एक बड़े लेखक का आत्मसंघर्ष एक बड़ा लेखक ही समझ सकता है। कृष्णा सोबती की किताब मुक्तिबोध उनके इसी आत्मसंघर्ष और कवि-व्यक्तित्व की खूबियों को समझने की कोशिश है। कृष्णा सोबती मुक्तिबोध के काव्य की गहन वीथियों से गुजरती हुई कविताओं के आलोक में उस कवि मन को पढ़ने की चेष्टा करती हैं जिसकी कविताएं सीमातीत यथार्थ को भेदती हुई किसी भी प्रकार की कंडीशनिंग के विरुद्ध प्रति यथार्थ रचती हैं।
अभी-अभी मुक्तिबोध जन्मशती वर्ष गुजरा है। अभी उनके विचारों की अनुगूंज और कविताओं की तासीर तरोताजा है। उनके उठाए सवाल हमें उद्वेलित करते हैं। अपने समय का इतना तीखा बयान शायद ही किसी अन्य कवि में मिले। जीवन भर वे नई कविता और हिंदी समाज की जड़ीभूत सौंदर्य अभिरुचियों से लड़ते रहे, साम्राज्यवाद की विकराल समस्याओं से जूझते रहे। अपनी प्रजाति के इस अकेले और जिद्दी कवि ने अपनी कविताओं में घोर अंधेरे के बावजूद कहीं भी नरम रुख अख्तियार नहीं किया। अंधेरे में उन्हें जीवित और प्रासंगिक बनाए रखने के लिए पर्याप्त है।
उनकी कविताओं में व्याप्त अंधेरा विश्वस्तर पर व्याप्त अंधेरा है। उसकी वेदना उनके अंत:करण में व्याप्त है। वे जिस आवेग से विराट यथार्थ को कविता में सहेजते हैं वह वाचिक परंपरा में प्रभावी पाठ का नियामक है। मुक्तिबोध के तुकांत और अनुप्रास कृत्रिम और सजावटी नहीं लगते, वे बार-बार कविता के हक में व्यवहार में लाए जाने के बाद भी ऊब पैदा नहीं करते। कहीं भी किसी भी स्तर पर उनकी कविता इन अनुप्रासों से स्खलित और स्तरहीन नहीं होती।
कविता के विराट स्पंदन को चिंतन के बड़े फलक पर रखते हुए मुक्तिबोध ने हिंदी कविता में जो बड़ी लकीर खींची है, अभी तक किसी ने उसका उल्लंघन नहीं किया है। कृष्णा सोबती हम हशमत में कवि मित्रों पर मैत्रीपूर्ण वृत्तांतों के लिए जानी जाती हैं, पहली बार उन्होंने किसी कवि पर एकाग्र लेखन किया है। कृष्णा सोबती की किताब मुक्तिबोध के प्रति एक कथाकार चिंतक की पोएटिक जस्टिस का विरल उदाहरण है। यह आलोचना की रूढ़ शब्दावली से अलग कृतज्ञता, सहचिंतन और सहृदयता का समावेशी पाठ है जो मुक्तिबोध के रचे-सिरजे शब्दों के आलोक में सोबती के कवि-मन का उद्बोधन है। जैसी अनूठी कृष्णा जी की कथा-भाषा है, वैसा ही अनौपचारिक पाठ मुक्तिबोध पर लिखी इस किताब का है। जिस शिष्ट संवरन भरे गद्य के लिए वे जानी जाती हैं, उसकी भी एक कौंध यहां अंधेरे में मोमबत्ती की तरह जलती दिखाई देती है।
‘मेरा जग से द्रोह हुआ पर मैं अपने से ही विद्रोही’ कहने वाले की तमाम कविताओं को अपने कवि-विवेक आईने में देखती हुई कृष्णा सोबती मुक्तिबोध के पूरे संघर्ष को नई शब्दावली देती हैं। वे इन कविताओं के सहारे मूल तक पहुंचती हैं और उनके स्वत्व के सुगंध की जैसे पुनर्रचना करती हैं। वे मुक्तिबोध के विचार-प्रवाह, पक्षधरता, कविता और सौंदर्याभिरुचि की किसी भी जड़ीभूत कंडीशनिंग से मुठभेड़ करती उनकी कविदृष्टि का मुआयना करती हैं और पाती हैं कि “मुक्तिबोध की रचनात्मकता में मात्र विचारोत्तेजक भाषिक प्रसार-प्रचार ही नहीं, उनका बहुस्तरीय सामाजिक दृष्टिकोण हमारी मानसिक जड़ता को कुरेदता और संकीर्णता को तरेरता है।” वे कहती हैं, “उनके यहां तालाब, झरने, नद-नदियां, पठार-शिखर, चांद सूरज और सितारों के अंबार हैं। उनकी कविता इस लोक के, पृथ्वी के बड़े लैंडस्केप में से होकर संचारित होती है।” यह पाठ मुक्तिबोध के भीतर के गुह्य संसार की गुत्थियों को खोलता है तथा गवाही देता है कि ऐसे कवि अप्रासंगिक नहीं होते।