लड़ाई की चीख-पुकार गूंजी, तो कुछ लोग भारत की सैन्य कार्रवाई और पाकिस्तान की फौजी कार्रवाई के दुष्प्रचार और फर्जी खबर फैलाने में जुट गए, कुछ कूटनीतिक उपायों से तनाव घटाने और हल तलाशने को कहने लगे। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं, जो कमाई और मुनाफे की खातिर दोनों देशों के बीच तनाव के दोहन में मशगूल हो गए। पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय सशस्त्र बलों के ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू होने के 24 घंटे के भीतर रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने ऑपरेशन सिंदूर नाम पर ‘मनोरंजन मकसद’ के लिए ट्रेडमार्क की अर्जी डाल दी। इस विवादास्पद हरकत पर देश भर में भारी हंगामा मचने पर कंपनी ने बयान जारी किया कि अर्जी ‘अनजाने में बिना इजाजत के किसी जूनियर ने डाल दी थी’ और उसे वापस ले लिया गया है। खबर यह भी है कि इंडियन मोशन पिक्चर्स प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन, इंडियन फिल्म ऐंड टेलीविजन प्रोड्यूसर्स काउंसिल और वेस्टर्न इंडिया फिल्म प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन के पास आदित्य धर, मधुर भंडारकर, विवेक अग्निहोत्री, सुनील शेट्टी और उद्योग जगत की कई अन्य हस्तियों की ऑपरेशन सिंदूर के साथ-साथ पहलगाम हमले पर फिल्म के शीर्षक पंजीकृत करने के लिए 30 से अधिक अर्जियां पहुंच चुकी हैं।
युद्ध से फिल्म उद्योग की कमाई की यह फितरत नई नहीं है। 2019 में पुलवामा आतंकी हमले और जवाब में बालाकोट हवाई हमलों के बाद भी बॉलीवुड फिल्म निर्माताओं के बीच उस घटना पर आधारित फिल्म बनाने के लिए शीर्षक के लिए आइएमपीपीए में पंजीकरण की ऐसी ही होड़ मची थी। 1947 में बंटवारे के बाद से ही भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास युद्ध के घावों से भरा हुआ है। दो पड़ोसियों के बीच यह दुश्मनी अक्सर हिंदी फिल्मों के लिए कामयाब नाटकीय कथानक बन जाती है। हालांकि शुरुआती हिंदी सिनेमा में युद्ध अक्सर सामाजिक कथानकों की पृष्ठभूमि भर तैयार करता था। चेतन आनंद की हकीकत (1964) जैसे कुछेक अपवादों के अलावा युद्ध जॉनर की फिल्में आम नहीं थीं। भारी लागत और महंगे लोकेशन शूट की वजह से युद्ध बॉक्स ऑफिस पर जोखिम भरा था, जिसे अधिकांश फिल्म निर्माता उदारीकरण के दौर से पहले उठाने को तैयार नहीं थे।
लेकिन 1997 में जेपी दत्ता की बॉर्डर ने हिंदी फिल्म उद्योग में एक नए दौर की शुरुआत की और युद्ध की फिल्मों को व्यावसायिक रूप से व्यावहारिक माना जाने लगा। इन फिल्मों में दुश्मन बस एक ही था, पाकिस्तान। जिसके बारे में लोगों को अलग से बताने की कोई जरूरत नहीं थी। उसके बाद के दौर में फिल्म निर्माताओं ने दोनों देशों की दुश्मनी को भरपूर कमाई का साधन बनाया, खासकर 1999 में करगिल संघर्ष और उसके बाद। हालांकि, कुछ फिल्मों के बाद, करगिल को लेकर परदे पर उन्माद घटा और 2004 में राजनैतिक फिजा बदली तो, यह शैली फिर पीछे चली गई। 2000 के दशक के उत्तरार्ध में मैं हूं ना (2004) और वीर-जारा (2004) जैसी लोकप्रिय फिल्में आईं, जो नियंत्रण रेखा पर युद्ध विराम के बाद पाकिस्तान के साथ दोस्ताना समीकरण दिखाने की कोशिश करती हैं।
बॉलीवुड में युद्ध जॉनर की फिल्मों का दौर 2014 में देश में दक्षिणपंथी सरकार के सत्ता में आने के बाद से धूम-धड़ाके के साथ लौटा। नए सिरे से बॉलीवुड फिल्मों में सामूहिक आक्रोश का रुख अमूमन मुसलमानों और खासकर पाकिस्तान की ओर होने लगा। अलबत्ता, पिछले दशक में कुछ फिल्मों ने कट्टरपंथी उन्माद और युद्ध की मानवीय त्रासदी को उजागर करने की कोशिश की है, लेकिन मौजूदा शासन की विचारधारा बॉलीवुड और युद्ध जॉनर की फिल्मों में लगातार परिलक्षित होती दिख रही है। जंग की इस नई फिजा में पिछले तीन दशकों में कुछ प्रमुख फिल्मों पर नजर डालते हैं जिसमें भारत-पाक युद्धों को दर्शाया गया है:
बॉर्डर (1997)
यह फिल्म एक ड्रीम प्रोजेक्ट थी, जिसे निर्देशक जेपी दत्ता ने अपने भाई स्क्वाड्रन लीडर दीपक दत्ता के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप पेश किया था। इसके लिए उन्होंने कई साल इंतजार किया। फिल्म 1971 के थार रेगिस्तान में लोंगेवाला की लड़ाई पर आधारित थी, जिसमें भारतीय वायु सेना के विमानों की सक्रिय मदद के साथ 120 भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तान के 2000 से अधिक फौजियों से लोहा लिया था, जिनके पास लगभग 40 टैंक थे। बॉर्डर 1997 की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म थी और उसे प्रोडक्शन के लिए वाहवाही भी मिली। हालांकि, लोंगेवाला की लड़ाई के कुछ जीवित नायकों ने फिल्म में अपने किरदारों के मार दिए जाने से नाखुशी जाहिर की थी, जिससे पता चलता है कि फिल्म का उद्देश्य युद्ध को अतिरंजित नाटकीयता के साथ पेश करना ज्यादा था, ऐतिहासिक घटनाओं को विश्वसनीय नजरिए से देखना कम।
एलओसी: करगिल (2003)
बॉर्डर की सफलता के बाद, जेपी दत्ता ने युद्ध जॉनर में आगे बढ़ने का फैसला किया और करगिल की लड़ाई उनका अगला विषय थी। बॉर्डर की तरह ही, एलओसी: करगिल 1999 में भारत और पाकिस्तान के बीच करगिल संघर्ष पर आधारित मल्टी-स्टारर युद्ध फिल्म थी। इस फिल्म में दत्ता ने सब कुछ वैसा ही दिखाने के लिए असली लोकेशन, असली हथियारों और जिंदा गोला-बारूद के साथ इसे फिल्माया। हालांकि, लंबे, उबाऊ कथानक, अनावश्यक सबप्लॉट की वजह से फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप रही। नाकामी की दूसरी वजह यह भी हो सकती है कि करगिल की लड़ाई लोगों के दिमाग में ताजा थी, जिसकी टीवी पर लाइव नजारे लोग देख चुके थे।
लक्ष्य (2004)
करगिल की लड़ाई की पृष्ठभूमि पर ही फरहान अख्तर के निर्देशन में बनी दूसरी फिल्म लक्ष्य दत्ता ब्रांड की युद्ध फिल्मों से बिल्कुल अलग थी। संतुलित नाटकीयता और संयमित जज्बे वाली लक्ष्य करगिल युद्ध के दौरान एक सेना अधिकारी करण शेरगिल (ह्रितिक रोशन के शानदार अभिनय से रोशन) के आंतरिक भावनाओं के उथल-पुथल की कहानी है। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर तो कामयाब नहीं हो पाई, लेकिन उसे आलोचकों से प्रशंसा मिली और कुछ साल बाद क्लासिक का दर्जा हासिल कर लिया।
क्या दिल्ली क्या लाहौर (2014)
अभिनेता विजय राज के निर्देशन में बनी पहली फिल्म क्या दिल्ली क्या लाहौर युद्ध जॉनर की फिल्म थी, जिसे उसके निर्माताओं ने भारत की पहली “युद्ध विरोधी फिल्म” के रूप में प्रचारित किया था। बंटवारे के बाद 1948 की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म सीमा पार से आए दो सैनिकों के बारे में है, जो अजीबोगरीब स्थिति में फंस जाते हैं। उन्हें उनके वरिष्ठ अधिकारियों ने कुछ फाइलें वापस लाने के लिए नो मैन्स लैंड क्षेत्र में सेना की चौकी पर भेजा जाता है। दोनों सैनिकों के बीच होने वाली बातचीत से पता चलता है कि बंटवारे की कितनी बड़ी कीमत दोनों देशों के आम लोगों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।
द गाजी अटैक (2017)
संकल्प रेड्डी के निर्देशन में द गाजी अटैक फिल्म तेलुगु की गाजी का हिंदी संस्करण है, जिसमें लोकप्रिय तेलुगु अभिनेता राणा दग्गुबाती ने अभिनय किया था। भारत की पहली “अंडरवाटर वॉर फिल्म” के रूप में प्रचारित द गाजी अटैक 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान भारत के लिए विमानों के वाहक एकमात्र पोत आइएनएस विक्रांत पर पाकिस्तान के हमले को रोकने के लिए बंगाल की खाड़ी में भारतीय और पाकिस्तानी पनडुब्बियों के बीच काल्पनिक टकराव पर आधारित है। फिल्म के तेलुगु संस्करण को ‘तेलुगु में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म’ के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। उसकी कमाई औसत रही और कई आलोचकों ने निराशाजनक पटकथा के लिए आलोचना की।
उड़ी: द सर्जिकल स्ट्राइक (2019)
आदित्य धर के निर्देशन की पहली फिल्म उड़ी जम्मू-कश्मीर के उड़ी में सेना के ठिकाने पर 2016 में हुए आतंकी हमले के बाद भारत की जवाबी कार्रवाई पर आधारित थी। तथ्य और कल्पना के मेलजोल और तकनीकी कौशल के साथ इस फिल्म ने 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा के चुनाव प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और कई लोगों ने इसके रिलीज के समय पर सवाल उठाए। इसकी कमाई खूब हुई थी और उसके लोकप्रिय संवाद “हाउज द जोश?” ने विक्की कौशल को घर-घर में पहुंचा दिया।
राज़ी (2018)
सच्ची घटनाओं से प्रेरित हरिंदर एस. सिक्का के 2008 के जासूसी उपन्यास कॉलिंग सहमत पर आधारित मेघना गुलजार की राजी युद्ध और जासूसी जॉनर की लाजवाब फिल्मों में एक है, जो अंध राष्ट्रवादी उन्माद से दूर है। भारत और पाकिस्तान के बीच 1971 के युद्ध से पहले के दौर में आधारित यह फिल्म एक जासूस की संवेदनशील कहानी है। आलिया भट्ट के बेहतरीन अभिनय के जरिए में एक युवा कश्मीरी मुस्लिम महिला और उसके परिवार पर युद्ध के असर को दर्शाया गया है। यह फिल्म इस मामले में भी अलग है कि अमूमन और हिंदी सिनेमा में युद्ध की कहानी में किसी महिला का किरदार नहीं देखने को मिलता है। राजी आलोचकों और व्यावसायिक कसौटी दोनों में खरी उतरी। यह खासकर महिला प्रधान फिल्म के रूप में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में से एक है।
गुंजन सक्सेना: द करगिल गर्ल (2020)
राजी के अलावा, गुंजन सक्सेना हाल के दिनों में युद्ध की पृष्ठभूमि वाली इकलौती दूसरी फिल्म है, जो राष्ट्रवाद के प्रति संतुलित नजरिया बनाए रखती है। यह फिल्म भारतीय वायु सेना की अधिकारी गुंजन सक्सेना की जीवनी है, जो करगिल की लड़ाई के समय एक युवा फ्लाइंग ऑफिसर थीं और युद्ध के दौरान घायलों को सुरक्षित निकालने में मदद करती थीं। निर्देशक शरण शर्मा ने उसे भी शिद्दत से दिखाने की कोशिश की है कि सक्सेना को प्रशिक्षण के दौरान साथी पुरुष अधिकारियों से स्त्री भेदभाव और छींटाकशी की जाती है, जिसकी वजह से फिल्म को काफी नुक्ताचीनी झेलनी पड़ी। कोविड महामारी के कारण सिनेमाघरों में रिलीज न हो पाने के बावजूद, फिल्म को करगिल युद्ध के दौरान एक महिला अधिकारी की कहानी को बिना राष्ट्रवादी उन्माद के पेश करने के लिए सराहना भी मिली।
शेरशाह (2021)
तमिल निर्देशक विष्णुवर्धन की पहली हिंदी फिल्म शेरशाह में सिद्धार्थ मल्होत्रा ने करगिल युद्ध में शहीद हुए कैप्टन विक्रम बत्रा की भूमिका निभाई थी। यह फिल्म बत्रा के जीवन और उस दौरान कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा कब्जा किए क्षेत्रों को फिर से हासिल करने में उनके महत्वपूर्ण योगदान की कहानी है। गुंजन सक्सेना की तरह, शेरशाह भी कोविड महामारी के कारण सिनेमाघरों में रिलीज नहीं हो पाई और उसे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज करना पड़ा। हालांकि अमेजन प्राइम ने दावा किया कि यह प्लेटफॉर्म पर सबसे ज्यादा देखी जाने वाली फिल्म बन गई है, लेकिन कुछ आलोचकों को इसकी पटकथा पसंद नहीं आई।