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बेटियों ने बढ़ाया मान

ओलंपिक में पीवी सिंधू, साक्षी, दीपा और ललिता के शानदार प्रदर्शन से देश की बेटियों में नया उत्साह
पी.वी. सिंधु का जोरदार स्वागत

‘जब हालात कठिन होते हैं तो हमारी लड़कियां ही लाज रखती हैं,’ क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग का यह संदेश रियो ओलंपिक में भारत की कहानी काफी कुछ कह देता है। सहवाग ने यह संदेश महिला पहलवान साक्षी मलिक के कांस्य पदक जीतने के बाद भेजा था। साक्षी ने ओलंपिक में तेरहवें दिन पदक जीतकर इस बात की आस बंधाई थी कि ओलंपिक में अभी भारत का खेल खत्म नहीं हुआ है। और, सचमुच हुआ भी ऐसा ही। अगले ही दिन बैडमिंटन में पीवी सिंधू ने एक कदम और आगे बढ़कर देश को रजत पदक दिला दिया। भारत ओलंपिक में इस बार यही दो पदक जीत पाया। स्पष्ट है कि ओलंपिक में इस बार देश का सम्मान उसकी बेटियों ने ही बचाया। दो अंकों में पदक जीतने के दावे या उम्मीदों के बीच हालत यह हो गई थी कि बारहवें दिन तक पदक तालिका में भारत का नाम तक नहीं था। ऐसे में कुश्ती में साक्षी मलिक और बैडमिंटन में पीवी सिंधू की जीत ने न सिर्फ रियो में उम्मीदों को पुन: जिंदा किया बल्कि एक सुनहरे भविष्य की आस भी जगा दी है। सिर्फ पीवी सिंधू और साक्षी मलिक ही नहीं, दीपा कर्मकार और ललिता बाबर का प्रदर्शन भी गर्व करने लायक रहा। दीपा कर्मकार और ललिता बाबर हालांकि पदक नहीं जीत पाईं लेकिन अपने प्रदर्शन से उन्होंने आने वाले दिनों में जिम्नास्टिक और स्टीपलचेज सरीखी उन प्रतियोगिताओं में भी भारत के पदक जीतने की संभावनाएं पैदा कर दी हैं, जिनके बारे में देश में ज्यादा लोग जानते तक नहीं हैं।

 

 

पीवी सिंधू : नए युग की शुरुआत

बैडमिंटन में पीवी सिंधू का फाइनल तक पहुंचना एक नए युग की शुरुआत है। रैंकिंग में दसवें नबंर पर खड़ी पीवी सिंधू ने अपने पहले ही ओलंपिक में अपना सफर एक चैंपियन खिलाड़ी की तरह शुरू किया और उसी अंदाज में समाप्त भी किया। बेशक स्वर्ण पदक के लिए हुए संघर्ष में वह पार नहीं पा सकी, लेकिन उसका प्रदर्शन किसी चैंपियन से कम नहीं रहा। फिटनेस से लेकर चपलता में इक्कीस रहने के बावजूद स्पेन की कैरोलिना मारिन को मुकाबला जीतने के लिए कितना जूझना पड़ा यह सारी दुनिया ने देखा। मारिन के लिए यह पहेली ही रहेगी कि पहले गेम में बढ़त तो उसने ली थी, फिर सिंधू कैसे जीती?

सिर्फ मारिन ही क्यों, सेमीफाइनल में जापान की नाओमी ओकुहारा और उससे पहले विश्व की दूसरे नंबर की खिलाड़ी चीन की वांग हियान को सिंधू ने अपने जोरदार प्रहारों और स्किल से हैरान किए रखा। दोनों ही खिलाड़ी जब तक कुछ समझ पातीं, मुकाबला खत्म हो चुका था। सेमीफाइनल में दूसरे गेम में ओकुहारा के खिलाफ ताबड़तोड़ 10 अंक बटोरकर सिंधू ने मुकाबला जिस अंदाज में निबटाया उससे पता चलता है कि अब वह दो-तीन साल पहले वाली सिंधू नहीं है। मजबूत डिफेंस, शक्तिशाली फोरहैंड और बैकहैंड सिंधू की ताकत है। हालांकि फाइनल में बाएं हाथ की प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ कुछ मौकों पर उनका बैकहैंड कुछ कमजोर दिखा, पर कभी हार न मानने का जज्बा उन्हें बड़ी खिलाड़ी की श्रेणी में रखता है। पुलेला गोपीचंद कहते भी हैं, ‘सिंधू ने ओलंपिक में शानदार खेल दिखाया है। पर उनमें इससे भी बेहतर प्रदर्शन की क्षमता है। आने वाले दिनों में जैसे-जैसे परिपम् होंगी, वह और बेहतर खिलाड़ी बनती जाएंगी।’

दरअसल, सिंधू की प्रतिभा पर शक तो किसी को भी नहीं रहा। पिछले कुछ अर्से में उन्होंने कई बड़ी खिलाड़ियों को हराया भी। पर निरंतरता और दबाव में बिखरने को लेकर जब-तब सवाल भी उठते रहे। किंतु ओलंपिक में कई मौकों पर दबाव के बीच अपनी प्रतिद्वंद्वी से मैच छीनकर सिंधू ने उठने वाले तमाम सवालों पर विराम लगा दिया है। जानकारों का मानना है कि ओलंपिक का प्रदर्शन तो झलक मात्र है। अगर वह यही जज्बा बरकरार रखती हैं तो आने वाले वर्षों में सिंधू दुनिया की नंबर वन खिलाड़ी बन सकती हैं। पुलेला गोपीचंद कहते हैं, ‘सिंधू अभी सिर्फ 21 वर्ष की हैं और उसके पास कम से कम 10 साल और हैं। उसे जब अपनी क्षमता का अहसास हो जाएगा वह दुनिया की बाकी खिलाड़ियों से आगे निकल जाएंगी।’ बहरहाल सिंधू की निगाह अब टोक्यो ओलंपिक पर है। रियो में जो कसर रह गई उसकी भरपाई वह 2020 में पूरी कर लेना चाहती हैं। पहले साइना नेहवाल और अब ओलंपिक मंच पर सिंधू के आगमन ने घोषणा कर दी है कि आने वाले वर्षों में दुनियाभर की खिलाड़ियों को भारतीय लड़कियों की चुनौती झेलनी होगी।

 

साक्षी का ‘इतिहास’

कुछ ऐसी ही उम्मीद महिला कुश्ती में भी लगाई जा सकती है। हरियाणा की 23 वर्ष की लड़की साक्षी मलिक ने भी अपने पहले ही ओलंपिक में इतिहास रच दिया। ओलंपिक के पहले तक देश में ज्यादातर लोगों के लिए महिला कुश्ती का मतलब फोगट बहनें रहा है। संयोग देखिए कि साक्षी मलिक को मौका भी गीता फोगट की जगह ही मिला। साक्षी ओलंपिक में पदक जीतने वाली पहली महिला पहलवान बनीं, यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है, लेकिन उसकी कामयाबी इससे कहीं ज्यादा बड़ी है। उसने उस धारणा को ध्वस्त किया है जो पुरुष को श्रेष्ठ और महिलाओं को कमतर मानती है। साक्षी ने जब पहलवानी करने की ठानी तो विरोध में कई स्वर उठे। लोगों ने साक्षी के माता-पिता को क्या नहीं कहा। पर, अब विरोध के स्वर गायब हो चुके हैं। साक्षी की जीत ने एक बड़ी दीवार गिराई है, तभी तो उसके पिता की पहली प्रतिक्रिया रही, ‘अब कोई नहीं कहेगा कि लड़कियां कुश्ती करती अच्छी नहीं लगतीं।’

महिला कुश्ती को बढ़ावा देने की शुरुआत पूर्व अंतर्राष्ट्रीय पहलवान स्वर्गीय मास्टर चंदगी राम ने अपनी बेटियों सोनिका और दीपिका कालीरमन को अखाड़े में उतारकर की थी। उन्हें भी बेहद विरोध झेलना पड़ा था। महिला कुश्ती के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले आज भी कम नहीं हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फोगट बहनों और अब ओलंपिक में साक्षी मलिक की कामयाबी से तस्वीर बदलनी निश्चित है। पूर्व पहलवान जगदीश कालीरमन कहते हैं, ‘देश में अभी महिला पहलवानों की संख्या बेहद कम है। हमारी पहलवानों को अभ्यास के लिए साथी ही नहीं मिलते लेकिन इसके बावजूद ओलंपिक और अंतररार्ष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में उनकी कामयाबी ही बताती है कि कुश्ती में कितनी संभावनाएं हैं। विनेश फोगट को चोट न लगती तो रियो में हम दो पदक जीत सकते थे। लंदन ओलंपिक में हमारी सिर्फ एक पहलवान ने भाग लिया था और रियो में तीन पहलवानों ने भाग लिया। साफ है कि माहौल तो बदल रहा है, लेकिन साक्षी के पदक से अब ज्यादा लड़कियां प्रेरित होंगी। टोक्यो ओलंपिक में हम निश्चय ही महिला कुश्ती में ज्यादा पदक की उम्मीद कर सकते हैं।’

 

दीपा कर्मकार : खतरों की खिलाड़ी

मामूली अंतर से पदक से चूकी दीपा कर्मकार की वजह से देश में जिम्नास्टिक के प्रति एक रुझान पैदा होने लगा है। कुछ महीने पहले जब यह खबर आई कि त्रिपुरा की 22 साल की एक लड़की दीपा कर्मकार ने जिम्नास्टिक में ओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया है तो लोग हैरत में जरूर पड़े थे लेकिन उन्हें गंभीरता से तब भी किसी ने नहीं लिया था। अखबारों और टीवी के जरिये जब लोगों को पता चला कि दीपा दुनिया की सबसे कठिन प्रोडुनोवा वॉल्ट (दुनिया में सिर्फ पांच खिलाड़ी ही इसे करती हैं। इसमें थोड़ी सी चूक का मतलब है अपनी जान को जोखिम में डालना।) में भाग लेती हैं तो लोगों की जिज्ञासा बढ़ी। और, जब वह फाइनल में पहुंच गईं तो देर रात तक टेलीविजन पर उन लोगों की आंखें भी गड़ी थीं जो जिम्नास्टिक का क ख ग भी नहीं जानते थे। हालांकि 0.15 अंक के मामूली अंतर से दीपा पदक से चूक गईं लेकिन लोगों की निगाह में यह भी बड़ी उपलब्धि रही। पीटी उषा के बाद संभवत: यह पहला मौका रहा कि लोगों ने दीपा का स्वागत विजेताओं की तरह किया। दीपा कहती हैं, ‘पदक जीतती तो बेहतर रहता लेकिन मैं खुश हूं। अब मेरी निगाह स्वर्ण पदक पर है क्योंकि मुझे अहसास हो चुका है कि कड़ी मेहनत से इसे हासिल किया जा सकता है।’

 

ललिता बाबर : बाधाओं के पार

और, सिर्फ दीपा ही क्यों ललिता बाबर का तीन हजार मीटर स्टीपलचेज के फाइनल में पहुंचना बताता है कि अगर प्रशिक्षण और मार्गदर्शन मिले तो आने वाले वर्षों में ट्रैक स्पर्धाओं में भी हमारा प्रदर्शन बेहतर हो सकता है। पीटी उषा के बाद ललिता बाबर किसी स्पर्धा के फाइनल में पहुंचने वाली पहली महिला एथलीट रहीं। ललिता सिर्फ फाइनल में ही नहीं पहुंची बल्कि उन्होंने अपने समय में सुधार भी किया।

शुरुआती स्तर पर मिले मदद

पदक तालिका में खिसकने के बावजूद इस बार एक अच्छी बात यह दिख रही है कि राज्य सरकारों ने सिर्फ पदक विजेताओं का ही नहीं, दीपा और ललिता सरीखी उन खिलाड़ियो का सम्मान भी किया है जिन्होंने जूझने का जज्बा दिखाया। इनामों की बरसात से यह तो साफ है कि पैसे का अभाव नहीं है, लेकिन शुरुआती स्तर पर खिलाड़ियों को उतनी मदद नहीं मिल पाती, जितनी दरकार होती है। ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करने वाले ज्यादातर खिलाड़ी छोटे शहरों या कस्बों से निकलते हैं। और वे भी गरीब परिवारों से। उनका संघर्ष बीच में दम न तोड़े उसके लिए उनकी शुरुआती स्तर पर प्रशिक्षण से लेकर आर्थिक मदद भी जरूरी है। ओलंपिक में निरंतर पदक वही देश जीतते हैं जिन्होंने खेलों का ढांचा और सिस्टम बनाया है। अच्छा खिलाड़ी बनने के लिए टैलेंट और मेहनत का होना जरूरी है लेकिन पदक सिर्फ टैलेंट और मेहनत से नहीं जीते जाते। ओलंपिक जैसे मंच पर किसी भी खिलाड़ी की कामयाबी के पीछे कोच, बढ़िया उपकरण और स्पोर्टिंग स्टाफ का भी महत्वपूर्ण योगदान रहता है। सिस्टम का कितना अच्छा नतीजा आता है, यह पीवी सिंधू के पदक ने बता दिया है।

पूर्व पहलवान जगदीश कालीरमन कहते हैं, ‘हमें खेलों का इन्फ्रास्ट्रक्चर बढ़िया बनाना होगा। उसे दूर-दराज के स्कूल-कॉलेजों तक पहुंचाना होगा। खेल संस्कृति विकसित करने के लिए पढ़ाई में खेलों के नंबर भी जोड़ने का प्रयोग किया जा सकता है। टोक्यो ओलंपिक में अगर पदकों की संख्या बढ़ानी है तो आज से ही जुटना होगा।’

 

 

गोपी सर, आप ग्रेट हैं

शैलेश चतुर्वेदी

श्रीकांत के उस मैच के बाद कुछ लम्हे भुलाए नहीं भूलते। लिन डैन के खिलाफ हार से पहले। श्रीकांत वह मैच यैन योर्गेंसन के खिलाफ जीते थे। जीतने के बाद वह कोच गोपीचंद की तरफ गए। गोपीचंद ने खुशी में दोनों मुट्ठियां भींची। उसके बाद श्रीकांत को गले लगाकर उन्होंने लगभग घूंसे मारने के अंदाज में उनकी पीठ थपथपाई। दिखाता है कि किस शिद्दत से वह जीत चाहते थे। वह अपने लिए किस तरह की चुनौती लेकर रियो पहुंचे थे।

नई चुनौतियां ढूंढना और उन्हें काबू करना गोपीचंद का शगल रहा है। लंदन ओलंपिक्स में उन्होंने सायना नेहवाल के पदक जीतने में अहम रोल अदा किया। अब रियो में सिंधू को चैंपियन की तरह खिलाने का श्रेय उन्हें जाता है। लंदन में सायना नेहवाल के कांस्य पदक के बाद उन्होंने कहा था कि आज मैं अगर मर भी जाऊं तो कोई गम नहीं। मेरे दिल पर बोझ नहीं रहेगा। उनके दिल पर हमेशा यह बोझ रहा है कि वह ओलंपिक मेडल नहीं जीत पाए। चोट ने उनके कॅरिअर को रोक दिया। अपने मेडल को वह अपने शिष्यों के जरिये देखते हैं। तब उन्होंने एक लक्ष्य पूरा किया था। उसके बाद एक नया लक्ष्य ढूंढ़ा। उसे रियो में सच कर दिखाया। 

लंदन में बैडमिंटन टीम होटल में रुकी थी। जीत के कुछ देर बाद सायना और गोपी होटल चले गए थे। वहां मौजूद मीडियाकर्मियों को यह बताकर कि हम थोड़ा चेंज करके आ जाते हैं, फिर इंटरव्यू कर लीजिए। वापस आए, तो सायना से पूछा गया कि आपके लिए पदक क्या मायने रखता है, उनका जवाब था, ‘ऐसा लगता है कि मुझसे ज्यादा गोपी सर के लिए मायने रखता है। हम होटल गए। गोपी सर कमरे में अपने बेड पर लगातार कूद रहे थे। उन्हें मैंने इतना खुश कभी नहीं देखा।’

सिंधू को वैसे भी वह अपनी बेटी जैसा मानते हैं। उनके बारे में बात करते हुए गोपी के चेहरे पर पिता की तरह भाव आते हैं। उनसे एक इंटरव्यू में पूछा गया था कि क्या आप सिंधू की गलतियों पर उन्हें सजा देते हैं। मुस्कान के साथ उनका जवाब था, ‘वह बच्ची है। बच्चों से गलतियां होती हैं। मेरा काम है उन्हें ठीक कराना।’ अगर वह अपने शिष्यों के साथ इस तरह का लगाव न रखते तो शायद कामयाब नहीं हो पाते। उनकी एकेडमी में दिन सुबह चार बजे शुरू होता है। गोपी साढ़े तीन से चार के बीच पहुंच जाते हैं। शाम तक रहते हैं। इस दौरान उनकी एकेडमी में कौन खिलाड़ी क्या कर रहा है, सब उन्हें पता होता है। वह वन मैन शो हैं। एकेडमी के तमाम कोचेज उनके साथ होते हैं। वह खिलाड़ियों के पास खड़े होते हैं। उनका खेल देखते हैं। गलतियां बताते हैं। उनकी पत्नी और पूर्व खिलाड़ी पीवीवी लक्ष्मी बताती हैं कि कई बार दो बजे उठकर वह प्लान कर रहे होते हैं कि फलां खिलाड़ी के गेम में क्या बदलाव करना बेहतर होगा।

इन सबके बीच गोपी का वह चेहरा भी सामने आता है, जहां गलती की गुंजाइश नहीं। जहां अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जाती। जहां तानाशाही चलती है। गोपी कहते हैं, ‘डेमोक्रेसी से चैंपियन पैदा नहीं होते। अगर खेलों में आपको चैंपियन चाहिए तो तानाशाह जैसा अनुशासन जरूरी है। खेल मजाक नहीं है।’ बेहद सौम्य और शालीन व्यवहार वाले गोपीचंद का यह अलग रूप है। लेकिन सच है कि उस रूप ने एक के बाद एक भारत को बैडमिंटन चैंपियन दिए हैं। दोनों ओलंपिक मेडलिस्ट उनकी एकेडमी से हैं। श्रीकांत क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे, वह उनकी एकेडमी से हैं। पिछले कुछ समय में जितने भारतीय खिलाड़ी दिखाई दिए हैं, उनमें से ज्यादातर हैदराबाद में गोपीचंद की एकेडमी से हैं। आपको शायद ही ऐसा कोई उदाहरण याद आए, जहां गोपीचंद जैसे बड़े खिलाड़ी ने खेल से रिटायर होने के बाद भी अपने खेल को इतना समय दिया हो। कहा जाता है कि गुरु को मुक्ति तब मिलती है, जब शिष्य उससे बड़ा हो जाए। गोपीचंद ने इसे अपनी जिंदगी में अपनाया है। ओलंपिक के लिहाज से देखा जाए तो आज उनके शिष्य बड़े मुकाम पर खड़े हैं। गोपी से भी ऊंचे मुकाम पर। फर्क बस यह है कि गोपी का कद भी उसके साथ बढ़ता जा रहा है। जीवन में जो सीखा, उसे संसार को वापस करना क्या होता है, इसे गोपी से समझा जा सकता है।

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