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शराबबंदी का अर्थशास्त्र

अपने देश के समाजवादियों की एक बहुत बड़ी खूबी यह है कि वे गाहे-बगाहे सच बोल देते हैं। अपनों और बेगानों की परवाह किए बगैर। हाल में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ‘बड़े भाई’ लालू प्रसाद की पार्टी के कद्दावर नेता रघुवंश बाबू ने बेबाक और खांटी समाजवादी की तरह गोपालगंज में जहरीली शराब से हुई मौतों को लेकर सच बोला है। उन्होंने गोपालगंज की मौतों का कारण बिहार में शराबबंदी कानून के साये में चोरी-छिपे शराब का बनना और बेचना माना है।
बिहार में देसी शराब के पाउच नष्ट करता बुलडोजर

क्या रघुवंश बाबू का यह सच महज नीतीश विरोध और संपूर्ण रूप से शराबबंदी के विरोध तक सीमित है? इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है यानी रघुवंश प्रसाद सिंह का बयान नीतीश विरोध और शराबबंदी विरोध तक ही नहीं है। अलबत्ता, उनका बयान शराबबंदी के अर्थशास्त्र की झलक दिखाता है। पाबंदी के बावजूद शराब बनाने और बेचने का गोरखधंधा शराबबंदी के अर्थशास्त्र का अभिन्न हिस्सा है। यह धंधा एक समानांतर अर्थव्यवस्था को जन्म देता है। हजारों करोड़ रुपये की अर्थव्यवस्था को।

दूसरे कारोबार की तरह शराब व्यवसाय के भी दो पहलू हैं। वैध और अवैध। सरकारी लाइसेंस और इजाजत के माध्यम से बिकने वाली शराब जैसे ही सरकारी फरमान से बिकना बंद होती है वैसे ही पहले से गिद्ध की तरह नजर गड़ाए और समानांतर रूप से खड़े अवैध-नकली, जहरीली शराब का बाजार उस इलाके की तरफ झपटता है जहां कानूनन शराब की बिक्री और इस्तेमाल पर रोक होती है। ऐसा स्वाभाविक रूप से होता है। गोपालगंज में लोगों की मौत अवैध, नकली और जहरीली शराब व्यवसाय के झपटने का ही तो दुष्परिणाम है।

विश्व प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल दी लैनसेट में प्रकाशित एक लेख के अनुसार अपने देश में (भारत में) पी जाने वाली शराब में से दो-तिहाई शराब अवैध होती है। अब जरा अवैध शराब की कारोबारी यात्रा पर नजर डाल लें। बिहार को उदाहरण मानते हुए।

पहले समाज के आला तबके की बात करें। उस तबके की जिसे हम आज के लहजे में टॉप एंड कहते हैं। उस तबके की जो ब्लैक लेबल और सिंगल माल्ट शराब पीने का शौकीन है, जो ऐसी शराब परोस कर अपने को खुमार में रखने के साथ-साथ समाज और सत्ता में प्रभावी लोगों की जीभ के स्वाद को भी उम्दा बनाए रखता है। यदि शराबबंदी वाले बिहार की राजधानी पटना और अन्य शहरों के शौकीन लोग 2800 रुपये से 3000 रुपये मूल्य की ब्लैक लेबल ब्रांड की शराब 500 रुपये से 1500 रुपये अधिक देकर ब्लैक में खरीदते और पीते हैं या फिर सिंगल माल्ट के लिए 4000 रुपये प्रति बोतल से अधिक की कीमत देकर खरीदते हैं तो यह समझा जा सकता है कि अधिक दाम देकर हासिल की गई अवैध शराब का कारोबार कितना बड़ा होगा। इसी तरह 80-90 रुपये की क्वार्टर बोतल से लेकर 500 से 1500 रुपये की बोतल यदि प्रीमियम पर बिकती है तो ऐसी बिक्री का आकार कितना बड़ा होगा। शीरा और महुआ से चोरी-छिपे बनने वाली अवैध शराब के कारोबार को इसमें जोड़ दिया जाए तो बिहार में अवैध शराब के कारोबार का आकार मूर्त रूप से विशाल होगा। रुपये के संदर्भ में बिहार में अवैध शराब बाजार की विशालता तो छह महीने-साल भर में उजागर होगी लेकिन समझने के लिए इतना जानना आवश्यक है कि शराबबंदी वाले गुजरात में अवैध शराब की विशालता काफी है। जान जोखिम के अतिरिक्त।

शराबबंदी का पहला परिणाम स्वाभाविक रूप से यह होता है कि शराब ‘अंडर ग्राउंड’ हो जाती है। सरकार से पंजीकृत मधुशाला से बाहर निकल कर शराब अवैध रूप और जगह ले लेती है। यह अचरज की बात नहीं कि गुजरात में हर साल 100 करोड़ रुपये से अधिक की शराब जब्त की जाती है और उसी गुजरात में 30 हजार करोड़ रुपये का अवैध शराब का कारोबार होता है। बिहार के संबंध में शायद हमें आंकड़े कुछ महीनों बाद से मिलने लगेंगे। तो समानांतर अर्थव्यवस्था वाला अवैध शराब का व्यवसाय किसके संरक्षण में होता है और होगा? अपना पैर पसारने के लिए अवैध शराब की कारोबारी दुनिया किसे ‘लेवी’ देती है या देगी? लोगों की जान को खतरे में डालने वाली अवैध शराब की बिक्री से कौन फलता-फूलता है और कौन फले-फूलेगा ?

इन प्रश्नों के उत्तर सहज हैं। समानांतर अर्थव्यवस्था वाला अवैध शराब का कारोबार उन लोगों के बूते फले-फूलेगा जिनकी मान्यता ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली रही है। बिहार में अनेक शहाबुद्दीन पनपेंगे जिनका काम होगा अवैध शराब के धंधे को बढ़ावा देकर माल नोचना-खसोटना। असंगठित दिखने वाले और जान की कीमत पर मोटी रकम कमाने वाले अवैध शराब के व्यापारी इन्हीं शहाबुद्दीनों को ‘लेवी’ प्रसाद रूप में देंगे और अपने गोरखधंधे को बदस्तूर जारी रखेंगे। यह लेवी ‘दादा शहाबुद्दीन’ तक ही नहीं पहुंचेगी बल्कि उनसे ऊपर उन लोगों तक भी जाएगी जो समाज, सत्ता और शासन में रसूख रखते हैं। और इस तरह गोपालगंज कांड होते रहेंगे।

अमेरिका में 1920 के दशक में शराबबंदी लागू हुई। उस समय अमेरिका में भी शराबबंदी का महिमामंडन कुछ उसी तरह किया जा रहा था जिस तरह बिहार में पिछले अप्रैल से शराबबंदी का गुणगान किया जा रहा है। अमेरिका में 20 के दशक में इस शराबबंदी का नतीजा यह हुआ कि लाखों अमेरिकी अपराध की दुनिया की ओर आकर्षित हुए। समय जैसे-जैसे आगे बढ़ा अमेरिकी अदालतों और जेलों में अपराधियों की भीड़ बढ़ी। लोगों के मुकदमों की सुनवाई में साल-साल का समय लगने लगा। इतना ही नहीं, अमेरिका की शराबबंदी कानून लागू करने वाली एजेंसियों के अधिकारियों को भ्रष्ट बनाने के मकसद से अवैध शराब कारोबार करने वाले समूह ने उनकी हथेलियों को गरम करना शुरू किया और अधिकारी इस गरमाहट से कुछ आगे की ओर सोचने लगे और अनेक लोगों ने तो अवैध शराब की बिक्री करने का मलाईदार काम खुद अपने हाथों में ले लिया।

ऐसा नहीं कि बिहार शराबबंदी के इस अर्थशास्त्र से अछूता है या रहेगा। बिहार में शराबबंदी के शतरंज की जो बिसात बिछी है उसके अनेक किरदार समय के साथ उभर कर निकलेंगे और आने वाले समय में प्रकट होंगे। वैसे किरदार तो दिखेंगे ही जो पारंपरिक समझ के बूते शराबबंदी की पुरजोर वकालत कर रहे हैं बल्कि ऐसे किरदार भी सामने आएंगे जो शराबबंदी के अर्थशास्त्र को समझते हुए मलाईदार कमाई के लिए गुप-चुप तरीके से शराबबंदी का पक्ष ले रहे हैं। अवैध शराब के मलाईदार धंधे में सब बराबर होंगे। इस धंधे में न तो कोई अगड़ा होगा न कोई पिछड़ा और न ही कोई फिरकापरस्त और न कोई धर्म निरपेक्ष।

(लेखक प्रिंट और टी.वी. से जुड़े वरिष्ठ संपादक एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)

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