सलीम-जावेद की सफलता के किस्से अब मिथक हैं। यह बात सचमुच किसी फसाने जैसी लगती है कि बतौर लेखक क्या कोई इतनी शोहरत, दौलत और विश्वसनीयता हासिल कर सकता है जितनी सलीम-जावेद ने की।
इस पटकथा लेखक जोड़ी से पहले फिल्म इंडस्ट्री में लेखकों की हालत किसी मुंशी के बराबर थी, जिसे आज भी लेखकों के अनुबंध में ‘वर्क फॉर हायर’ कहते हैं। बंबई आए महान कथाकार प्रेमचंद से लेकर भगवती चरण वर्मा, फणीश्वर नाथ रेणु या गोपाल सिंह नेपाली जैसे लेखक पटकथा लिखने की कोशिश कर लौट चुके थे। फिल्मों के पोस्टर-बैनर पर लेखक का नाम नहीं होता था। किसी भी लेखक का कहीं कोई प्रचार-प्रसार नहीं। पगार थी हजार-दो हजार रुपये। सलीम-जावेद ने सब कुछ उलट कर रख दिया।
इस जोड़ी ने लगातार नौ सुपरहिट फिल्में दीं। जब उनकी चौथी फिल्म जंजीर हिट हुई, तब उन्होंने फिल्म के पोस्टर पर अपना नाम लिखवाना चाहा। इंडस्ट्री अचरज में आ गई, उन्हें बताया गया कि ऐसा नहीं होता है। जब बंबई में जंजीर रिलीज हुई तो सलीम-जावेद ने तिकड़म लगाकर पोस्टरों पर ‘रिटन बाय सलीम-जावेद’ लिखवा दिया। उसके बाद से ही पोस्टरों पर लेखक का नाम लिखा जाने लगा।
दीवार के प्रदर्शन से पहले सलीम-जावेद ने अपने खर्चे से बंबई में कई बड़े-बड़े बैनर लगवाए और लिखवाया, ‘सलीम-जावेद’ की दीवार। 1987 में त्रिशूल आई, जुहू पर जो पोस्टर लगाया गया उस पर न तो निर्देशक का नाम था और न ही हीरो या हीरोइन का। पोस्टर पर सिर्फ लिखा हुआ था ‘ए फिल्म बाय सलीम-जावेद।’ आज अगर कोई लेखक क्रेडिट को लेकर ऐसा करे, तो प्रोड्यूसर जाने कितने केस ठोक दें, हालांकि क्रेडिट, मेहनताने और रॉयल्टी की लड़ाई आज भी जारी है।
इस समय हॉलीवुड के करीब 11 हजार से ज्यादा लेखक अपने अधिकारों और सुरक्षा के लिए स्ट्रीमर और स्टूडियो के खिलाफ न्यूयॉर्क और लॉस एंजिलिस जैसे शहरों में प्रदर्शन कर रहे हैं। आलम यह है कि अब रात में टीवी स्क्रीन ब्लैक आउट हो रही है क्योंकि उनके पास नया कुछ दिखाने को नहीं बचा है। भारत में हाल में जावेद अख्तर की अगुवाई में ‘द इंडियन परफॉर्मिंग राइट्स सोसाइटी’ (आइपीआरएस) रॉयल्टी से जुड़ा एक बड़ा केस जीत गई है। उन्होंने हक की लड़ाई के लिए जमीन जरूर तैयार कर दी है।
सलीम-जावेद की पटकथाओं में कुछ तो मैजिकल था। इस दमदार जोड़ी में जबरदस्त बौद्धिकता थी। वे देश-दुनिया और समाज की गहरी समझ रखते थे। लेखन के क्राफ्ट में तो उनका कोई सानी नहीं था। उनकी लिखी फिल्में अपनी तरह का अलग सिनेमा था। सलीम-जावेद का आइडिया बाकी लेखकों से अलग था। उन्होंने अपनी स्क्रिप्ट में नाच-गाने से ज्यादा किरदार बनाने को तवज्जो दी। एक ही समय के दो बड़े स्टार अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर के काम को देखें तो अमिताभ की ज्यादातर चर्चित फिल्में किरदार प्रधान रहीं, जबकि ऋषि कपूर चॉकलेटी हीरो की इमेज में बंधे रहे।
सलीम-जावेद ने क्लासिक कथानकों का सहारा लेकर चली आ रही लेखन शैली और ढांचे को तोड़ा। यह जोड़ी कोलैबरेशन की भी मिसाल है। वह शायद विचारों के तालमेल का जमाना था। एक लेखक जो विचारक था और सुधारक भी। साहित्य से उनका वास्ता रहा, भारत की विभिन्न बोलियों और भाषाओं से रहा और अपने समय से रहा। उनमें अकड़ थी, तेवर भी था और धौंस भी। उनकी सफलता उनके क्राफ्ट से तो निकली ही, व्यक्तित्व से भी निकली। दो अलग-अलग मस्तिष्क, दो अलग-अलग धड़ों पर रखे हुए हैं, पर एक कहानी लिख रहे हैं और उस पर फिल्म बनकर हिट हो रही है। लाखों लोग उसे पसंद कर रहे हैं। लेखक नई हैसियत, इज्जत और पैसा बना रहा है। यह मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन था। स्क्रिप्ट राइटिंग में स्टार का दर्जा उन्हें इंडस्ट्री ने नहीं दिया, उन्होंने इंडस्ट्री से उसे छीना।
व्यक्ति और विचार की ऐसी जुगलबंदी अब नहीं दिखती। वह सब कुछ जो उनमें था, नए लेखकों में नहीं दिखता। दिखता है तो सलीम-जावेद से पहले का सिनेमा और सलीम-जावेद के बाद का सिनेमा।
(संजीव के. झा राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त मराठी फिल्म सुमी (2020) और कई अन्य हिंदी फिल्म और वेब सीरीज के लेखक हैं। )