भारत के नागरिक जानते हैं कि मौलिक अधिकार कई तरह के होते हैं। एक तरह के मौलिक अधिकार वे होते हैं, जो संविधान निर्माताओं ने संविधान में लिख रखे हैं। उनके बारे में जानकारी कुछ कम होती है और होती भी है तो सामने वाले को भी होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। मसलन, संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी लिखी है, लेकिन आप इस आजादी का प्रयोग करें और सामने वाला आपकी खोपड़ी पर डंडा मार दे तो आप क्या करेंगे? लिखा तो यह भी हुआ है कि आप इसकी उचित जगह पर शिकायत दर्ज करा सकते हैं लेकिन अगर शिकायत दर्ज करने का अधिकार भी उसी शख्स के पास हो तो आप क्या करेंगे? वह तो आपके सिर पर एक बार और डंडा जमा सकता है, फिर आप इस योग्य भी नहीं रहेंगे कि अभिव्यक्ति की आजादी या शिकायत करने की आजादी का इस्तेमाल कर सकें।
संविधान में लिखे मौलिक अधिकारों से ज्यादा ताकतवर मौलिक वो अधिकार होते हैं जो इतने मौलिक होते हैं कि वे उन्हीं लोगों के पास होते हैं जो उन्हें जानते हैं या इस्तेमाल करने का सामर्थ्य रखते हैं। समाज में असली ताकत इन्हीं अधिकारों की होती है। जो सबके पास हों उनमें मौलिकता क्या हुई?
लेव तालस्तॉय के उपन्यास ‘अन्ना कारेनिना’ का पहला वाक्य है, “सारे सुखी परिवार एक जैसे सुखी होते हैं लेकिन हर दुखी परिवार अपने-अपने तरीके से दुखी होता है।” इसी तरह हम भी कह सकते हैं कि संवैधानिक मौलिक अधिकार सुखी परिवारों के सुख की तरह होते हैं। वे एक जैसे होते हैं और उतने ही दुर्लभ होते हैं जितने सुखी परिवार और उनका सुख। सचमुच के मौलिक अधिकार मौलिक मूर्खता की तरह होते हैं। वे बहुतायत में पाए जाते हैं और वे मौलिक मूर्खता की तरह ही विविध होते हैं और उनमें बढ़ोतरी होती रहती है। जैसे उत्तर प्रदेश पुलिस सीएए, एनआरसी के खिलाफ आंदोलन करने वाली महिलाओं के कंबल चुरा ले गई। हम जानते थे कि यूपी पुलिस तरह-तरह की मूर्खता और क्रूरता कर सकती है लेकिन सर्दी की रात में कंबल चुराने की प्रतिभा का दर्शन हमें पहली बार हुआ। उसके बाद पुलिस ने कहा कि उसे कंबल चुराने का अधिकार है। इस अधिकार से ज्यादा मौलिक किस अधिकार की आप कल्पना कर सकते हैं? कल हो सकता है पुलिस लोगों के कपड़े चुराए और तब हमें पता चले कि पुलिस को यह मौलिक अधिकार भी प्राप्त है।
इसलिए असली मुद्दा उन मौलिक अधिकारों का नहीं है जो संविधान में लिखे हैं, बल्कि उन अधिकारों का है जो अमल में लाए जाते हैं और कहीं नहीं लिखे गए हैं। चूंकि वे मौलिक हैं इसलिए उनमें कुछ न कुछ नया जुड़ता रहता है। पिछले कुछ सालों में तो यह मौलिकता इतनी बढ़ी है कि संविधान के अधिकार नकली मालूम देने लगे हैं। जैसे हत्या करना पहले अपराध था और जीवित रहने का अधिकार मौलिक अधिकार। पर, अब अगर लोग किसी को पीट-पीटकर मार डालें और साथ में कुछ खास नारे लगाएं, तो वह उन लोगों का मौलिक अधिकार है और मर जाना मृतक का मौलिक कर्तव्य। अगर अलिखित मौलिक अधिकार यूं ही बढ़ते रहे तो हमारे संवैधानिक कंबल किसी सर्दी की रात छिन जाएं और हम हरिशंकर परसाई के शब्दों में “ठिठुरते हुए गणतंत्र” के संदेहास्पद नागरिक बने पाए जाएं!
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साहित्य के बहाने राजनीति
कोझीकोड का समुद्र तट जैसे चार दिन के लिए संवाद का सबसे मुखर केंद्र बन गया था। केरल में आयोजित विशाल साहित्योत्सव में लेखक, प्रकाशकों से ज्यादा भीड़ राजनेता खींच रहे थे। दुनिया भर के 500 से ज्यादा लेखकों, प्रकाशकों ने इसमें शिरकत की। उद्घाटन सत्र में पिनराई विजयन ने कहा, “एक ऐसा समूह है जो युवाओं को अति-राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता के गैर-प्रगतिशील विचारों से आकर्षित करने की कोशिश कर रहा है। यदि उनके इरादे सफल होते हैं तो देश बिखर जाएगा।” विजयन ने जिस तरफ इशारा किया वहां मौजूद प्रतिभागियों ने उस इशारे को बखूबी पकड़ा और अपने बयानों से इसे निभाया भी। साहित्योत्सव के पांचवें वर्ष में बातचीत पर्यावरण संरक्षण से लेकर सीएए और एनआरसी तक आ पहुंची। मैगसायसाय पुरस्कार विजेता संगीतकार टीएम कृष्णा ने कहा कि अब “जन गण मन” लोगों को दबाने के काम आने लगा है। प्रसिद्ध मलयालम लेखक, पॉल जकारिया ने भी केंद्र पर ही निशाना साधा। इन सब के बीच रामचंद्र गुहा मीडिया में छाए रहे, क्योंकि केरल की धरती से उन्होंने केरलवासियों को ही यह कह डाला कि उन्होंने राहुल गांधी को चुन कर बड़ी गलती की है। उनका कहना था कि पांचवीं पीढ़ी के राहुल “मेहनती” मोदी के सामने नहीं टिक पाएंगे। राजनेताओं में जयराम रमेश, कपिल सिब्बल, शशि थरूर, माकपा पोलित ब्यूरो सदस्य एमए बेबी, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की नेता कणिमोई भी साहित्योत्सव का हिस्सा बनीं। सिब्बल ने केरल सरकार की उस टिप्पणी का भी जवाब दिया, जिसमें उसने अपने राज्य में सीएए लागू करने से इनकार कर दिया था। सिब्बल ने कहा, “आप इसका विरोध कर सकते हैं, आप विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर सकते हैं और केंद्र सरकार से इसे वापस लेने के लिए कह सकते हैं। लेकिन यह नहीं कह सकते कि आप इसे लागू नहीं करेंगे।”
आउटलुक डेस्क