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कलाकार गढ़ते नहीं, खोजते हैं

बॉलीवुड अब खुद कलाकारों को खोज रहा है, गांवों में, कस्बों में, कॉलेजों में जहां संभावनाएं हों वहां
हैप्पी भाग जाएगी में डायना पेंटी और अभय देयोल

वजीर के मुकाबले अलीगढ़, फितूर के मुकाबले जुबान, की और का के मुकाबले निल बटे सन्नाटा फिल्में कहीं नहीं ठहरतीं। न धनक का बजट बहुत ज्यादा था न ट्रैफिक में कोई नामी कलाकार था फिर भी ये फिल्में खूब सराही गईं। इसकी वजह थी, वे कलाकार जिन लोगों ने इन भूमिकाओं को विश्वसनीय बना दिया। दर्शकों को लगा ही नहीं कि वह किसी कलाकार को देख रहे हैं बल्कि वे उन्हें वही पात्र लगे। यह कमी रही हाल ही में आई हैप्पी भाग जाएगी में। हैप्पी को दरअसल होना था, हैप्पी गो लकी टाइप। पर वह लंबी-सी मॉडल डायना पेंटी बस थोड़ा सा पंजाबी स्टाइल का शोर-शराबा मचा कर चुप हो गई। यही वजह रही कि एक अच्छे कथानक वाली फिल्म को वैसा रेस्पांस नहीं मिला। फिल्म दर्शकों को पसंद आई लेकिन यह एक सफल फिल्म बनते-बनते रह गई। आजकल निर्माता-यही जोखिम उठाना नहीं चाहते और अपनी फिल्म के लिए एक अच्छे निर्देशक की तलाश के साथ-साथ एक अदद कास्टिंग निर्देशक यानी कलाकारों को खोजने के लिए भी एक व्यक्ति को रख लेते हैं। अब बॉलीवुड बदल रहा है। बहुत वास्तविक फिल्में भले ही न बनें लेकिन वास्तविकता के करीब तो फिल्में बनने ही लगी हैं। बॉलीवुड मध्यवर्ग की नस पकड़ रहा है। यही वजह है कि मध्यवर्ग के बीच से निकली कहानियों को दर्शक खूब पसंद करते हैं।

धनक में नागेश कुकनूर ने साधारण दिखने वाले बच्चे खोजने के लिए दिन रात एक कर दिया। उन्होंने कई बच्चों के ऑडिशन लिए और अंतत: क्रिश छाबरिया और हेतल गढ़ा ने कमाल का वह अभिनय दिखाया कि दर्शकों को लगा जैसे दोनों बच्चे उसी राजस्थान के ढूहों में पले-बढ़े हैं। 

पहले यदि किसी कलाकार को लगता था कि वह फलां रोल के लिए फिट है या वह भी अभिनय कर सकता है तो कुछ ख्वाब टूट जाते थे या दिल में दब कर अधूरे रह जाते थे। लेकिन अब वह दिन लद गए हैं। अब किसी कलाकार को अपना पोर्टफोलियो उठाए-उठाए घूमने और निर्देशक के आगे-पीछे हो कर चिरौरी करने की जरूरत नहीं रह गई है। वक्त बदल गया है। बॉलीवुड ने कास्टिंग डायरेक्टर जैसे पद बना कर राह आसान कर दी है। छोटे शहरों, साधाराण परिवारों और सामान्य दिखने वाले लोग भी बॉलीवुड में काम पा रहे हैं। बॉलीवुड में कास्टिंग डायरेक्टर यानी फिल्म की पटकथा के अनुरूप भूमिका के लिए लोगों को खोजने वाले निर्देशकों ने यह जिम्मेदारी संभाल ली है। छोटे शहरों के कलाकारों को पता ही नहीं होता था कि वह किसके पास जाएं और अपनी प्रतिभा दिखाएं। जयपुर, लखनऊ, हैदराबाद, भोपाल जैसे शहरों में भी अच्छे कलाकार होते हैं लेकिन सभी बिना काम के मुंबई आकर संघर्ष का माद्दा नहीं रखते। यही वजह थी कि पहले सिर्फ सांवले दिखने वाले कलाकार साधारण भूमिका के लिए ले लिए जाते थे। अब अच्छे कलाकारों को भी वास्तविक फिल्मों से जोड़ा जा रहा है। निल बटे सन्नाटा में जब मुकेश छाबड़ा को कलाकार खोजने की जिम्मेदारी मिली तो उनके दिमाग में कई नाम आए और बात बनी प्रतिभाशाली कलाकार स्वरा भास्कर के साथ।

नामी कास्टिंग निर्देशकों में से एक श्रुति महाजन का एक किस्सा सुनाया जिससे पता चलता है कि फिल्मों में भूमिका मिलने को लेकर कलाकार बिलकुल आश्वस्त नहीं रहते। यदि निर्देशक खुद उन तक पहुंचे तब भी उन्हें लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। श्रुति बताती हैं, मेरी कॉम फिल्म के वक्त कई कलाकार पूर्वोत्तर के चाहिए थे। इन्हें खोजने के लिए हम कई जगहों पर गए। चाइनीज रेस्टोरेंट, थाई मसाज सेंटर, बाजार में हम पूर्वोत्तर के चेहरे खोजते थे। जब हम किसी के पास जा कर पूछते थे, क्या आप फिल्म में काम करना चाहेंगे तो लोगों को लगता था हम उन्हें मूर्ख बना रहे हैं! लेकिन अब धीरे-धीरे कलाकारों को पता चल रहा है कि फिल्मों में भूमिका पाने के लिए किसी स्टूडियो के गेट पर या प्रोडक्शन हाउस के चौकीदार को अंदर जाने के लिए पटाना नहीं पड़ता है कास्टिंग डायरेक्टर के पास जाकर एक छोटा सा ऑडिशन देना होता है और कास्टिंग डायरेक्टर खुद उसे नामी और नए निर्देशकों तक पहुचाएंगे।’

हाल के दिनों में तितली, मसान, गैंग्स ऑफ वासेपुर, बॉलीवुड डायरिज ऐसी फिल्में बनी हैं जिनमें वास्तविक दिखने वाले किरदारों की जरूरत रही है। दरअसल, काम दिलाने के बाद भी कास्टिंग निर्देशक की जिम्मेदारी खत्म नहीं होती है। फिल्म बनने के बाद भी कास्टिंग निर्देशक का काम होता है। जिस निर्देशक ने फिल्म निर्देशक को कलाकार सौंपा होता है उसका सीन कब होगा, उसे शूटिंग में कब तक रुकना है यह तो कास्टिंग निर्देशक की तैयारी होती है। साथ ही, जिस भूमिका के लिए उसे चुना गया है, उसे वह कलाकार ठीक तरह से निभा पाए इसके लिए भी कास्टिंग डायरेक्टर जिम्मेदार रहता है। यदि कोई कलाकार उस दिन न आ पाए, बीमार हो जाए या उस तरह परफॉर्म न कर पाए तो उसके बदले तुरंत उस दूसरे कलाकार की व्यवस्था करना भी कास्टिंग निर्देशक का काम होता है। यह फिल्म उद्योग की विडंबना है कि इतनी मेहनत होने के बावजूद अब तक फिल्म फेयर और फिल्मों से संबंधित अन्य पुरस्कारों की श्रेणी में कास्टिंग डायरेक्टर के लिए कोई पुरस्कार श्रेणी नामित नहीं है। 

 

श्रुति महाजन

श्रुति महाजन

आपकी पहली फिल्म कौन सी थी?

कई फिल्मों के लिए सहायक के रूप में काम किया है। लेकिन अकेले तौर पर पहली फिल्म रामलीला और चक्रव्यूह थी।

भारत में इस क्षेत्र में क्या संभावनाएं हैं?

भारत में तो फिल्मों का बड़ा बाजार है। हर तरह की फिल्में बन रही हैं। अब तो वास्तविक फिल्में और फिल्मों में वास्तविकता का चलन बढ़ा है। इसलिए यदि कोई भी व्यक्ति रचनात्मक हो और उसे तरह-तरह के लोग खोजने में दिलचस्पी हो तो इस क्षेत्र में बहुत संभावनाएं हैं।

कास्टिंग निर्देशक होने से क्या वाकई फिल्मों पर असर पड़ता है?

दरअसल, कास्टिंग निर्देशक कलाकारों और निर्देशक के बीच सेतु का काम करता है। फिल्मों पर बहुत सी बातों का असर होता है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि इस वजह से फिल्म पर कितना असर होता है। लेकिन कलाकारों को बहुत फायदा होता है। छोटे शहरों के लोगों को भूमिका पाने के लिए बहुत भटकना नहीं पड़ता। निर्देशकों को एक काम में मदद मिल जाती है। हमारी ही टीम पूरे भारत में कलाकारों को खोजती है। इससे नए कलाकार मिलते हैं और फिल्मों में भी नयापन आता है।

 

 

मुकेश छाबड़ा

मुकेश छाबड़ा

कास्टिंग निर्देशक की खासियत?

पटकथा दिमाग में स्पष्ट होनी चाहिए। कहानी का माहौल और किरदार के चित्र दिमाग में तुरंत बन जाने चाहिए।

पहले आपने किसी के साथ काम किया है?

तिग्मांशु धूलिया के साथ काम किया है।

गैंग्स ऑफ वासेपुर का अनुभव कैसा रहा?

इस फिल्म से मुझे पहचान मिली। सच कहूं तो यह पूरी फिल्म किरदारों के दम पर ही थी। कहानी यदि सशक्त होती है और साथ में किरदार भी उसी तरह मिल जाएं तो यह बोनस होता है।

इस फिल्म के लिए किरदार कैसे खोजे?

पटकथा को बहुत बार पढ़ा। माहौल समझा, फिर सोचा कैसा व्यक्ति इसे करे तो सच लगेगा। बिहार के बारे में जाना, भाषा समझी और फिर किरदार खुद ब खुद आते चले गए।

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