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7 अगस्त 2023 · AUG 07 , 2023

पुस्तक समीक्षा: एक नायाब लेखिका कई नायाब औरतें

किताब याद दिलाती है कि सत्ता लेखकों को नहीं बचाती, बचाती उनकी किताबें हैं जिन्हें उनके दोस्त बचाते हैं
स्मृतियां बताती हैं कि नायाब स्त्रियां भी पैदा नहीं होतीं, बनाई जाती हैं

वरिष्ठ हिंदी लेखिका मृदुला गर्ग की करीब 440 पृष्ठों की आत्मकथात्मक कृति 'वे नायाब औरतें' अपने समृद्ध अनुभवों और गद्य के वैभव के लिहाज से बेहद पठनीय किताब है। किताब में उनकी दादी, मां और बहनों से लेकर पोती तक- उन सबकी सहेलियों और उनके बच्चों तक, देश-विदेश की, अलग-अलग लेखिकाओं से लेकर घरेलू सहायिकाओं तक, शहरों कस्बों से लेकर देशों-महादेशों तक के अनुभव शामिल हैं और इन सबसे गुजरते हुए नायाब औरतों की एक नायाब दुनिया खुलती जाती है। इसे पढ़ते हुए फिर से खयाल आता है कि जिसे हम पुरुषों की मिल्कियत मान लेते हैं, वह औरतों की भी बनाई और बसाई हुई दुनिया है। हमारी आंखों पर जैसे किसी अभ्यास की पट्टी बंधी है जिसकी वजह से वे औरतें हमें अदृश्य जान पड़ती हैं। मृदुला गर्ग बस वह पट्टी हमारी आंख से हटा देती हैं।

हालांकि मृदुला गर्ग यह काम भी अलग से करने की परवाह नहीं करतीं। वे बस अपनी स्मृतियां लिखती जाती हैं। ये स्मृतियां बताती हैं कि नायाब स्त्रियां भी पैदा नहीं होतीं, बनाई जाती हैं। ऐसी कई स्त्रियों को हम इस किताब में बनता देखते हैं- रसोईघर से लेकर दफ्तर तक, स्कूल-कॉलेज से लेकर सड़क और मैदान तक, पहाड़ों से लेकर समुद्रों तक। ये स्त्रियां कई तरह की हैं- शांत, नरम, संवेदनशील, साहसी, मददगार, रोमानी, यथार्थवादी, कुछ संभली हुई, कुछ खिसकी हुई, कुछ कभी इस खाने कभी उस खाने में लगती हुई, कुछ घरेलू, कुछ घुमक्कड़, कुछ हताश, कुछ अवसादग्रस्त, कुछ संघर्ष करती हुई, कुछ उसूलों में पैबस्त, कुछ प्रचलित मान्यताओं को ठेंगा दिखाती हुई, और कुछ रूप बदल-बदल कर सामने आती हुई।

करीब एक सदी के भरेपूरे जीवन के बीच से इतनी सारी स्त्रियों की कहानी लिख देना आसान काम नहीं है। इसके लिए बहुत गहरी स्मृति और उतनी ही तीक्ष्ण संवेदना चाहिए। इसके साथ-साथ भाषा और शिल्प का वह कौशल चाहिए जो लगातार भटकती, अलग-अलग सिरों पर चल पड़ती इन तमाम अधूरी या पूरी कहानियों को पठनीय बनाए रख सके। यहां मृदुला गर्ग का 'मास्टरस्ट्रोक' दिखाई पड़ता है। वे अपने पाठक को अपनी यात्रा पर बिल्कुल सहजता से ले चलती हैं- न भगाते हुए, न ऊंघने का अवसर देते हुए, बल्कि एक ऐसी साझा जमीन तैयार करते हुए जिस पर उनकी लिखी कहानियां हमें अपनी मालूम होने लगती हैं।

आत्मकथाओं के साथ कई शर्ते जोड़ी जाती हैं-  प्रामाणिकता की, विश्वसनीयता की, वस्तुनिष्ठता की, और आत्मश्लाघा से दूर रहने की। लेखिका ने इतनी विश्वसनीयता के साथ ये सारी कहानियां लिखी हैं कि उनकी प्रामाणिकता पर शक करने की कोई वजह नहीं बनती। दूसरी बात यह कि वे बहुत दूर तक अपने कहन में वस्तुनिष्ठ दिखाई पड़ती हैं। परिवार के बारे में लिखते हुए जिस तरह उन्होंने मां-पिता और अपनी अलग-अलग चार (कुल पांच) बहनों के बारे में बताया है, जैसे अपने भाई की कथा लिखी है, वह सब दिल को भी छूती है, दिमाग को भी मथती है और स्मृति में भी बनी रहती है। अपने युवा बेटे और बहू की मौत की बात भी वे जिस निर्मम दूरी के साथ कह पाती हैं, उससे पता चलता है कि वह कितनी समर्थ लेखक हैं। 

साफगोई मृदुला गर्ग की एक और शक्ति है- दूसरों को नाराज कर सकने का साहस इसमें शामिल है। इसमें कुछ खरी टिप्पणियां ऐसी भी हैं जिनसे कुछ लोग दुखी हों। खुशवंत सिंह की उन्होंने बेशक भरपूर खिंचाई की है। अगर खुशवंत जिंदा होते और यह किताब पढ़ पाते तो शायद अपना बेहतर मूल्यांकन कर पाते। इसके अलावा कृष्णा सोबती के साथ खट्टे-मीठे संबंधों का समीकरण, बड़ी बहन और लेखक मंजुल भगत के साथ गहरे राग से सिंचे रिश्ते की स्मृति, नवीनता देवसेना, प्रतिभा राय, इंदिरा गोस्वामी, सुनीता जैन, सुधा अरोड़ा और गगन गिल जैसी अलग-अलग लेखिकाओं के साथ रहने और यात्रा करने के अनुभव- यह सब दिलचस्प भी हैं और जीवन के अलग-अलग रंगों की हमारी समझ भी बेहतर करते हैं।

मृदुला गर्ग ने कई मुल्कों की सैर की, कई मित्र बनाए जिनके जिक्र ने किताब को समृद्ध किया है। किताब का आखिरी हिस्सा बहुत मार्मिक भी है और राजनीतिक तौर पर बहुत महत्वपूर्ण भी। 1988 में युगोस्लाविया के डुब्रोवनिक में नादिया तेसिच नाम की एक जिंदादिल अमेरिकी लेखिका उनकी दोस्त बनती है। 2007 में मृदुला गर्ग अपने अमेरिका दौरे पर उन्हें फिर तलाश कर रही हैं। वह जिस हाल में मिलती है वह चौंकाने वाला है और जिस वजह से उनका यह हाल हुआ है वह डराने वाला है। इसी के साथ यह कहानी खुलती है कि अमेरिका ने कैसे युगोस्लाविया को टुकड़ों-टुकड़ों में बांटने के लिए वहां लगातार बम बरसाए और पूरी लड़ाई को एक अलग जातीय रंग दे दिया। जिन लोगों ने यह सच लिखना चाहा, उन्हें रोका ही नहीं गया, दंडित भी किया गया। तेसिच भी ऐसी ही लेखिका है, लेकिन वह एक नायाब औरत भी है जिसकी वजह से टूटी नहीं। बहरहाल, खत्म होते-होते यह किताब याद दिलाती है कि सत्ता लेखकों को नहीं बचाती, बचाती उनकी किताबें हैं जिन्हें उनके दोस्त बचाते हैं।

वे नायाब औरतें

मृदुला गर्ग

प्रकाशक | वाणी प्रकाशन

पृष्ठः 440 | कीमतः 495

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