खान-पान और रहन-सहन के साथ मणिपुर की राजनीति भी विविध है। वैसे तो भाजपा और कांग्रेस यहां की प्रमुख पार्टियां हैं, लेकिन हाल के दिनों में राजनीति में पहली बार कदम रखने वाले नेता इन दोनों के बजाय ‘किंगमेकर’ पार्टियों को तरजीह
दे रहे हैं। किंगमेकर यानी वे छोटी पार्टियां जिनके समर्थन से भाजपा या कांग्रेस की सरकार बन सकती है। इनके सामने किसी के भी साथ जाने का विकल्प खुला होगा।
2017 में भाजपा ने नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी), नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ), लोक जनशक्ति पार्टी और एक कांग्रेस विधायक के समर्थन से सरकार बनाई थी। राज्य में मुख्यमंत्री समेत 12 मंत्री हो सकते हैं और भाजपा को इनमें से आठ पद सहयोगियों को देने पड़े थे। एनपीपी के चारों विधायक मंत्री बन गए, जिनमें पी. जयकुमार उप मुख्यमंत्री बने। एनपीएफ के चार में से दो और लोक जनशक्ति पार्टी के एकमात्र विधायक को भी मंत्री पद मिला। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक कांग्रेस से टूटकर आने वाले विधायक भी मंत्री थे। यही कारण है कि नए लोग छोटी पार्टियों का रुख कर रहे हैं।
प्रदेश में गठबंधन सरकार होने के बावजूद चुनावी गठबंधन नहीं हुआ है। भाजपा की कोशिश 60 में से 40 सीटें जीतने की है, तो मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा की एनपीपी कम से कम 20 सीटें जीतना चाहती है। पार्टी के नेता जयकुमार के अनुसार “तब हमारे पास विकल्प होगा कि हम भाजपा के साथ जाएं या कांग्रेस के।” एनपीएफ भी ज्यादा सीटें जीतने की जुगत में है। ऐसे में इस बार भी ज्यादा संभावना त्रिशंकु विधानसभा की ही है।
2017 से पहले यहां 15 वर्षों तक कांग्रेस का शासन था। पिछले चुनाव में कांग्रेस 28 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन तत्कालीन राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला ने 21 सीटें जीतने वाली भाजपा को सरकार बनाने का मौका दिया। कांग्रेस के एक विधायक ने भाजपा के पक्ष में मत डाला था। तीन साल तक उन पर दलबदल कानून लागू नहीं हो सका, अंततः सुप्रीम कोर्ट ने उन पर रोक लगाई।
सरकार गठन में नाकाम रहने के बाद कांग्रेस लगातार कमजोर हुई है। उसके आठ विधायक दलबदल कर भाजपा में चले गए तो कई ने इस्तीफा दे दिया। अब उसके सिर्फ 14 विधायक रह गए हैं। इसमें भी एक विधायक जयकिशन को 18 जनवरी को पार्टी से निलंबित कर दिया गया। दूसरी तरफ भाजपा विधायकों की संख्या 26 हो गई है। कांग्रेस के पूर्व प्रदेश प्रमुख गोविंददास कोंथुजम पिछले साल भाजपा में जा चुके थे। चुनाव की घोषणा के बाद कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष डॉ. सी. एमो भी भाजपा में चले गए। 18 जनवरी को ही पार्टी ने रतन कुमार को कार्यकारी अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी।
मणिपुर में चुनाव ऐसे समय हो रहे हैं जब हाल ही हिंसा की कई घटनाएं हुई हैं। हाल की सबसे बड़ी घटना 13 नवंबर को हुई जब असम राइफल्स के काफिले पर हमले में कमांडिंग अफसर कर्नल विप्लब त्रिपाठी और उनकी पत्नी समेत सात लोगों की मौत हो गई। इस घटना ने यह भी दिखाया कि प्रदेश में ‘घाटी बनाम पहाड़’ की दूरी अभी खत्म नहीं हुई। यहां 60 सीटों में से 40 सीटें हिंदू माइती बहुल इलाके में और 20 पर्वतीय इलाकों में हैं, जहां जनजातीय आबादी है।
मणिपुर उत्तर-पूर्व का चौथा राज्य है जहां इनर लाइन परमिट लागू किया गया है। परमिट वाले इलाकों में दूसरे राज्यों से आने वालों को पहले अनुमति लेनी पड़ती है। स्थानी 1970 के दशक से इसकी मांग कर रहे थे, अतः चुनाव पर इसका असर संभव है।
भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ही मुख्य चेहरा हैं। पार्टी प्रमुख जे.पी. नड्डा और प्रदेश प्रभारी भूपेंद्र यादव राज्य का कई दौरा कर चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 4 जनवरी को 13 परियोजनाओं का उद्घाटन किया था और नौ अन्य की आधारशिला रखी थी। लेकिन बीरेन सिंह पर असंतुष्टों की आवाज दबाने के आरोप भी लगते रहे हैं। बीरेन पुराने कांग्रेसी हैं जो पूर्व मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के करीबी थे। कांग्रेस का मुख्य चेहरा 77 साल के इबोबी ही हैं। वे अफ्सपा का मुद्दा उठा रहे हैं और इसे लेकर भाजपा पर हमले कर रहे हैं। लेकिन नेताओं का बार-बार टूटना पार्टी पर भारी पड़ सकता है। भाजपा भी पूरी तरह आश्वस्त नहीं। बीरेन सरकार 2020 में गिरते-गिरते बची थी। अनेक भाजपा विधायकों को हार का डर सता रहा है, इसलिए पार्टी में रस्साकशी चल रही है। देखना है कि 27 फरवरी और 3 मार्च को मतदाता किसकी डोर काटते हैं।