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‘हाथी’ को झटकों से उबारने की राह

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के कई नेता हाल में दूसरी पार्टियों में शामिल हुए मगर आगरा की बड़ी रैली से मायावती का भरोसा बढ़ा
आगरा में बसपा की रैली

चुनाव पूर्व कुछ सर्वेक्षणों में मायावती को तीसरे स्‍थान पर दर्शाने और बसपाई खेमे से अनेक दिग्गजों के अन्य दलों में जाने के बावजूद उत्तर प्रदेश में मायावती को अंगदी पांव मजबूती से जमीन पकड़े हुए है। प्रदेश में माया की दावेदारी अपने जिस दलित वोट बैंक के भरोसे है वह अब भी खम ठोक कर उनके साथ खड़ा है। हाल ही में आगरा में हुईँ मायावती की मंडलीय रैली में उमड़ी भीड़ इसकी तस्दीक करने को काफी है। हालांकि पिछले कुछ महीनों में मायावती को कई झटके भी लगे हैं और उनकी चाल कुछ डगमगाई भी है मगर शीघ्र ही वह उससे उबरती नजर आ रही हैं और अपने उसी पुराने अंदाज में भाजपा, सपा और कांग्रेस को एक साथ लपेट रही हैं। हां, यह जरूर है कि मायावती इस बार दलितों के साथ ब्राह्मणों का गठजोड़ दोबारा आजमाने के बजाय पुन: अपने परखे हुए दलित-मुस्लिम फैक्टर की ओर लौटती दिखाई पड़ रही हैं।

वेश्या से आपत्तिजनक तुलना के बाद भाजपा पर बिफरीं बसपा सुप्रीमो ने इस मुद्दे को गरमाने का मन बनाया था। दरअसल, उनकी योजना बिखर रहे अपने दलित वोट बैंक को इस मुद्दे पर संगठित करने की थी मगर उनके ही सिपहसालार नसीमुद्दीन सिद्दीकी और राम अचल राजभर जैसों ने उनका खेल बिगाड़ दिया। प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह द्वारा अपनी बहन जी के अपमान के बदले सिंह की पत्नी और बेटी को पेश करने की मांग कर बसपाई जैसे अपनी जीती बाजी ही उलट बैठे। दयाशंकर की पत्नी द्वारा पलट कर यह पूछने पर कि कहां पेश होना है, बसपाइयों को सांप सूंघ गया। शुरुआती दौर में इस मुद्दे से डरी भाजपा भी बाद में आक्रामक हो गई और उसने प्रदेश भर में ‘बहन-बेटी के सम्मान में-भाजपा मैदान में’ के नारे के साथ सभाएं और नसीमुद्दीन के पुतले फूंक कर माया की बिसात पलट दी। दयाशंकर सिंह और उनकी पत्नी स्वाति सिंह अब खुलेआम मायावती को प्रदेश की किसी भी सीट से स्वाति सिंह का मुकाबला करने की चुनौती दे रहे हैं। हालांकि मायावती इसका जवाब यह कह कर देती हैं कि उनके पास फालतू की चुनौतियों के लिए समय नहीं है मगर वह जानती हैं कि चुनाव के दौरान स्वाति सिंह यदि मुकाबले में आईं तो माहौल बिगड़ेगा ।

 

प्रदेश की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले मानते हैं कि पहले नारी अस्मिता और अब दलितों संबंधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान भाजपा के पक्ष में बसपा के नौ फीसदी उस दलित वोट बैंक में सेंध लगाने को आया है जो मायावती की अपनी जाति जाटव नहीं है। उसे मोहने के लिए ही भाजपा ने आनन-फानन में पहले दयाशंकर को पार्टी से निष्कासित किया और फिर स्वामी प्रसाद मौर्य को बसपा से तोड़ कर अपनी पार्टी में शामिल किया। मायावती की मजबूरी है कि वह भाजपा की तरह नारी अपमान करने वाले नसीमुद्दीन को पार्टी से निष्कासित नहीं कर सकतीं। आगामी विधानसभा चुनाव उन्हें प्रदेश के 21 फीसदी दलितों के साथ 19 फीसदी मुस्लिमों को जोड़ कर ही लड़ना है। नसीमुद्दीन के खिलाफ कार्रवाई से मुस्लिमों में गलत संदेश जा सकता है। यूं भी नसीमुद्दीन पार्टी के सबसे बड़े मुस्लिम चेहरा हैं अत: इस मुद्दे पर पार्टी ने मुकाबला करने का ही मन बनाया है। जातिगत समीकरणों के दम पर ही राजनीति करने वाली मायावती के समक्ष हालांकि एक खतरा अब ठाकुर मतदाताओं के नाराज होने का भी है। मायावती प्रदेश की दो दर्जन से अधिक ठाकुर-बहुल सीटों पर इसी जाति के प्रत्याशी खड़े करने वाली थीं मगर स्वाति प्रकरण के बाद ठाकुर मतदाता बसपा से खफा हैं। पार्टी के ठाकुर समाज के कोऑर्डिनेटर अजय सिंह ने भी पार्टी छोड़ दी है। ऐसे में बसपा का अगड़ी जातियों को जोड़ने की योजना को झटका लगा है। पार्टी का मन इस बार पुन: तेरह फीसदी ब्राह्मण मतदाताओं पर भरोसा करने का भी नहीं है। इसी मतदाता वर्ग को दलितों के साथ जोड़ कर उसने वर्ष 2007 में स्पष्ट बहुमत से प्रदेश में सरकार बनाई थी। ब्राह्मण मतदाताओं को लुभाने के लिए ही पार्टी ने वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों में 74 और 2014 में 21 लोकसभा सीटों पर ब्राह्मण प्रत्याशी उतारे मगर एच्छिक परिणाम नहीं निकला। यही कारण है कि पार्टी ने इस बार ब्राह्मण प्रत्याशी कम उतारे हैं। इसे लेकर पार्टी में विरोध भी दिख रहा है और मायावती की आगरा की सफल रैली के संयोजक रहे ब्रजेश पाठक ने रैली के तुरंत बाद भाजपा का दामन थाम लिया। पाठक उन्नाव से सांसद रहे हैं और राज्यसभा सदस्य भी रह चुके हैं। पाठक के जाने के बाद अब केवल सतीश मिश्रा ही इकलौते ब्राह्मण चेहरा बसपा में रह गए हैं। पार्टी के बड़े कार्यक्रमों से सतीश मिश्रा को दूर रखे जाने से भी यह संदेश जा रहा है कि पार्टी इस बार ब्राह्मणों के भरोसे नहीं है। ब्रजेश पाठक के इस आरोप से भी इसकी पुष्टि होती है कि पार्टी ने इस बार सत्तर ब्राह्मणों के टिकट काटकर मुस्लिमों को दे दिए हैं। 2007 का विधानसभा चुनाव पार्टी ने दलित-मुस्लिम और ब्राह्मण वोटों के दम पर ही जीता था।

तमाम दुश्वारियों के बावजूद मायावती के कमजोर न पड़ने के पीछे का प्रमुख कारण प्रदेश के दलितों का उनके पीछे खड़े होना माना जा है। चाह कर भी भाजपा इसमें सेंध नहीं लगा पाई है। हाल ही में देश भर में गौ रक्षा के नाम पर दलितों की पिटाई ने तो जैसे बसपा को संजीवनी ही दे दी है। मायावती इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को खूब खरी-खोटी सुना कर अपने वोट बैंक को लुभाने में कामयाब होती दिखाई पड़ रही हैं। वह कहती हैं कि प्रधानमंत्री दलितों से सहानुभूति का नाटक कर रहे हैं और दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रहे। गौ रक्षा के नाम पर उपजे विवाद से प्रदेश का मुस्लिम भी खुद को पीड़ित महसूस कर रहा है। ऐसे में दलितों के प्रति उनकी सहानुभूति स्वाभाविक है, इसी संवेदना को बसपा अपनी सोशल इंजीनियरिंग से जोड़ना चाहती है। यूं भी संख्या बल में दोनों मजबूत हैं तथा मिल कर कुछ बड़ा कर सकने में सक्षम हैं। हालांकि विगत विधानसभा में मुस्लिमों ने बसपा के बजाय सपा पर ज्यादा भरोसा किया था मगर इस बार एंटी इनकंबेंसी का लाभ बसपा उठाना चाहती है। अगड़ी जातियों के वोट भाजपा और कांग्रेस में बंटने को भी पार्टी अपने हित में मानती है और अपने ही समीकरणों से मैदान मारने की जुगत में है।

आगरा में हुई पार्टी की रैली में मायावती का जोश देखते ही बनता था। पार्टी छोड़ कर गए स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी और अन्य नेताओं का उन्होंने जिक्र भी नहीं किया और अपना पूरा भाषण केंद्र और प्रदेश सरकार को घेरने में लगाया। उन्होंने अपने समर्थकों को समझाने का प्रयास किया कि केंद्र सरकार आरक्षण को खत्म करना चाहती है। दलितों और मुस्लिमों पर बढ़ते अत्याचार की भी उन्होंने जम कर चर्चा की। महंगाई न थाम पाने को लेकर भी उन्होंने मोदी सरकार की भर्त्सना की। स्मरण हो कि प्रदेश में जब-जब सपा की सरकार बनी है उस पर कानून व्यवस्था चौपट करने के आरोप लगते हैं। मायावती भी इसका लाभ सदा उठाती रही हैं और आगरा रैली में भी उन्होंने आरोप लगाया कि प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति चौपट हो गई है। मायावती के जोश से इतर देखें तो स्पष्ट है कि इस बार प्रदेश में भाजपा भी कमजोर नहीं है। लोकसभा चुनावों में 43 फीसदी वोट लेकर और 71 सीटों पर कब्जा कर उसने सबको चौंका दिया था। हालांकि इस बार प्रदेश में मोदी लहर कहीं दिखाई नहीं पड़ रही मगर फिर भी भाजपाइयों का जोश देखते बनता है। कांग्रेस भी राज बब्बर, गुलाम नबी आजाद, प्रशांत किशोर और शीला दीक्षित के दम पर बेहतर प्रदर्शन के स्थिति में दिखाई पड़ रही है। उधर, अखिलेश सरकार का प्रदर्शन भी अच्छा माना जा रहा है और उनके कम बैक की भी अटकलें खूब हैं मगर इन सबमें मायावती ही ऐसी हैं जो कुछ चौंकाने वाला कर सकती हैं। चुनावों में अब चंद महीने ही रह गए हैं और खेल है कि दिन-प्रतिदिन दिलचस्प ही होता जा रहा है।

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