सत्तारूढ़ महागठबंधन और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार में अपने जाति-जोड़ कवायद के नए दांव में उलझेंगे या राह निकाल लेंगे? यह सवाल अचानक इसलिए खास हो गया है क्योंकि नब्बे के दशक में दलित जाति के आइएएस अफसर जी. कृष्णैया की हत्या के सिलसिले में सहरसा जेल में उम्रकैद की सजा काट रहे आनंद मोहन की समय-पूर्व रिहाई के लिए जेल मैन्युअल में राज्य सरकार के बदलाव पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती ने दलित- विरोधी कवायद का आरोप लगा दिया है। नीतीश सरकार की कोशिश शायद यह हो सकती है कि आगामी संसदीय और विधानसभा चुनावों के मद्देनजर अपने समय के रॉबिनहुड छवि वाले फायरब्रांड नेता रहे आनंद मोहन के जरिये मोटे तौर पर राजपूत जाति या खासकर उनके असर वाले सहरसा तथा आसपास के इलाकों का समीकरण साधा जाए। लेकिन अचानक मायावती के ट्वीट से मामले में नया मोड़ आ गया है। भले मायावती का बिहार में कोई खास असर नहीं है, मगर दलित जातियों पर इसका असर देखना होगा। फिर, ऊंची जातियों को अपने पाले से दूसरी ओर जाते देखना भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को भी रास नहीं आ सकता, मगर पार्टी ने अभी तक खुलकर कुछ बोलने से परहेज किया है। इस वजह से लगभग दस दिनों बाद मायावती की प्रतिक्रिया की राजनीति पर कई तरह की गुफ्तगू राजनैतिक हलकों में जारी है।
उधर, न सिर्फ महागठबंधन को जीतनराम माझी जैसे दलित नेता का समर्थन हासिल हो गया है, बल्कि नए जेल मैन्युअल के तहत राज्य के कानून व विधि विभाग ने आनंद मोहन की रिहाई संबंधी अधिसूचना भी 24 अप्रैल को जारी कर दी। मतलब यह कि जल्दी ही रिहाई हो जाएगी। इसी के साथ हम के नेता जीतनराम माझी ने कहा, “आनंद मोहन अपराधी प्रवृति के इंसान नहीं हैं। उनसे गरीबों, पिछड़ाें, दलितों और पीड़ितों को कोई खतरा नहीं है। वे जेल से छूट जाते हैं तो दिक्कत नहीं है।”
हालांकि 23 अप्रैल को मायावती ने दो ट्वीट किए थे। “बिहार सरकार की आनंद मोहन की रिहाई के लिए जेल मैन्युअल में फेरबदल चर्चा में है और यह नीतीश कुमार की दलित-विरोधी मानसिकता का द्योतक है।” फिर दूसरे में कहा, “आनंद मोहन की संभावित रिहाई पर देश भर के दलित समुदाय में भारी रोष है। नीतीश कुमार सरकार का फैसला दलित-विरोधी है और यह संकेत है कि सरकार आपराधिक गतिविधियों को बढ़ावा दे रही है।” मायावती ने इस फैसले पर पुनर्विचार की अपील की है, लेकिन नीतीश सरकार ने अधिसूचना जारी करके अपनी मंशा जाहिर कर दी। अब इसके सियासी सूत्र कैसे और किस तरफ खुलते हैं और 2024 के संसदीय चुनावों में क्या आकार लेते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा।
यकीनन नीतीश या महागठबंधन अपने पाले से दलित और महादलित वोट बैंक को गंवाना नहीं चाहेंगे क्योंकि उनकी आबादी काफी बड़ी है। उसकी भरपाई राज्य में महज 5-7 फीसद के आसपास वाली राजपूत जाति के वोट से नहीं हो सकती, बशर्ते उन्हें एकमुश्त लाया जा सके, जो सिर्फ ‘आनंद दांव’ से दूर की कौड़ी है। इसी मायने में माझी का बयान अहम है। उधर, भाजपा की कोशिश दलित वोटों में पुख्ता सेंध लगाने की हो सकती है, यह सिर्फ जनशक्ति पार्टी के पशुपति नाथ पारस के धड़े से संभव नहीं है। भाजपा की दिक्कत यह हो सकती है कि वह ऊंची जातियों को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकती।
बेटी की शादी में पैरोल पर पहुंचे थे आनंद मोहन
सियासी गणित चाहे जिस करवट बैठे, आइए पहले घटनाक्रम पर नजर डाल लें। दरअसल, 5 दिसंबर को 1994 को गोपालगंज के डीएम, दलित समाज के आइएएस अफसर 35 वर्षीय जी. कृष्णैया हत्याकांड में दोषी सिद्घ आनंद कुमार राजपूत जाति के हैं। अगर मामला सामान्य हत्या का होता तो उम्रकैद की 14 साल की सजा के बाद उनकी रिहाई हो सकती थी। लेकिन ड्यूटी के दौरान सरकारी अधिकारी या लोकसेवक के मामले में राज्य का जेल मैन्युअल यह छूट नहीं देता था। सो, नीतीश सरकार ने 10 अप्रैल को बिहार कारा हस्तक 2012 के नियम 481(।)(क) में वर्णित वाक्यांश “या काम पर तैनात सरकारी सेवक की हत्या” को हटा दिया। 2012 के जेल मैन्युअल में 1984 की परिहार नीति में परिवर्तन किया गया था। प्रावधान किया गया था कि एक से अधिक हत्या, बलात्कार, डकैती, आतंकी साजिश रचने और सरकारी अफसर की हत्या के दोषी की ताउम्र रिहाई नहीं होगी।
इससे फिलहाल बेटे की शादी के सिलसिले में पेरोल पर चल रहे आनंद मोहन की रिहाई जल्दी ही संभव हो गई है। हाल में उनके बेटे की सगाई में नीतीश कुमार भी पहुंचे थे। आनंद मोहन के खिलाफ मामला इसलिए भी संगीन था कि कृष्णैया जब हाजीपुर में एक बैठक के सिलसिले में मुजफ्फरपुर से गुजर रहे थे तो खबड़ा गांव में उनकी कार पर उग्र भीड़ ने हमला कर दिया। उन्हें गाड़ी से निकालकर बेरहमी से पीटा गया और गोली मार दी गई। जिस भीड़ ने हत्या की, कथित तौर पर उसका नेतृत्व आनंद मोहन कर रहे थे। दरअसल एक दिन पहले ही चार दिसंबर को आनंद मोहन की पार्टी बिहार पीपुल्स पार्टी के दबंग नेता कौशलेंद्र शुक्ला उर्फ छोटन शुक्ला की आपसी रंजिश में हत्या कर दी गई थी। उसी के शव के साथ आनंद मोहन के नेतृत्व में उग्र भीड़ प्रदर्शन कर रही थी। कृष्णैया हत्या के मामले में कई और आरोपी थे मगर उन्हें राहत मिल गई। तीन अक्टूबर 2007 को निचली अदालत ने आनंद मोहन को फांसी की सजा सुनाई। 10 दिसंबर 2008 को पटना हाइकोर्ट ने निचली अदालत की फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा।
जेपी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन से राजनीति में प्रवेश करने वाले आनंद मोहन का जन्म 1954 में सीमांचल के सहरसा जिला के पंचगछिया गांव में हुआ था। उनके दादा रामबहादुर बड़े स्वतंत्रता सेनानी थे। वे इमरजेंसी के दौरान दो साल जेल में रहे। जेल से निकलने के बाद 1980 में समाजवादी क्रांति सेना का गठन किया। उसके बाद उनकी दबंगई शुरू हो गई। कोसी क्षेत्र में दबंग राजपूत के रूप में उनकी पहचान कायम हो गई। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का उन्हें विशेष आशीर्वाद प्राप्त था। उन्हीं की मदद से 1990 में जनता दल से महिषी विधानसभा से टिकट मिला और वे जीते। मंडल आंदोलन चला तो आनंद मोहन का मोह भी जनता दल से टूटा। उन्होंने 1993 में जनता दल से अलग होकर बिहार पीपुल्स पार्टी की नींव रखी। समता पार्टी से भी हाथ मिलाया। 1996 में जेल से ही शिवहर से समता पार्टी के टिकट पर लड़े और जीते। 1998 में फिर शिवहर से ही राष्ट्रीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर जीते। 1999 और 2004 के संसदीय चुनाव में वे हारे। अभी उनके पुत्र चेतन आनंद शिवहर से राजद के विधायक हैं। उनकी पत्नी लवली आनंद भी राजद के टिकट पर सहरसा से लड़ी थीं मगर हार गईं। कुछ समय पहले आनंद मोहन ने बेटी की भव्य शादी में नेताओं के जुटान से संदेश दिया कि अभी भी उनमें दम है।
एक दौर था जब आनंद मोहन और पप्पू यादव दोनों लालू प्रसाद के खास हुआ करते थे। नब्बे के दशक में पप्पू यादव से आनंद मोहन की लंबी अदावत चली। दोनों एक दूसरे के जानी दुश्मन बन गए। आनंद मोहन राजपूत तथा अगड़ों का नेतृत्व कर रहे थे तो पप्पू यादव की यादव और पिछड़ों में पैठ थी। आनंद मोहन और पप्पू यादव के समर्थकों के बीच कोसी के इलाके में फायरिंग होती रहती थी, लेकिन अब हालात बदल गए हैं।
गणित यह भी है कि लंबे समय से बिहार में राजपूतों का कोई बड़ा नेता नहीं दिख रहा। एक दौर में सत्येंद्र नारायण सिंह इस समाज के आइकन थे। अभी भी सत्येंद्र बाबू के पुत्र निखिल कुमार, आरके सिंह, प्रभुनाथ सिंह, जगदानंद सिंह, राजीव प्रताप रूढ़ी, सुनील कुमार सिंह, सुशील कुमार सिंह जैसे नाम हैं मगर ये अपने-अपने इलाके तक सीमित हैं। राजपूतों का बिहार में सात-आठ संसदीय सीटों पर सीधा प्रभाव है। आधा दर्जन दूसरी सीटों पर भी प्रभावित करने की क्षमता है। कोसी क्षेत्र में आनंद मोहन का अपना असर है।
इसके बावजूद आनंद मोहन का फायदा यूपीए को कितना मिलेगा, यह तो समय ही बताएगा। प्रदेश में दलितों के वोट भी 15 प्रतिशत से कम नहीं हैं और उस पर यूपीए का खासा प्रभाव है। इसलिए देखना यह है कि बिहार में सियासी ऊंट किस करवट बैठता है।
आनंद मोहन की रिहाई नीतीश कुमार की दलित-विरोधी मानसिकता का द्योतक है
मायावती, बसपा प्रमुख