यूं शांति, सहयोग और आर्थिक प्रगति के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संगठन, गुट निरपेक्ष देशों का संगठन, यूरोपीय यूनियन, जी-20 और जी-5 संपन्न प्रभावशाली देशों के संगठन, पूर्वी एशिया का संगठन आसियान, दक्षिण एशिया देशों का समूह सार्क से जुड़ी सरकारों और उनके नेता समय-समय पर आवाज उठाते रहते हैं। लेकिन उनके अपने हित तथा पूर्वाग्रह से भाषण, घोषणा-पत्र और समझौते पूरी तरह क्रियान्वित नहीं हो पाते। इस दृष्टि से गैर सरकारी स्तर पर एशियाई देशों में सरकारों, सिविल सोसाइटी एवं धार्मिक आस्था से जुड़े संगठनों के नेताओं की भूमिका अधिक लाभदायी साबित हो सकती है। लोकतांत्रिक समाज में शांति, सद्भाव, आर्थिक सहयोग के संयुक्त प्रयास की एक बड़ी पहल यूनिवर्सल पीस फेडरेशन ने काठमांडू में एक प्रभावशाली सम्मेलन के माध्यम से की। तीन दिन के इस अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में करीब 29 देशों के 65 चुनिंदा सांसद, सात कैबिनेट मंत्री, दो देशों के पूर्व राष्ट्रपति एवं हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, ईसाई, जैन धार्मिक संगठनों के विद्वान प्रचारक शामिल हुए। नेपाल की प्रजातांत्रिक व्यवस्था में उथल-पुथल के दौर चलते रहने के बावजूद नेपाली प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी मंत्रियों, सांसदों ने इस बात को स्वीकारा कि क्षेत्र में शांति के लिए लोकतांत्रिक प्रयासों से ही लोकहित के परिणाम सामने आ रहे हैं।
यूनिवर्सल पीस फेडरेशन को संयुक्त राष्ट्र संगठन की आर्थिक-सामाजिक परिषद में परामर्शदात्री मान्यता मिली हुई है। करीब तीन दशक पहले फादर सन म्युंग मून और डॉ. हाक जा हान मून द्वारा स्थापित इस संगठन ने एशिया, अफ्रीका, यूरोप, मध्य-पूर्व, उत्तर-दक्षिण सेंट्रल अमेरिका, प्रशांत क्षेत्र के देशों में सामाजिक-आर्थिक सहयोग बढ़ाने एवं गैर सरकारी सामाजिक नेताओं को सक्रिय रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। लोकतांत्रिक देशों में सरकारें बदलती रहना स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन विभिन्न देशों की सामान्य जनता के बीच सद्भावना, भाईचारे एवं सह-अस्तित्व के जीवन मूल्यों को रेखांकित करने का काम गैर सरकारी संगठनों से जुड़े समर्पित लोग ही कर सकते हैं। काठमांडू में भी ऐसे विचारों का अद्भुत संगम देखने को मिला। भारत सहित विभिन्न देशों के परस्पर विरोधी राजनीतिक दलों के नेताओं ने वर्तमान दौर में आतंकवाद एवं युद्ध के खतरों को रोकने के लिए विश्व के चुनिंदा सांसदों का एक संगठन बनाने का संकल्प व्यक्त किया। मानव अधिकारों की रक्षा के लिए लोकतांत्रिक देशों के प्रतिनिधि ही अहम भूमिका निभा सकते हैं। इसी तरह तनाव, टकराव, नफरत, सांप्रदायिक उन्माद को रोकने में मीडिया की भूमिका को अहम माना जाता है। शांति स्थापना के लिए सामाजिक जागरूकता और अनुकूल माहौल मीडिया ही बना सकता है।
इसे संयोग ही कहा जाना चाहिए कि काठमांडू के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के बाद अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजाई, नेपाल के उप प्रधानमंत्री विमलेंदु निधि और रूस के उप प्रधानमंत्री दमित्री रोगोजिन ने नई दिल्ली में शीर्ष भारतीय नेताओं से इस क्षेत्र में शांति और पारस्परिक सहयोग के मुद्दों पर विस्तार से बातचीत की। नेपाल हो या अफगानिस्तान भारत के साथ ऐतिहासिक रिश्तों को मजबूत रखने के पक्षधर हैं। हामिद करजाई ने सार्वजनिक कार्यक्रमों के अलावा कुछ संपादकों के साथ अनौपचारिक बातचीत में इस बात पर बल दिया कि किसी भी क्षेत्र में सेना और गोला-बारूद से समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं संवाद के जरिये ही आतंकवाद की समस्या से भी निपटा जा सकता है। उनका इशारा पहले अफगानिस्तान में सोवियत संघ के सीधे, हस्तक्षेप एवं नियंत्रण, फिर तालिबान के आतंकवाद से निपटने के लिए अमेरिकी सैनिक शक्ति के प्रयोग से क्षेत्र में स्थायी शांति न आने की ओर था। आतंकवादी गतिविधियों और सेना के बीच निरंतर संघर्ष से अफगानिस्तान में बहुत तबाही हुई है। करजाई ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बलूचिस्तान में नागरिकों के दमन को रोकने और उन्हें स्वतंत्र लोकतांत्रिक अधिकार मिलने की अपील का समर्थन किया। इसमें कोई शक नहीं कि पाकिस्तान में नवाज शरीफ के नेतृत्व वाली चुनी हुई सरकार को सेना तथा आई.एस.आई. ने कठपुतली बनाकर रखा हुआ है। यही नहीं, आतंकवादी संगठनों को भी पाक सेना का बड़ा समर्थन मिलना संपूर्ण विश्व शांति के लिए घातक है। धर्म के नाम पर दुनिया भर में बर्बादी की कोशिश कर रहा आईएसआईएस जैसा संगठन नई चुनौती बन चुका है। अमेरिका ही नहीं रूस ने भी इस चुनौती से निपटने के लिए सैन्य शक्ति का प्रयोग किया है। इन परिस्थितियों से लोकतांत्रिक देशों के नेताओं के संयुक्त प्रयासों से ही निपटा जा सकेगा। एशिया क्षेत्र का तनाव यूरोप एवं अमेरिकी समाज के लिए भी खतरा बन चुका है। भारत, रूस और चीन की भूमिका अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए महत्वपूर्ण साबित होगी।