यह एहसास देश की ज्यादातर मीडिया कंपनियों में शायद गहराने लगा है कि प्रतिद्वंद्वी अखबार, टीवी चैनल या वेबसाइट उनके लिए अभिशाप नहीं हैं, बल्कि उन्हें ज्यादा खतरा टेक कंपनियों, खासकर गूगल और फेसबुक से है। दोनों खुद को टेक्नोलॉजी कंपनी बताती हैं, पर कमाई मीडिया कंपनियों की तरह ही करती हैं।
विज्ञापन से मीडिया कंपनियों की कमाई का बड़ा हिस्सा पिछले कुछ समय से टेक्नोलॉजी कंपनियां झपट ले जा रही हैं। कंटेंट तैयार करने पर करीब-करीब शून्य खर्च के बावजूद न्यूज साइटों, ब्लॉग की हेडलाइन और वेब लिंक के कारण बड़ी संख्या में लोग गूगल न्यूज को देखते हैं। हालांकि इन पन्नों पर कोई विज्ञापन नहीं होता। पर उपभोक्ताओं द्वारा विशिष्ट समाचारों की खोज गूगल को सही संदर्भ में उपयुक्त विज्ञापन पेश करने का मौका देती है। यह विज्ञापनदाताओं को भी संभावित ग्राहकों को खोजने का बेहतर मौका देती है। इस तरह गूगल विज्ञापन राजस्व की मलाई खा रहा है। फेसबुक उन लोगों तक पहुंचता है जो देर तक साइट पर रुकते हैं। गूगल तो महज एग्रीगेटर (संग्रहक) है लेकिन फेसबुक पब्लिशिंग प्लेटफॉर्म है। फिर भी, वह खुद को मीडिया कंपनी नहीं मानती।
नतीजतन, चीन के बाहर इंटरनेट पर एकाधिकार रखने वाली गूगल और फेसबुक 2016 में विज्ञापन से कमाई करने वाली दो शीर्ष कंपनियां थीं। मीडिया डाटा एनालिस्ट जेनिथ के मुताबिक विज्ञापन से दोनों ने क्रमशः 79.4 अरब डॉलर और 26.9 अरब डॉलर की कमाई की। दुनिया भर में कुल विज्ञापन का करीब पांचवां हिस्सा इन दोनों के पास जा रहा है और इसमें लगातार इजाफा हो रहा है। इनके अलावा चीन की इंटरनेट त्रयी-बायडू, टेंसेंट और अलीबाबा की भी इस पर निगाहें हैं। एक अन्य मीडिया रिपोर्ट के अनुसार 2020 तक विज्ञापन खर्च में होने वाले हरेक 10 डॉलर के इजाफे में से नौ डॉलर इंटरनेट कंपनियों के पास जाएगा। इसमें से भी ज्यादातर हिस्सा गूगल, फेसबुक और चीन की इंटरनेट त्रयी कंपनियों के खाते में जाएगा।
मार्च 2017 में समाप्त हुए वित्त वर्ष में गूगल ने भारत से 7,208 करोड़ रुपये की कमाई की। यह टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रकाशक देश के सबसे बड़े मीडिया समूह बेनेट कोलमेन एंड कंपनी लिमिटेड (बीसीसीएल) की कमाई से कुछ ही कम है। बीसीसीएल और उसकी सहायक कंपनियों ने पिछले वित्त वर्ष में 10,000 करोड़ रुपये का कारोबार छुआ था।
जेनिथ के मुताबिक, भारत उन चुनिंदा बाजारों में है जहां परंपरागत मीडिया को मिलने वाले विज्ञापन में इजाफा दिखेगा। 2018 में टीवी विज्ञापन में नौ, रेडियो में 10 और प्रिंट के विज्ञापन में पांच फीसदी इजाफे का अनुमान है। लेकिन, सबसे बड़ा इजाफा इंटरनेट पर विज्ञापनों में होगा जो बीस फीसदी तक बढ़ सकता है।
बाजार का रुख निजी ब्रांडों और कंपनियों से टेक्नोलॉजी प्लेटफॉर्मों की ओर मुड़ने से मीडिया जगत में गूगल और फेसबुक (हाल के समय में ट्विटर भी) का उभार हुआ है। गूगल, फेसबुक और चीनी त्रयी के अतिरिक्त ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म और अन्य टेक प्लेटफॉर्म एप्पल और अमेजन हैं।
ये प्लेटफॉर्म वास्तव में एक पारिस्थितिकी तंत्र की तरह हैं, जिनसे लाखों उपभोक्ता, भागीदार, सहयोगी और डेवलपर साथ-साथ काम कर नेटवर्क से फायदा उठाते हैं। यह बदले में प्लेटफॉर्म को और ताकतवर बनाता है। बीस साल पहले गूगल प्लेटफॉर्म न होकर, केवल एक नौसिखिया सर्च इंजन भर था। आज मेल, मीडिया, मैप, शॉपिंग और अन्य चीजों की बदौलत उसने खुद को उन व्यवसायों के लिए अपरिहार्य बना लिया है जो प्लेटफॉर्म पर ग्राहकों की तलाश करते हैं। गूगल के अन्य उत्पाद जैसे स्मार्टफोन के लिए एंड्रॉयड ऑपरेटिंग सिस्टम, उत्तरी अमेरिका के बाहर के सभी बाजारों में करीब 90 फीसदी की हिस्सेदारी के साथ खुद मिनी प्लेटफॉर्म की तरह बन गए हैं।
मीडिया सहित सभी पारंपरिक व्यवसायों के लिए टेक प्लेटफॉर्म के खतरा बनने का कारण यह है कि जब टेक्नोलॉजी बिचौलिए की भूमिका में हो तो वह खरीदारों और विक्रेताओं को एक साथ आपके कंप्यूटर या स्मार्टफोन के स्क्रीन पर ले आता है और उत्पादों के सभी पहलुओं को तय करने में उसकी प्रभावी भूमिका हो जाती है। मसलन, मेकमाईट्रिप डॉटकॉम या क्लियरट्रिप डॉटकॉम जैसे साइट पर जब हम हवाई यात्रा का टिकट खरीदते हैं तो किराए (उड़ान समय के अलावा) की तुलना यात्री के लिए सबसे महत्वपूर्ण होती है। यह फ्लिपकार्ट या अमेजन पर कई मोबाइल फोनों की कीमत की तुलना करने जैसा ही है। इसके कारण अपनी
सेवा या ब्रांड की कीमत के निर्धारण में विक्रेता की कोई प्रभावी भूमिका नहीं होती। वह उत्पाद या सेवाओं की कीमत लेने वाला बनकर रह जाता है। आपूर्ति और मांग दोनों के बारे में टेक प्लेटफॉर्म सब कुछ जानते हैं और इसलिए मांग या आपूर्ति के हिसाब से चीजों को प्रदर्शित करने की यह सबसे बेहतर जगह है।
यूरोपीय संघ (ईयू) का 2016 में प्रस्ताव था कि गूगल उन कंटेंट से होने वाली कमाई के एवज में भुगतान करे, जो उसका अपना नहीं है। लेकिन, इस प्रस्ताव पर अब तक कोई ठोस पहल नहीं हो पाई है, क्योंकि छोटी वेबसाइट को आशंका है कि गूगल से पैसा लेने से उनकी साइट पर लोगों का आना कम हो सकता है। भारत में भी अब वक्त आ गया है कि भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग समाचार और विज्ञापन से कमाई में टेक प्लेटफॉर्म के बढ़ते एकाधिकार की पड़ताल करे। कंटेंट तैयार करने वालों से एग्रीगेटर कैसे कमाई बांट सकते हैं, इसका रास्ता सुझाने के लिए ट्राई और सूचना-प्रसारण मंत्रालय जैसे नियामकों का भी अध्ययन करना चाहिए, ताकि कोई उचित राह निकल सके।
ओला और उबर जैसे अन्य टेक प्लेटफॉर्म के लिए किराए में मिलने वाली हिस्सेदारी की जानकारी ग्राहकों से साझा करना अनिवार्य कर देना चाहिए। उबर और ओला चालक अक्सर इस बात से नाराज रहते हैं कि उनकी बजाय बड़ा हिस्सा प्लेटफॉर्म को मिलता है। इसी तरह विमानन कंपनियों के लिए भी अपनी डायनेमिक फेयर पॉलिसी के ब्योरे समय-समय पर सार्वजनिक करने को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए, ताकि ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी न हो।
डायनेमिक बिजनेस के मामले में बेहद सख्त कानून की सिफारिश करने में संकोच किया जाता है, क्योंकि भारत जैसे देश में सरकार की मनमानी शुरू हो जाती है। लेकिन, यह भी सही है कि टेक प्लेटफॉर्म की कमाई का मॉडल अबूझ है। मतलब यह कि गूगल, अमेजन, उबर या एयरलाइन कंपनियां वगैरह की कीमत तय करने के तरीकों को साफ और पारदर्शी बनाने का विचार तो बुरा नहीं ही कहलाएगा।
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)