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24 जून 2024 · JUN 24 , 2024

जनादेश ’24 /आवरण कथा: जनादेश सब पर भारी

आम चुनाव 2024 ने अठारहवीं लोकसभा की तस्वीर बदली, हर राज्य ने अपने मुद्दे तय किए और सभी राजनैतिक पार्टियों को अलग संदेश दिए, किसी एक को बहुमत के बदले गठबंधन से संतुलन साधने पर जोर
अपनी-अपनी व्याख्याः नरेंद्र मोदी के साथ चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार और एनडीए के नेता

अठारहवीं लोकसभा का जनादेश वाकई ऐतिहासिक है। नरेंद्र मोदी के शब्दों में तो “पहली बार साठ साल में तीसरी बार सरकार कायम रहने का इतिहास बना”, लेकिन वे भूल गए कि आजाद भारत में तीसरी बार किसी पार्टी को नहीं, गठबंधन को बहुमत मिला और उनके विशाल बहुमत पाने के लक्ष्य धराशायी हो गए। बड़ा इतिहास इस मायने में बना कि नब्बे के दशक के बाद गठबंधन सरकारों का दौर एक दशक के अंतराल के बाद फिर लौट आया। 2014 और 2019 की तरह किसी एक को बहुमत हासिल नहीं हुआ। इससे भी बड़ा इतिहास यह है कि यह जनादेश खारिज करने का ज्यादा है। पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की तरह तीसरी बार अपनी पार्टी को बहुमत दिलाने का मोदी का सपना भी खारिज हो गया। सबसे बढ़कर देश के बड़े हिस्से ने संविधान बदलने की आशंकाओं को खारिज किया।

 उन नीतियों को खारिज किया, जो बेरोजगारी, महंगाई, गैर-बराबरी, सार्वजनिक उपक्रमों को निजी क्षेत्र में बदलने, श्रम कानूनों, कृषि के कॉपोऱ्रेटीकरण को विकास का मानक मानती हैं। खारिज करने यह सिलसिला अलग-अलग हिस्सों में दूसरी राजनैतिक पार्टियों के हिस्से भी आया, लेकिन उस किस्से से पहले यह देखना महत्वपूर्ण है कि नीतियों के मामले में इस जनादेश का खारिज अभियान कितना व्यापक है। जैसे, महामारी के आपदाकाल में आए तीन केंद्रीय कृषि कानून किसान आंदोलन की वजह से खारिज हुए थे, उसी दौर में आई सेना में अग्निवीर योजना को मौजूदा जनादेश खारिज करता दिखता है। गौरतलब है कि विपक्ष प्रचार के दौरान अग्निवीर योजना को कूड़ेदान के हवाले करने का वादा कर रहा था तो पंजाब में आखिरी चुनावी सभा में प्रधानमंत्री ने कहा था कि हम सेना को आधुनिक बनाना चाहते हैं और विरोध करने वालों की सात पीढ़ियों की करतूतें खोल कर रख दूंगा।

गठबंधन की मौजूदा स्थिति

कम से कम पंजाब, हरियाणा, राजस्‍थान और उत्तर प्रदेश में यह और सरकारी भर्ती-परीक्षाओं में प्रश्न-पत्र लीक का मुद्दा नौजवानों के गुस्से का कारण बना हुआ लगता है। इसी तरह पुरानी पेंशन नीति पर भी लोगों की मुहर लगती और नई पेंशन नीति की पैरोकारी खारिज होती दिखी। दरअसल गौर करें तो नब्बे दशक में शुरू हुईं उदारीकरण और बाजारवादी नीतियों को उसके बाद हुए हर चुनाव में खारिज करने का ही जनादेश मिला है। 1996 में पी.वी. नरसिंह राव की सरकार आखिरी वर्षों में आर्थिक सुधार का मानवीय चेहरा पेश करने के बावजूद हार गई। फिर 2004 में इंडिया शाइनिंग का दावा करने वाली एनडीए की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार हार गई। 2009 में आर्थिक सुधारों के उलट मनरेगा और किसान कर्ज माफी ही यूपीए को जिता पाई। इसी तरह 2014 तथा 2019 में भी मुद्दे आम आदमी को आर्थिक राहत देने या राष्ट्रवाद के थे। 2024 में निजीकरण, विकसित भारत और पचास खरब की अर्थव्यवस्‍था का सपना खारिज होता दिखा है। यानी जनादेश उन नीतियों को खारिज करता दिखता है जो बेरोजगारी, महंगाई, गैर-बराबरी, सार्वजनिक उपक्रमों को निजी क्षेत्र में बदलने, श्रम कानूनों में बदलाव, कृषि के कॉर्पोरेटीकरण को विकास का मानक मानती हैं।

इसका असर राजनैतिक पार्टियों के दूसरे मुद्दों के मद में भी दिखा। अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा असर नहीं दिखा पाया और भाजपा हार गई। इसी तरह बनारस को आधुनिक विकास का रूप देने की पहल भी खारिज हुई और नरेंद्र मोदी की जीत का अंतर घटकर महज 1.5 लाख के करीब आ गया। राजनैतिक जोड़तोड़ से सियासत हथियाने की कोशिश खारिज करने की मिसाल महाराष्ट्र बना, जहां भाजपा इकाई अंक में सिमट गई। दूसरी ओर भारी विकास और कल्याण योजनाओं का दम भरने वाली ओडिशा में नवीन पटनायक और आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी की सरकारें भी खारिज कर दी गईं। कांग्रेस भी तेलंगाना और कर्नाटक में अपने कल्याणकारी कार्यक्रमों के बल पर केंद्र की सियासत के लिए लोगों को पर्याप्त भरोसा नहीं दिला पाई। यह जरूर है कि इन दोनों राज्यों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ा मगर वह इतना नहीं हुआ कि पार्टी को सीटों पर एकतरफा जीत दिला देता। तेलंगाना में कांग्रेस को कुल 17 सीटों में से आठ से ही संतोष करना पड़ा और आठ सीटें पाकर भाजपा ने अपनी 2019 की संख्या को दोगुना कर लिया। कर्नाटक में वह दहाई का अंक नहीं छू पाई और कुल 28 में से 9 सीटों से संतोष करना पड़ा। बाकी 18 सीटें भाजपा और दो जनता दल-सेक्युलर को मिल गईं। यही नहीं, हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस की सुखविंदर सिंह सुक्‍खू सरकार छह विधानसभा सीटों पर उपचुनाव में चार सीटें जीतकर अपनी स्थिति मजबूत करने में तो कामयाब हुई, मगर केंद्रीय सियासत के लिए लोगों को अपनी नीतियों से भरोसा नहीं दिला सकी और चारों संसदीय सीटें हार गई। हरियाणा में भी तमाम किसान और नौजवान नाराजगी के बावजूद वह 10 में से आधी सीटें ही जीत पाई।

उधर, बिहार में भी राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व में महागठबंधन या इंडिया गठबंधन ने अभियान तो बहुत आक्रामक चलाया, मगर उसे ज्यादा लाभ नहीं मिल पाया। यह जरूर हुआ कि उसका वोट प्रतिशत कुछ बढ़ गया। कुल मिलाकर राजद को चार सीटों से ही संतोष करना पड़ा। यह जरूर हुआ कि भाकपा-माले को दो सीटें मिल गईं। लाभ कांग्रेस को भी हुआ और वह तीन सीटें जीत गई और अगर पप्पू यादव की सीट को जोड़ लें, तो उसे चार सीटें मिल गईं। उसे उम्मीद थी कि अतिपिछड़ाें और महादलितों का वोट नीतीश कुमार से छिटक कर उसके पाले में आ जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। यहां तक कि पिछड़े मुसलमानों का वोट भी शायद जदयू को मिला। इससे भाजपा को भी लाभ हुआ और उसकी सीटें जदयू के बराबर 12 आ गईं। यानी बहुत कुछ जो दिख रहा था, लोगों ने वैसा भरोसा नहीं दिखाया और तेजस्वी यादव का रोजगार का मुद्दा बड़े पैमाने पर असर नहीं दिखा पाया।

इसके अतिरिक्त बंगाल में ममता बनर्जी अपना प्रदर्शन बेहतर कर पाईं तो यह शायद उनके व्यापक संगठन की जीत ज्यादा और कुछ बंगाली गौरव जगाने की भावना का असर दिखता है। गौरव की यह भावना महाराष्ट्र में भी दिखती है, जहां उद्घव ठाकरे का कद काफी बड़ा होकर उभरा है। इसी तरह पूर्वोत्तर में मणिपुर में जातीय हिंसा पर काबू न पाने या अनदेखी करने का भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा। उसे मणिपुर की दोनों सीटों के अलावा मेघालय, नगालैंड और असम में झटका झेलना पड़ा। उत्तर में उसे किसान आंदोलन का खमियाजा पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्‍थान में झेलना पड़ा। राजस्थान में लगातार तीसरी बार क्लीन स्वीप करने का भाजपा का सपना अधूरा रह गया और करीब एक दशक बाद कांग्रेस ने राज्य में जोरदार वापसी की। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में राजस्थान उन राज्यों में था जहां मोदी मैजिक जमकर चला था। भाजपा समर्थित एनडीए दोनों चुनावों में 25 की 25 सीटें जीतने में सफल रहा था। इस बार भाजपा की झोली में सिर्फ 14 सीटें आई हैं और ‘इंडिया’ गठबंधन 11 सीटें जीतने में कामयाब रहा है, जिसमें कांग्रेस को आठ सीटें मिली हैं। राजस्थान की सभी 25 सीटों पर इस बार भाजपा का वोट शेयर भी गिरा। राज्य में भाजपा को 49.26 फीसदी और कांग्रेस को 37.91 फीसदी वोट मिले। 2019 के मुकाबले भाजपा का वोट शेयर करीब 9.16 फीसदी गिरा है जबकि कांग्रेस का वोट शेयर करीब 8.22 फीसदी बढ़ा। कहते हैं, किसान आंदोलन और वसुंधरा राजे की अवहेलना से राजस्‍थान में उसे नुकसान उठाना पड़ा।

एका से चुनौतीः नतीजों के बाद दिल्ली में इंडिया गठबंधन के नेता

एका से चुनौतीः नतीजों के बाद दिल्‍ली में इंडिया गठबंधन के नेता

दरअसल राजस्‍थान में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को अपनी मनमानियों का भी खमियाजा उठाना पड़ा। पहली बार के विधायक भजनलाल शर्मा को मुख्यमंत्री बनाना और भाजपा के पहले और इकलौते जाट प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया को हटाना महंगा साबित हुआ। इंडिया गठबंधन ने चुरू, सीकर, झुंझुनू और नागौर में जीत हासिल की, जहां जाट उम्मीदवार मैदान में थे। कुल मिलाकर, इंडिया गठबंधन के 11 सांसदों में से पांच जाट हैं।

यही नहीं, कांग्रेस ने पूर्वी राजस्थान में भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया है। गुज्जर-मीणा गठबंधन ने कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम किया है। कांग्रेस के हरीश चंद्र मीणा ने टोंक-सवाई माधोपुर से, मुरारी लाल मीणा ने दौसा से, भजन लाल जाटव ने करौली-धौलपुर से और संजना जाटव ने भरतपुर से जीत हासिल की। जालोर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने वाले अशोक गहलोत के बेटे वैभव गहलोत को करारी हार का सामना करना पड़ा है। गहलोत ने अपने बेटे के लिए खूब प्रचार किया था लेकिन वह जीत नहीं दिला सके।

इसी तरह‌ आम आदमी पार्टी दिल्ली, हरियाणा, गुजरात वगैरह में अपने ऊपर केंद्र की राजनीति के लिए भरोसा नहीं जगा सकी। गुजरात में बनासकांठा से इकलौती सीट जीतने वाली कांग्रेस की गनीबेन ठाकोर कांग्रेस नेतृत्व के बदले अपनी लोकप्रियता और सामाजिक कार्यों की बदौलत भाजपा की महाकाय चुनावी मशीनरी को हरा पाईं।

 बहरहाल, इस जनादेश के कई संदेश हैं। एक मायने में केंद्रीकरण की प्रवृत्तियां खारिज हुई हैं और लोगों का समर्थन तय मानकर नहीं चला जा सकता है। इसी मायने में यह चुनाव ऐतिहासिक है। राजनैतिक दलों को इससे सबक लेना चाहिए और लोगों के मुद्दों को तरजीह देनी चाहिए। अब देखना यह है कि इस जनादेश से देश की सियासत में क्या फर्क आता है।

 

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