मुझे पिछले कुछ दिनों से सर सिरील रेडक्लिफ याद आ रहे हैं। श्रीकांत वर्मा की एक कविता की पंक्ति है, ‘मैं कहना कुछ चाहता हूं, कह कुछ और जाता हूं।’ वैसे ही मैं कुछ भी लिखना चाहता हूं तो सर रेडक्लिफ के बारे में लिखने लगता हूं। कुछ पढ़ना चाहता हूं तो सर रेडक्लिफ के बारे में पढ़ने लगता हूं। मुझे लगता नहीं था जीवन के इस दौर में सर सिरील रेडक्लिफ मेरे लिए इतने महत्वपूर्ण हो जाएंगे।
सर सिरील रेडक्लिफ ने भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन की लकीर खींची थी। यानी हमारे देश के कथित देशभक्त, कथित घुसपैठियों को जिन सीमाओं के पार भेजने की बात करते हैं, वे सीमाएं सर सिरील रेडक्लिफ ने ही खींची थीं। गिरिराज सिंह को शायद यह मालूम नहीं होगा कि वे लोगों को बार-बार जिस पाकिस्तान भेजने की बात करते हैं, उसका नक्शा सर रेडक्लिफ ने ही बनाया था। सर सिरील रेडक्लिफ को यह अंदाजा भी नहीं होगा कि तिहत्तर साल बाद उनकी खींची गई लाइनें हजारों लोगों के सामने अस्तित्व का संकट पैदा करेंगी- “मैं कौन हूं?”, “मेरा देश कौन-सा है?”, “मेरे जीवन का उद्देश्य क्या भाजपा के लिए वोटों का जुगाड़ करना है?”, “क्या मैं देशभक्त हूं?”, “अगर हूं तो क्यों हूं और नहीं हूं तो क्यों नहीं हूं?”, “क्या मैं साबित कर सकता हूं कि मैं भारतीय हूं?”, “क्या मेरा आधार कार्ड असली है या भ्रम है?”, “मेरे आधार कार्ड का आधार क्या है?”, “मेरे वोटर कार्ड का मतलब क्या है?”, “मेरे वोट का मतलब क्या है?”, “मेरे पासपोर्ट का अर्थ क्या है?”, “क्या यह इसलिए बनाया गया है ताकि गिरिराज सिंह मुझे पाकिस्तान भेज सकें?”, “क्या पाकिस्तान गिरिराज सिंह या अनंत हेगड़े के कहने से मुझे अपने यहां आने देगा?”, “क्या पाकिस्तान मेरे पासपोर्ट के आधार पर मुझे भारतीय मान लेगा?”, “जब भारत सरकार कह रही है कि पासपोर्ट नागरिकता का प्रमाण नहीं है, तो क्या दूसरे देशों की सरकारें मेरे पासपोर्ट के आधार पर मुझे भारतीय मान लेंगी?”, “अगर मैं भारतीय नहीं हूं तो क्या हूं?”, “और अगर नहीं हूं तो मैं क्या करूं?” फिर मुझे श्रीकांत वर्मा याद आते हैं, ‘यह मेरा प्रश्न नहीं उत्तर है, मैं क्या कर सकता हूं।’
मुझे नहीं लगता कि दुनिया के इतिहास में कभी किसी देश में तमाम नागरिकों की नागरिकता पर एक साथ ऐसा प्रश्नचिह्न लगाया गया हो, और तमाम नागरिकों के सामने यह अवास्तविक प्रश्न खड़ा हुआ हो कि उनकी पहचान क्या है। मुश्किल यह है कि इसके पीछे नागरिकों का अज्ञान नहीं, बाकी सब लोगों का अज्ञान है।
सर सिरील रेडक्लिफ को फिर से याद करने की वजह यह है कि उन्हें भारत पाकिस्तान की सीमाएं तय करने का काम इसलिए दिया गया था कि वे कभी भारत नहीं आए थे। भारत के बारे में उन्हें कुछ खास पता नहीं था और अंग्रेज सरकार को लगता था कि इस वजह से वह बिना पक्षपात तेजी से अपना काम निपटा सकेंगे। इसी वजह से उन्हें जो सहायक दिए गए थे उन्हें भी इस काम का ज्यादा ज्ञान नहीं था, क्योंकि सरकार सोचती थी कि ज्यादा जानकार लोग ज्यादा तफसील में जाएंगे और इससे देर हो जाएगी। यही कारोबार अब तक चल रहा है। इस तरह बने नक्शों से फिलहाल सबकी नागरिकता तय हो रही है। अब भी सरकार ने बिना किसी तैयारी के नागरिकता तय करने के विस्फोटक इरादे बना लिए हैं। फर्क यह है कि सिरील रेडक्लिफ खुद जानते थे कि जो काम उन्होंने किया है वह ठीक से नहीं किया और वे इससे दुखी भी रहे। हमारे हुक्मरान यह नहीं जानते।
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रेणु: हिंदी के हीरामन
ग्रामीण जीवन के चितेरे फणीश्वरनाथ रेणु का यह जन्मशताब्दी वर्ष है। शायद ही कोई हिंदी साहित्य प्रेमी हो, जिसने मैला आंचल उपन्यास न पढ़ा हो। इस कालजयी कृति को आलोचकों ने गोदान के बाद दूसरी प्रभावशाली कृति माना था। उनके जन्मदिन 4 मार्च की पूर्व संध्या से ही इस वर्ष के कार्यक्रम का सिलसिला शुरू हो चुका है। पूरे भारत में रेणु से संबंधित कार्यक्रम होंगे, जिससे नई पीढ़ी तीसरी कसम वाले हीरामन की असली कहानी, ‘मारे गए गुलफाम’ को भी जान सके। रेणु जन्मशती साल की शुरुआत, राजेश बादल द्वारा बनाई गई फिल्म क्रांतिदूत से हुई। इस साल किशन कालजयी, रेणु पर आधारित संवेद का विशेषांक निकालेंगे।
रेणु का जीवन किसी उपन्यास से कम नहीं था। वह अपने पात्रों की तरह ही आकर्षक और साहसी थे। बिहार के पूर्णिया यानी उनकी जन्मस्थली में उदार और बेफिक्र रेणु के पात्रों से संवाद कार्यक्रम उनके व्यक्तित्व पर भी प्रकाश डालेगा। कोलकाता की संस्था ‘लिटरेरिया’ भी अपने अगले कार्यक्रम में ‘पंचलैट’ जैसी गुदगुदाने वाली कहानी लिखने वाले रेणु पर तीन दिन का विशेष आयोजन करने जा रही है। वहीं, दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान ने उनके जन्मदिन के अवसर पर ‘रेणु: स्मृतियों के झरोखे से’ नाम से एक आयोजन किया। इस आयोजन में रेणु की प्रकाशित, अप्रकाशित, संकलित सभी रचनाओं को एक जगह समेटने के प्रयास के लिए भारत यायावर को रेणु रत्न सम्मान दिया गया और इसी कार्यक्रम में उनके द्वारा लिखित पुस्तक, माटी के गौरव का लोकार्पण भी हुआ। रेणु ने हिंदी जगत को मैला आंचल के अलावा, ‘ठेस’, ‘लालपान की बेगम’, ‘रसप्रिया’ जैसी अमर कहानियां भी दीं। उन्होंने रिपोर्ताज लेखन की एक नई विधा विकसित की। जन्मशती वर्ष में रेणु की रचानाओं से फिर रूबरू होने का एक मौका पाठकों को मिलने वाला है।
आउटलुक डेस्क