खालिस्तान की मांग तो 1980 के दशक में जोरशोर से उठी। देश का नया संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का गठन दिसंबर 1946 में किया गया। 26 जनवरी 1950 को अंगीकार किए गए संविधान में धार्मिक अल्पसंख्यकों की राजनैतिक सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं किया गया था। अल्पसंख्यकों ने इसे बड़ी त्रुटि माना।

मई 1950 में अकाली दल की कार्यकारिणी ने पंजाबी भाषा और संस्कृति पर आधारित एक राज्य के पक्ष में औपचारिक रूप से प्रस्ताव पास किया। अकाली ने 1952 का चुनाव पंजाबी भाषी राज्य के मुद्दे पर लड़ा। सभी सिख दलों और संगठनों ने मास्टर तारा सिंह को केंद्र सरकार के पास सिखों का प्रति‌निधित्व करने के लिए अधिकृत किया। चर्चाओं के बाद फरवरी 1956 के अंत में एक समझौता हुआ जिसे क्षेत्रीय फॉर्मूला के रूप में जाना जाता है। 30 सितंबर 1956 को अकाली दल ने कांग्रेस से जुड़ने का मुद्दा सुलझा लिया। अब उनका अलग राजनैतिक एजेंडा नहीं था। उनका ध्यान सिख पंथ के धार्मिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक हितों पर था।

आखिर 17 अप्रैल 1966 को एक आयोग का ऐलान हुआ। पुनर्गठन विधेयक केवल पंजाबी भाषी राज्य के लिए ही नहीं बल्कि अलग ‌हरियाणा राज्य के लिए भी था। नवंबर 1966 में पंजाब राज्य बना। लेकिन बड़ी संख्या में पंजाबी भाषी गांवों को नए पंजाब से बाहर कर दिया गया था। राजधानी चंडीगढ़ को केंद्र शासित क्षेत्र बना दिया गया। बिजली और सिंचाई परियोजनाएं केंद्र सरकार के अधीन थीं। पंजाब की समस्या और ज्यादा जटिल हो गई।

नौ जुलाई 1975 को अकालियों ने इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ ‘लोकतंत्र बचाओ’ मोर्चा शुरू किया। 1977 की शुरुआत में इमरजेंसी समाप्त हुई लेकिन उस दौरान करीब 40 हजार अकाली गिरफ्तार किए गए। अक्टूबर 1978 में लुधियाना में अखिल भारतीय अकाली सम्मेलन में 1973 के आनंदपुर साहिब संकल्पों के तहत करीब एक दर्जन प्रस्ताव पास किए गए। इन प्रस्तावों में राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मुद्दों को व्यापक तौर पर जगह दी गई थी। केंद्र-राज्य संबंध, चंडीगढ़ और अन्य पंजाबी भाषी क्षेत्रों का पंजाब में विलय, सभी प्रमुख कार्यों पर नियंत्रण और नदी जल वितरण इन प्रस्तावों में शामिल थे।

1980 के चुनाव के बाद कांग्रेस के मुख्यमंत्री दरबारा सिंह को बढ़ती ‌हिंसा का सामना करना पड़ा। यह स्थिति अक्टूबर 1983 में उनकी सरकार की समाप्ति तक बनी रही। निरंकारी बाबा गुरुबचन सिंह की दिल्ली में हत्या कर दी गई। संत जरनैल सिंह संदिग्‍ध था। निरंकारी संतों से सहानुभूति रखने वाले हिंद समाचार समूह के संपादक लाला जगत नारायण की सितंबर 1981 में हत्या कर दी गई। संदिग्‍ध संत जरनैल सिंह ने 20 सितंबर को गिरफ्तारी दी। मेहता चौक पर भारी भीड़ इकट्ठा हो गई और पुलिस ने गोली चला दी जिसमें 11 लोगों की मौत हो गई। संत जरनैल सिंह 15 अक्टूबर को ‌हिरासत से छोड़ दिया गया।

जुलाई 1981 में एक सम्मेलन में अकाली दल ने आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को आगे बढ़ाने का फैसला किया। अकालियों ने अक्टूबर में प्रधानमंत्री को 15 मांगों का ज्ञापन सौंपा। इंदिरा गांधी 1976 के अपने मनमाने फैसले को बदलना नहीं चाहती थीं। वह सतलुज-यमुना लिंक नहर हरियाणा के हवाले करना चाहती थीं। अप्रैल 1982 में हुए अकालियों के नहर रोको आंदोलन का असर नहीं हुआ। छह अक्टूबर 1983 को राष्ट्रपति शासन लागू होने के साथ दरबारा सिंह की सरकार समाप्‍त हो गई।

चार अप्रैल से 29 अगस्त 1983 के बीच अकालियों ने रास्ता रोको, रेल रोको और काम रोको अभियान चलाया। आठ फरवरी 1984 में दिल्ली में त्रिपक्षीय बैठक हुई। इसमें पांच कैबिनेट मंत्री, पांच सचिव, पांच अकाली नेता और विपक्षी दलों के 15 नेता शामिल हुए। बैठक से समझौता करीब दिख रहा था। लेकिन, ‌हरियाणा में सिख विरोधी हिंसा भड़कने से इस पर पानी फिर गया।

संत लोंगोवाल ने मई 1984 में तीन जून से असहयोग आंदोलन का आह्वान किया, विडंबना यह है कि इसी दिन ऑपरेशन ब्लू स्टार की शुरुआत हुई थी। इंदिरा गांधी ने सैन्य कार्रवाई को लेकर आखिरी फैसला अप्रैल 1984 में लिया था। तीन जून को देश के अन्य हिस्सों से पंजाब अलग-थलग हो गया। चार जून को सेना ने गोलीबारी की शुरुआत की। पांच जून को यह‌ बेअसर साबित हुआ। छह की सुबह टैंक का इस्तेमाल किया गया। रात खत्म होने से पहले स्वर्ण मंदिर परिसर में निर्णायक कार्रवाई की गई। करीब पांच हजार लोगों को जान गंवानी पड़ी। आजाद भारत में ‌सिखों के लिए यह सबसे दर्दनाक घटना थी। ऑपरेशन ब्लू स्टार ने सिखों के राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्ध‌िक जीवन को प्रभावित किया।

इंदिरा गांधी ने अकाल तख्त का दोबारा निर्माण कराया, लेकिन इससे सिखों को कोई सांत्वना नहीं मिली। 31 अक्टूबर को इंदिरा गांधी की उनके सिख सुरक्षाकर्मियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। उनकी हत्या के बाद दिल्ली और अन्य शहरों में हिंसा हुई। इंदिरा की हत्या से उपजी सहानुभूति ने कांग्रेस को संसदीय चुनाव में बहुमत दिलाया। उनके बेटे राजीव गांधी नए प्रधानमंत्री बने। राजीव-लोंगोवाल समझौते पर 24 जुलाई को दस्तखत हुए। आनंदपुर साहिब प्रस्ताव की किसी भी मांग को ठोस रूप से स्वीकार नहीं किया गया था, लेकिन विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों के लिए आयोग का गठन किया गया। संत लोंगोवाल की 20 अगस्त को हत्या कर दी गई। इसके बाद जिम्मेदारी सुरजीत सिंह बरनाला के कंधों पर आ गई जिन्होंने 29 सितंबर 1985 को मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली। 26 जनवरी 1986 की तय तारीख तक पंजाब को चंडीगढ़ नहीं देने पर समझौते को पहला झटका लगा। दिल्ली नरसंहार पर रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट फरवरी 1987 में आई। अचानक बरनाला की सरकार बर्खास्त कर दी गई और 11 मई 1987 को राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया।

1987 की गर्मियों में कई कट्टरपंथी समूहों की पहचान की गई। इनमें से चार भिंडरावाला टाइगर्स, बब्बर खालसा, खालिस्तान कमांडो फोर्स और खालिस्तान लिबरेशन फोर्स वास्तव में महत्वपूर्ण थे। कट्टरपंथ का वेग जबर्दस्त तरीके से बढ़ने के कारण खालिस्तान के साथ एक समझौते पर काम करने के लिए मार्च 1988 में कट्टरपंथी भाई जसबीर सिंह रोडे को हिरासत से छोड़ दिया गया। पुलिस महानिदेशक के.पी.एस. गिल ने ऑपरेशन ब्लैक थंडर शुरू किया और स्वर्ण मंदिर परिसर में छिपे आतंकियों को आत्म समर्पण के लिए मजबूर किया। लेकिन, कट्टरपंथ का प्रसार जारी रहा।

नवंबर 1989 में केंद्र में जनता दल की सरकार बनी और प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह सिखों के प्रति सद्‍भावना दिखाने के लिए स्वर्ण मंदिर पहुंचे। उचित राजनीतिक समाधान के लिए उन्होंने सर्वदलीय बैठक बुलाई, लेकिन गठबंधन सरकार का मुखिया होने के नाते वे किसी भी बड़ी मांग को अकेले स्वीकार करने में समर्थ नहीं थे। उनकी जगह नवंबर 1990 में कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। संविधान के दायरे में समाधान की संभावनाओं का पता लगाने के लिए उन्होंने कुछ आतंकी समूहों के साथ गुप्‍त वार्ताएं शुरू कीं। 28 दिसंबर को सिमरनजीत सिंह मान सभी अकाली गुटों के प्रतिनिधि के तौर पर चंद्रशेखर से मिले। 21 जून 1991 को चुनावों का कांग्रेस नेताओं ने विरोध किया। मतदान के दिन की सुबह मुख्य चुनाव आयुक्त ने मतदान स्‍थगित कर दिया। चंद्रशेखर ने इस्तीफा दे दिया।

कांग्रेस के नए प्रधानमंत्री थे पी.वी. नरसिंह राव। पंजाब में फरवरी 1992 में चुनाव हुए। कांग्रेस के पक्ष में भारी हेराफेरी के बावजूद महज 22 फीसदी मतदान हुआ। बेअंत सिंह ने लोकप्रिय जनादेश का दावा किया। 1992 की गर्मियों में सुरक्षा बल भिंडरावाला टाइगर फोर्स और बब्बर खालसा के कुछ महत्वपूर्ण नेताओं को मार गिराने में सफल रहे। 1993 के मध्य में पंजाब अपेक्षाकृत शांत था। सामान्य हालात लौटने के बावजूद 31 अगस्त 1995 को एक आत्मघाती हमलावर ने बेअंत सिंह की हत्या कर दी। बब्बर खालसा ने ऐलान किया कि सिख समुदाय को धोखा देने का दंड बेअंत सिंह को दिया गया है। आतंकवाद को कुचलने की जल्दबाजी में बेअंत सिंह ने सुरक्षा बलों के तौर-तरीकों पर कभी गौर नहीं किया। आतंकवादियों के साथ निर्दोष भी मारे गए। पुलिसिया अत्याचार और गैर कानूनी गतिविधियों से के.पी.एस. गिल जानबूझकर आंख मूंदे रहे। सुरक्षा बलों पर लगाम लगाने में मुख्यमंत्री या तो असमर्थ थे या फिर वे ऐसा करना ही नहीं चाहते थे।

ऐतिहासिक दस्तावेजः  दिल्ली में भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा बम फेंके जाने वाली खबर की कतरन

1996 में सभी दल संसदीय चुनाव की तैयारी कर रहे थे। अकाली दल (बादल) ने हलीमी राज (निष्पक्ष और संतुलित सरकार) के गठन को अपना लक्ष्य बनाने की घोषणा की। पहली बार उसके कार्यकर्ताओं ने हिंदुओं को लेकर खुलापन दिखाया और पंजाबियत की परिकल्पना को इस तरह से पेश किया गया कि अकाली दल एक सिख पार्टी की जगह क्षेत्रीय दल के तौर पर दिखे। फरवरी 1997 में विधानसभा के चुनाव हुए। अकाली दल ने भाजपा के साथ गठबंधन किया। अकाली दल ने 75 और भाजपा ने 18 सीटें जीतीं। अकाली दल को जितनी सीटें मिलीं वह पंजाबी भाषी राज्य के गठन के बाद से किसी भी दल को नहीं मिली थी। 1997 में अकालियों के नरम धड़े का अकाली दल, एसजीपीसी और पंजाब विधानसभा में वर्चस्व हो गया। बीसवीं सदी के अंत में प्रकाश सिंह बादल अकालियों के निर्विवाद नेता के तौर पर उभरे।

बहरहाल, आजादी के बाद सिख कट्टरपंथियों ने किसी नई धार्मिक विचारधारा का प्रचार नहीं किया था, बल्कि उन्होंने प्रारंभिक सिख परंपराओं और सिंह सभा आंदोलन से विकसित धार्मिक नियमों के पालन पर जोर दिया। कट्टरपंथियों और अकालियों के बीच बड़ा अंतर बल प्रयोग को लेकर था। अकालियों का मानना था कि अभी वह समय नहीं आया है जबकि कट्टरपंथियों का मानना था कि यही मौका है। सिख पहचान के लिए ताकत के साथ अधिकार जताने के लिए यह जरूरी था। इसलिए ऐसा लगता है कि सिख विचारधारा हिंसा को अपरिहार्य नहीं मानती।

( लेखक इतिहासकारऔर गुरु नानकदेव विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति हैं)

 

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