बजट बताता है कि क्या कुव्वत में नहीं है, लेकिन वह इसे भुनाने से भी नहीं रोकता।
विलियम फीदर, चर्चित किताब द बिजनेस ऑफ लाइफ के लेखक
यकीनन बजट सिर्फ अर्थव्यवस्था का ही नहीं, एक राजनैतिक दस्तावेज भी होता है। इसलिए आंकड़े तो महज उस राजनैतिक दिशा का अंदाजा भर देते हैं जिधर सरकार देश को ले जाना चाहती है या अपने वजूद को बनाए या बचाए रखने के लिए अवाम के ख्वाबों और ख्वाहिशों को साकार करने का संकेत देती है। इसी मायने में कई बार वह बजट के जरिए यह भी जाहिर करती है कि किसका अभी वक्त नहीं आया है लेकिन कई बार निगोड़ी सियासी मजबूरियां ऐसी होती हैं कि वह उसे भी हवा देने की कोशिश करती है जो उसकी कुव्वत में नहीं होता। अच्छे दिन के सपने के साथ करीब पौने चार साल पहले सत्ता में आई नरेंद्र मोदी सरकार के आखिरी पूर्ण बजट में यह सब कुछ आप तलाश सकते हैं। बेशक, राजनैतिक तकाजे भी कुछ तो ऐसे हैं ही वरना 2014 से बजट की प्रस्तुतियां कितनी बदल गई हैं?
सो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए-2 सरकार के संकटमोचन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपना आखिरी पूर्ण बजट पेश करते हुए साफ कर दिया कि उन्होंने नवंबर 2016 (जबसे नोटबंदी ने इसकी राजनैतिक दिशा को नया आयाम दिया) के बाद से अपनाई गई मोदी की राजनीतिक रणनीति को ध्यान में रखकर अपना बजट भाषण तैयार किया है। यही वजह है कि उनका भाषण हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का मिलाजुला वक्तव्य था। बात केवल भाषा और बजट भाषण में चुने गए शब्दों की नहीं है, यह उसके कहीं आगे राजनीतिक फायदे नुकसान को केंद्र में रखकर तैयार की गई रणनीति है जो बजट के रास्ते सरकार ने लोगों के सामने रखी है। भले ही बजट के कुछ प्रावधानों पर विशेषज्ञ और राजनीतिक दल बजट के दिन से ही सवाल उठाने लगे हैं लेकिन यह बात भी साफ है कि जेटली का बजट ग्रामीण आबादी, गरीबों और किसानों को केंद्र में रखकर ही तैयार किया गया है। इसका फायदा उनकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 2019 के लोकसभा चुनावों में लेना चाहती है और इसका संदेश साफ-साफ दिया गया है।
दिलचस्प बात यह है कि बजटीय प्रावधानों में कोई भारी-भरकम बढ़ोतरी नहीं की गई और न ही कोई आर्थिक सुधार का कदम इस बजट में दिखा। यही नहीं, इस बजट में औद्योगिक जगत को कोई ऐसी बड़ी सौगात भी नहीं दी गई, जो निजी निवेश को बढ़ावा दे सके। हालांकि बजट के पहले पेश हुए आर्थिक सर्वे में संकेत दिया गया था कि निजी निवेश और निर्यात ऐसे महत्वपूर्ण कारक हैं जिनको बढ़ावा दिए बिना 7.5 फीसदी की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर को हासिल करना मुश्किल है। साथ ही स्टिक के बजाय कैरट यानी सख्ती के बजाय प्रोत्साहन का फार्मूला अपनाने को सही नीति ठहराया गया था। लेकिन इसका कोई बड़ा स्वरूप बजट में देखने को नहीं मिला।
वैसे देश में जुलाई, 2017 में जीएसटी लागू हो जाने के बाद अप्रत्यक्ष करों में कोई बहुत बड़े बदलाव की संभावना नहीं रह गई थी। जीएसटी के बाद यह पहला बजट है। लेकिन मोदी और भाजपा का समर्थक माना जाने वाला मध्य वर्ग और नौकरीपेशा वर्ग ऐसी कुछ उम्मीदें पाले हुए था जो उसे कर राहत के साथ ही बेहतर जीवन के लिए कुछ प्रेरक कदमों के रूप में दिखतीं। जिन दो सबसे अहम बातों के लिए लोग बजट का इंतजार करते हैं क्या महंगा- क्या सस्ता और आय कर दरों में बदलाव, ये दोनों बातें इस बजट में लगभग गायब हैं। पहले मामले में जीएसटी के बाद महंगा-सस्ता का मसला केवल सीमा शुल्क के रास्ते ही बचा है और उसमें वित्त मंत्री ने बढ़ोतरी भी की। लेकिन इसके लिए बजट की कोई जरूरत नहीं होती, यह बजट के बाहर भी किया जाना संभव है। दूसरा व्यक्तिगत और कॉरपोरेट कर का मसला है। जेटली ने व्यक्तिगत आय कर के मामले में टैक्स स्लैब या कर दरों में कोई बदलाव नहीं किया। केवल स्टैंडर्ड डिडक्शन की 40 हजार रुपये की सीमा को लागू कर दिया और साथ ही एजुकेशन सेस में हेल्थ सेस जोड़कर उसे तीन से चार फीसदी कर दिया। नतीजा यह हुआ कि कुछ लोगों को कुछ सौ रुपये का फायदा हुआ तो कुछ को 3,700 रुपये से 37 हजार रुपये तक का अतिरिक्त कर देना पड़ेगा। हालांकि बुजुर्गों को जरूर कुछ राहत दी गई। हमारी बजट करवेज में आगे के पन्नों पर पर्सनल टैक्स पर विस्तार से जानकारी दी गई है।
अरुण जेटली ने बजट में कई घोषणाएं भी कीं, जिन्हें लागू करने के लिए बजट में ख्वाहिशें तो दिखी हैं, लेकिन इसको लेकर संशय है कि उन्हें कैसे लागू किया जाएगा? उसके लिए पैसा कहां से आएगा?
साथ ही 2018 के आखिर तक राज्य विधानसभाओं के साथ लोकसभा चुनाव होने की अटकलें हैं लेकिन स्मार्ट सिटी, स्टार्टअप इंडिया, मेक इन इंडिया, गंगा सफाई जैसी पुरानी बजट घोषणाओं का असर दिखना बाकी है। ऐसे में नई बजट घोषणाओं के लिए 2022 की मियाद ज्यादा सुविधाजनक लग रही है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में छह बार साल 2022 का जिक्र किया। किसान उनकी जुबान पर 30 बार आया तो 21 बार गरीब की बात हुई। करीब एक घंटे 45 मिनट के भाषण में नौजवान का जिक्र सिर्फ तीन बार हुआ तो निवेशकों की बात सिर्फ दो बार। भाषण के सार के अलावा शब्दों के इन प्रयोगों से भी मोदी सरकार की प्राथमिकताएं समझी जा सकती हैं।
ख्वाहिशों पर भारी हकीकत
पूरी उम्मीद थी कि 2018-19 का बजट चुनावी होगा। अर्थव्यवस्था को विकास की पटरी पर दौड़ाने और आम जनता को लुभाने के लिए कई बड़े वादे और दावे किए जाएंगे। किसानों को उपज का डेढ़ गुना दाम देने से लेकर 10 करोड़ परिवारों को पांच लाख रुपये तक का हेल्थ कवर देने जैसी बड़ी घोषणाएं हुईं भी। जिन दो अहम घोषणाओं के दम पर इस बजट को गांव और गरीब का बजट बताया गया, उनमें भी कई पेच हैं। बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि रबी सीजन में अधिकांश फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत का डेढ़ गुना दिया जा चुका है और अगले खरीफ सीजन में बाकी फसलों का डेढ़ गुना दाम भी दे दिया जाएगा। उपज का डेढ़ गुना दाम किसान संगठनों की पुरानी मांग है जो भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र में भी शामिल थी। लेकिन इस वादे को पूरा करने के लिए सरकार कितना पैसा खर्च करेगी, इसका कोई ब्योरा न तो वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में दिया और न ही बजट दस्तावेजों में इसका जिक्र है। दिलचस्प बात यह है कि फसलों का डेढ़ गुना दाम देना अगर इतना ही आसान था तो सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर क्यों कहा था कि इस वादे को पूरा नहीं किया जा सकता। वित्त मंत्री ने खुद माना कि ज्यादा एमएसपी तय करने से ज्यादा जरूरी है किसान को इसका लाभ दिलाना। इसके लिए मध्य प्रदेश की भावांतर योजना की तर्ज पर किसी राष्ट्रीय योजना के ऐलान की उम्मीद की जा रही थी। लेकिन इस मामले को फिलहाल वित्त मंत्री ने नीति आयोग के पाले में डाल दिया है।
हालांकि कृषि मार्केटिंग में सुधार के मोर्चे पर कुछ कदम उठाने की कोशिश की गई है। कृषि कर्ज को 10 लाख करोड़ से बढ़ाकर 11 लाख करोड़ रुपये किया गया है, लेकिन इस पर ब्याज को लेकर कोई राहत नहीं दी गई है। इसका दायरा मछली पालन और डेयरी क्षेत्र तक बढ़ाने का कदम अच्छा है लेकिन यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि बंटाईदार को इसका फायदा कैसे मिलेगा। सबसे खास बात यह है कि उत्पादन बढ़ाने के बजाय अब किसानों की आय बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन दिक्कत यह है कि कई घोषणाओं के लक्ष्य बड़े हैं, मगर बजट कम। उदाहरण के तौर पर, आलू, टमाटर और प्याज के किसानों को कीमतों में गिरावट की मार से बचाने के लिए ऑपरेशन फ्लड की तर्ज पर ऑपरेशन ग्रीन की शुरुआत की गई है। लेकिन इसके लिए सिर्फ 500 करोड़ रुपये का प्रावधान है जबकि किसानों की आय दोगुनी करने के मुद्दे पर बनी अशोक दलवई कमेटी की रिपोर्ट बताती है कि किसान करीब 40 फीसदी फल व सब्जियों को बाजार में बेच ही नहीं पाते। इस अनुमान के आधार पर हर साल किसानों को 63 हजार करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचता है। अकेले पंजाब में इस साल 2500 करोड़ रुपये का आलू बर्बाद होने का अनुमान है। इसी तरह 22 हजार ग्रामीण हाटों को विकसित करने और 585 कृषि मंडियों में बुनियादी ढांचे के सुधार के लिए 2000 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है। यानी एक हाट या मंडी के हिस्से में मुश्किल से 9 लाख रुपये आएंगे।
बजट की दूसरी सबसे बड़ी घोषणा 10 करोड़ गरीब और निम्न आय वर्ग के परिवारों को सालाना पांच लाख रुपये तक का हेल्थ कवर देने वाली नेशनल हेल्थ प्रोटेक्शन स्कीम को माना जा सकता है। इसे मोदीकेयर कहा जा रहा है। यह शब्द अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा शुरू की गई ओबामाकेयर की तर्ज पर दिया जा रहा है। बजट में घोषित स्कीम दुनिया की सबसे बड़ी हेल्थ कवरेज स्कीम हो सकती है बशर्ते इसे पूरी तरह लागू कर दिया जाए। लेकिन इस योजना को लेकर तमाम सवाल खड़े हो रहे हैं। पहले तो बजट में योजना के स्वरूप का कोई खाका पेश नहीं किया गया। वहीं एक अनुमान के मुताबिक, 10 करोड़ परिवारों को पांच लाख का बीमा कवर दिलाने के लिए दो फीसदी के प्रीमियम के हिसाब से भी करीब एक लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा। जबकि वर्ष 2018-19 के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग का बजट ही 52,800 करोड़ रुपये है, जो पिछले वर्ष से सिर्फ 2.5 फीसदी अधिक है।
इससे पहले 2016 के बजट में भी केंद्र सरकार ने एक लाख रुपये तक के हेल्थ कवर वाली राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना का ऐलान किया था जो लागू ही नहीं हुई। अब हेल्थ कवर को एक लाख रुपये से बढ़ाकर पांच लाख रुपये कर दिया गया है लेकिन योजना के लिए सिर्फ 2000 करोड़ रुपये का आवंटन हुआ है। चुनाव से पहले साल की मजबूरी और संसाधनों की कमी को वित्त मंत्री की बड़ी-बड़ी घोषणाओं मगर अपर्याप्त आवंटन से समझा जा सकता है। 2017-18 में केंद्र सरकार का बजट जीडीपी का 13 फीसदी था जबकि वित्त वर्ष 2018-19 का बजट जीडीपी का 12.9 फीसदी है। साथ ही राजकोषीय घाटे के 3.2 फीसदी का लक्ष्य अब 3.5 फीसदी रहने का अनुमान है। असल में सरकार का राजस्व संग्रह दबाव में है और राजस्व घाटा इसमें बड़ी चिंता बनता जा रहा है। यही वजह है कि बांड यिल्ड बढ़ रही है जो मजबूत होती ब्याज दरों का संकेत है। वहीं महंगाई दर भी लक्ष्य से ऊपर चली गई है। इस स्थिति में इसी माह के शुरू में होने वाली रिजर्व बैंक की मोनेटरी पालिसी कमेटी की बैठक में ब्याज दरों में कटौती की संभावना न के बराबर रह गई है। साथ ही जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड ऑयल की कीमतें 70 डॉलर के पार चल रही हैं वह महंगाई और रुपये के साथ ही राजकोषीय घाटे पर दबाव का संकेत दे रही हैं।
वैसे सरकार राजस्व पर दबाव का हल विनिवेश के रास्ते भी देख रही है। चालू साल में विनिवेश से करीब एक लाख करोड़ से ज्यादा मिलने का अनुमान है जो बजट के लक्ष्य से बहुत अधिक है। इसके साथ ही अगले साल विनिवेश से 80 हजार करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा गया है। एयर इंडिया की बिक्री तथा बीमा क्षेत्र की कंपनियों के मार्केट में प्रवेश के लिए कदम उठाए गए हैं।
मध्यवर्ग, नौकरीपेशा दरकिनार
ताज्जुब की बात है कि मौजूदा एनडीए सरकार का अंतिम पूर्ण बजट होने के बावजूद इसमें शहरी मध्य वर्ग या कॉरपोरेट जगत को लुभाने की कोशिश नहीं की गई। यह वर्ग भाजपा का परंपरागत मतदाता रहा है। देश के राजनीतिक अर्थशास्त्र में मध्यवर्ग और नौकरीपेशा लोगों का हाशिए पर जाना एक नई घटना है, जबकि यह वर्ग नोटबंदी जैसे कड़े फैसले के वक्त भी धैर्य से सरकार के साथ खड़ा रहा।
जीएसटी के जिस फैसले ने देश की करीब दो फीसदी जीडीपी को निगल लिया, उससे नौकरियों और उद्योग-धंधों पर पड़ी मार भी यही मध्य वर्ग झेल रहा है। लेकिन चुनावी गणित ने इसे फेल कर दिया। लगता है गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों ने भाजपा को गांव-किसान और गरीबों की अहमियत समझा दी है, जिसका असर मोदी सरकार के इस बजट पर दिखा।
आय कर प्रावधानों की बात हमने ऊपर की है। लेकिन मध्य वर्ग और कॉरपोरेट के लिए भले ही बजट राहत नहीं लाया लेकिन झटका जरूर लाया। अधिक रिटर्न के कम होते निवेश विकल्पों के बीच यह वर्ग स्टॉक मार्केट की तरफ सक्रिय हुआ था लेकिन बजट में इक्विटी शेयर और यूनिट लिंक्ड फंड से होने वाली एक लाख रुपये से ज्यादा की कमाई पर 10 फीसदी लान्ग टर्म कैपिटल गेन (एलटीसीजी) टैक्स लगा दिया है। इस कदम से सरकार को पहले साल ही 20 हजार करोड़ रुपये का राजस्व मिलने का अनुमान है। इस कदम का प्रतिकूल असर शेयर बाजार पर बजट के दिन तो कम दिखा लेकिन इसके अगले दो दिनों तक बाजार दो हजार अंकों तक गिर गया और निवेशकों ने करीब दस लाख करोड़ रुपये इसमें गंवा दिया। यह झटका इस वर्ग के लिए बहुत बड़ा है और यह इसे चुनावी साल में याद रह सकता है, जो सत्ता दल के लिए राजनीतिक रूप से घाटे का सौदा साबित हो सकता है।
अगला बड़ा मुद्दा रहा है रोजगार सृजन का। इस पर वित्त मंत्री ने काफी समय लगाया लेकिन इसमें जहां कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के लिए उठाये गये कदमों को दोहराया गया, वहीं स्किल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, मुद्रा लोन योजना और उद्योगों को दी गई पीएफ और दूसरी वित्तीय छूट को ही आधार बनाया गया है।
लेकिन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश या निजी निवेश को बढ़ावा देने का कोई बड़ा कदम इसमें नहीं दिखता है। लघु और मझोली इकाइयों के लिए काॅरपोरेट कर को 25 फीसदी करने के कदम को इसके लिए अहम बताया गया है। इसके तहत 250 करोड़ रुपये के टर्नओवर वाली कंपनियों को कर की घटी दर के दायरे में लाया गया है। इसके साथ ही गारमेंट सेक्टर को दी गई छूट के नतीजे देखते हुए कंपनियों को नौकरियां देने के लिए प्रोत्साहन के रूप में भविष्य निधि में कंपनी के अंशदान को सरकार द्वारा दिए जाने के प्रावधान किए गए।
इसके साथ ही पहले से ठंडे चल रहे मेक इन इंडिया को बूस्ट करने के लिए आयात पर सीमा शुल्क बढ़ाने का फैसला लेकर घरेलू मैन्यूफैक्चरिंग को बढ़ावा देने की कोशिश की है। सरकार चाहती है कि जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग की हिस्सेदारी 25 फीसदी हो जाए ताकि जीडीपी की वृद्धि दर के साथ रोजगार के ज्यादा अवसर पैदा हो सकें। लेकिन बजट के कदम उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अभी तो नाकाफी लग रहे हैं।
इंफ्रास्ट्रक्चर और रेलवे पर अच्छे खासे निवेश की घोषणा बजट में है लेकिन इसका बड़ा हिस्सा बजट के बाहर से ही आ रहा है।
अब देखना है कि यह बजट एनडीए सरकार, भाजपा और खुद प्रधानमंत्री मोदी के लिए कितनी सौगात जुटा पाता है। हालांकि बजट के दिन ही कुछेक उपचुनावों ने जो नतीजे सुनाए, उससे इस बजटीय सौगात के तकाजे और बढ़ गए हैं।