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संगीत का उपेक्षित सितारा

प्रतिभा के साथ किस्मत जरूरी है दान सिंह प्रतिभा के धनी थे
दान सिंह

फिल्मी दुनिया के अत्यंत प्रतिभाशाली किंतु उपेक्षित कंपोजर रहे दान सिंह। मूलत: राजस्थान के रहने वाले दान सिंह बहुत अच्छे गायक भी थे और खेमचंद प्रकाश के शागिर्द भी रहे थे। एक स्थानीय प्रतियोगिता में अपने गायक पिता के हार जाने से विचलित होकर मात्र आठ वर्ष की उम्र में उन्होंने उसी प्रतियोगिता में जिद करके एक गजल गाई थी और खूब वाह-वाही लूटी थी। आगे चलकर ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली से एक बार उन्होंने पंत की कविता गाई थी और पंत इतने प्रभावित हुए थे कि उनसे मिलने रेडियो स्टेशन पहुंच गए फिर अपनी गाड़ी से दान सिंह को घर छोड़ा था। मुंबई (उस वक्त बंबई) आने पर पार्टियों और महफिलों में अपनी कंपोजिशंस गाकर दान सिंह बहुत मशहूर हो गए और फिल्मी संगीतकार के रूप में उनके उज्ज्वल भविष्य की बातें की जाने लगीं। दुर्भाग्य कि उनको स्वतंत्र संगीतकार के रूप में फिल्म डिवीजन के भास्कर राव तथा निर्देशक शांताराम आठवले द्वारा फिल्म रेत की गंगा में दिया मौका काम न आ सका क्योंकि यह पर्दे पर न आ सकी। बाकी फिल्में भूल न जाना, बहादुरशाह जफर, मतलबी या तो पूरी न हो सकीं या रिलीज होने से रह गईं। इसके बावजूद भूल न जाना का उनका कंपोज किया गीत ‘पुकारो मुझे नाम लेकर पुकारो, मुझे तुमसे अपनी खबर मिल रही है’ बेहद मकबूल रहा। मुकेश के गाए और गुलजार के लिखे इस गीत में सब कुछ है, ‘बड़ी सरचढ़ी हैं ये जुल्फें तुम्हारी, ये जुल्फें मेरे बाजुओं में उतारो’ जैसी खूबसूरत शायरी, बांसुरी और सितार के साथ यमन कल्याण आधारित सुंदर रूमानी धुन और मुकेश की बेमिसाल गायकी। यह गीत आज भी मुकेश के लोकप्रिय गीतों में शुमार किया जाता है।

भूल न जाना के तेज लय में ‘गोरा मुखड़ा ये तूने कहां पाया है’ (मुकेश), दर्दीले सुरों के साथ ‘गमे दिल किससे कहूं कोई भी गमख्वार नहीं’ (मुकेश), ‘मेरे हमनशीं मेरे हमनवां मेरे पास आ’ (गीता), ‘बही है आज जवां खून की धारा’ (मन्ना डे) और ‘झुका ले बड़े-बड़े नैना हिरणों का धोखा होता है’ (आशा) जैसे गीत मधुर भी थे और संतुलित कंपोजिशन के उदाहरण भी। पर फिल्मों के पर्दे पर न आ पाने के कारण इनकी मकबूलियत सीमित ही रही। दान सिंह फिल्म जगत के उन कंपोजर्स में से हैं जिनमें माधुर्य और ऑर्केस्ट्रेशन का संतुलन हमेशा प्रभावी रहा है। मुकेश उनके पसंदीदा गायक थे और वह अपनी हर फिल्म में मुकेश का गीत लेते ही थे। दारा सिंह अभिनीत सरगम चित्र की तूफान (1969) के तेज रिद्म वाला गाना ‘हमने तो प्यार किया प्यार प्यार प्यार’ मुकेश और आशा के स्वरों में कुछ चर्चित भी रहा था पर असली लोकप्रियता मिली अतुल आर्ट्स,  बंबई की एस सुखदेव निर्देशित और शशि कपूर, शर्मिला अभिनीत माई लव (1970) के मुकेश के गाए दो गीतों को। गजल-शैली में आसावरी थाट के सुरों के साथ ‘जिक्र होता है जब कयामत का तेरे जलवा की बात होती है’ की रूमानी तहजीब को चाहने वाले आज भी हजारों हैं। वहीं गिटार के कॉर्ड के बेहतरीन प्रयोग के साथ ‘वो तेरे प्यार का गम एक बहाना था सनम, अपनी किस्मत ही कुछ ऐसी थी कि दिल टूट गया’ तो टूटे हुए पुरुष दिलों का चिरस्थायी गीत है ही। इस गाने की रेकॉर्डिंग के बाद मुकेश ने दान सिंह से कहा था कि हमारे जाने के वर्षों बाद तक भी इस गीत को लोग याद रखेंगे और यह बात सच साबित हुई।

यह कितना दुखदायी है कि इतने प्रतिभाशाली कंपोजर की और कोई फिल्म पर्दे पर नहीं आ पाई। प्रतिभा के साथ किस्मत का होना भी फिल्म-जगत में जरूरी है। तभी एक ऐसा संगीतकार जिसके पास किसी का वरदहस्त न था, फिल्मी दुनिया के षड़यंत्रों और तिकड़मों के सामने टिक न पाया। कई संगीतकारों ने तो पार्टियों में सुनाए गए दान सिंह के गीत अपने नाम से फिल्मों में इस्तेमाल कर लिए। पूरी तरह हताश और उपेक्षित दान सिंह जयपुर लौट गए जहां वह अपनी डॉक्टर पत्नी के साथ जीवन बिताने लगे। मुकेश के गाए तीन अमर गीतों के कंपोजर दान सिंह जयपुर के ऑल इंडिया रेडियो तथा मंच पर सक्रिय रहे।

वर्षों बाद दान सिंह की वापसी हुई जगमोहन मूंदड़ा की राजस्थान के भंवरी देवी प्रकरण पर बनाई फिल्म बवंडर (1999) के साथ। उपेक्षित संगीतकार दान सिंह ने लक्ष्य के अनुरूप इस फिल्म में राजस्थानी लोकसंगीत की छटा बिखेरी और आयो होली (सपना अवस्थी, रामशंकर), पनघट (ऋचा शर्मा), हर आयो (परमेश्वरी, साथी), घाघरियो (सपना अवस्थी), केसरिया (रीता गांगुली), जगया सरसी (दीप्ति नवल, नंदिता दास, साथी) और उत्प्रेरक गीत ‘अब तो जगना ही होगा बहनो सबको मिल के’ (महालक्ष्मी अय्यर, साथी) तथा ‘अब तो जाज्या सरसी बहना’ (सोनाली वाजपेयी, साथी) जैसे कई सुंदर गीत कंपोज किए। इनमें रावणहत्था, मोरचंग, सारंगी जैसे लोकवाद्यों का प्रयोग था (भावदीप जयपुर वाले और यूमन बोगम अरेंजर थे)। पर जैसा होता आया था, यह ऑफ-बीट फिल्म भी कई जगह प्रदर्शित नहीं हुई और दान सिंह की वापसी इस बार भी उपेक्षित रही। जून, 2011 में जयपुर में ही दान सिंह का निधन हुआ।

(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं।

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