श्रीनगर में वसंत की एक नियमित दोपहर थी, जब पहलगाम से आई खबरों ने हमारी रूह को हिला दिया। विडंबना यह है कि उसी दिन एक भाजपा सांसद शहर में थे, जो जोर-शोर से ‘‘पर्यटकों की भारी आमद’’ को उपलब्धि बता रहे थे। वे खचाखच भरे बगीचों और भीड़ भरे होटलों की बात कर रहे थे तब मैं बेचैन और असहज वहीं बैठा था।
तभी एक राष्ट्रीय चैनल का पत्रकार मेरे दफ्तर में आया और बोला, ‘‘हमें आपकी प्रतिक्रिया चाहिए।’’
‘‘किस बात पर?’’ मैंने पूछा।
उसने कहा, ‘‘पर्यटकों पर हमला हुआ है, कई घायल हैं।’’
उस पल में मैं यह सोचे बिना नहीं रह सका कि कश्मीर में शांति को हमेशा पर्यटकों की संख्या से क्यों आंका जाता है। हमारी गरिमा, सामान्य स्थिति के लिए हमारी सामूहिक तड़प, होटल बुकिंग और बगीचे की भीड़ से इतनी संकीर्ण रूप से क्यों मापी जाती है? यह समझने के लिए एक रॉकेट वैज्ञानिक होना जरूरी नहीं है। जब आप एक ऐसी जमीन पर शांति के बारे में चिल्लाते रहते हैं जहां अब भी खून बह रहा है, तो आप उन लोगों को खतरे में डालते हैं जिनका आप जश्न मनाते हैं। हमारे दुश्मन, हमेशा चौकस, इसे चुनौती के रूप में देखते हैं, और वे हमला करते हैं।
ऐसा ही कुछ अकल्पनीय हुआ 22 अप्रैल, 2025 को बैसारन घाटी में। हाल के वर्षों में हमने जो कुछ देखा है, वह उसके विपरीत था। एक क्रूर, संवेदनहीन क्षण में, 26 कीमती जिंदगियां खो गईं। अधिकतर सैलानी थे। यह सिर्फ व्यक्तियों पर हमला नहीं था; यह हमारी सामूहिक आत्मा पर हमला था। दृश्य भयावह थे। उन्होंने देश की रीढ़ में कंपकंपी पैदा कर दी। देश गुस्से में था। जम्मू-कश्मीर के लोग भी। चोट व्यक्तिगत थी। दर्द हमारा भी था।
फिर भी, इस दुख के बीच कुछ असाधारण सामने आया। बिना किसी आह्वान के, बिना नारे के, बिना किसी नेता की आज्ञा के, कश्मीरियों ने स्वतःस्फूर्त रूप से तालाबंदी कर दी। दुकानें बंद हो गईं, कारोबार पर सन्नाटा छा गया, स्कूलों में मातम छा गया। गांवों से लेकर कस्बों तक पूरी घाटी दुख के सामूहिक क्षण में उतर गई। मेरी स्मृति में पहली बार, श्रीनगर में ऐतिहासिक जामा मस्जिद में पूरे एक मिनट का संपूर्ण मौन रखा गया। यह प्रार्थना और आत्ममंथन का एक दुर्लभ, गहरा पल था। कश्मीर ने मुखर होकर स्पष्ट रूप से, निडरता के साथ कहा: हम आतंकवाद की निंदा करते हैं। हम हिंसा को अस्वीकार करते हैं। हम अपने राष्ट्र के साथ शोक मनाते हैं।
और उस चुप्पी में, कुछ और भी शक्तिशाली सुनाई दे रहा था: कश्मीरियों की मानवता, जिसे अक्सर भुला दिया जाता है, अक्सर बदनाम किया जाता है, वह चमक रही थी। किसी ने भी आर्थिक नुकसान की बात नहीं की। किसी ने भी कारोबारी घाटा नहीं गिना। लोगों ने केवल जीवन की हानि, अदद इंसानी दर्द पर बात की।
इससे पता चलता है कि कश्मीर टूटा नहीं है। वह लचीला है। वह मानवीय है। यह गर्व की बात है। और वह फिर से उठ खड़ा होगा। आतंकवादियों ने हमें पहलगाम में बांटने की कोशिश की। वे नाकाम रहे। इसके बजाय, उन्होंने कश्मीर और शेष भारत को, सभी धर्मों से, भाषाओं में, सभी क्षेत्रों में, साझा दुख और साझा गौरव के साथ एकजुट कर दिया। उस त्रासदी के केंद्र में एक नाम था जिसे हमें कभी नहीं भूलना चाहिए: पहलगाम का 30 वर्षीय टट्टूवाला सैयद आदिल हुसैन शाह। अपने परिवार के लिए कमाने वाले एकमात्र शख्स आदिल ने अपना दिन पर्यटकों को बैसरन के हरे-भरे घास के मैदानों में फेरी लगाने में बिताया। वह दिन किसी अन्य दिन की तरह शुरू हुआ, लेकिन जब आतंकियों ने हमला किया तो आदिल भागे नहीं। वे लड़े। यहां तक कि उन्होंने उन सैलानियों का बचाव करने के लिए एक आतंकवादी के हथियार छीनने की कोशिश की, जिनका कुछ देर पहले उसने मुस्कुराते हुए स्वागत किया था। उन्होंने इस साहस की कीमत अपनी जिंदगी से चुकाई। उस दिन मारा गया आदिल एकमात्र कश्मीरी था। उनका बलिदान कश्मीरियत, बहादुरी, आतिथ्य, बलिदान की सच्ची भावना का प्रतीक है, न कि वे विकृत छवियां जो आप हम प्राइम टाइम टेलीविजन पर चिल्लाते हुए देखते हैं।
आदिल अकेला नहीं था। उस दिन कई ‘आदिल’ थे, अनगिनत बहादुर आदिल जिन्होंने हजारों लोगों को बचाने में मदद की, घायलों को बैसारन से पहलगाम तक वापस ले आए, कभी-कभी अपनी पीठ पर लादकर। ये गुमनाम नायक थे जिनके साहस और मानवता को स्वीकार किया जाना चाहिए। उन्हें भी पीठ पर थपथपाने की जरूरत है। उन्होंने वास्तव में यह अर्जित किया है।
उसके बाद के दिनों में सैकड़ों लोग बाहर आए और दूसरों की तरह मैं भी डल झील के किनारे मोमबत्ती मार्च में शामिल हुआ। होटल मालिक, छात्र, दुकानदार, राजनैतिक कार्यकर्ता, सभी एक साथ खड़े थे, मोमबत्तियां और बैनर पकड़े हुए थे जिन पर एक सरल, शक्तिशाली संदेश था, ‘‘कश्मीरी आपके दुश्मन नहीं हैं। हम भारत की आत्मा का हिस्सा हैं।’’
लेकिन जब कश्मीर राष्ट्र के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा था, दर्दनाक खबरें आने लगीं, कश्मीरी छात्रों, व्यापारियों और यात्रियों पर हमले हो रहे थे। हैरान मैं खुद से पूछता रहा कि कश्मीरी होने के अलावा उन्होंने क्या अपराध किया है?
शुक्र है, शांत आवाजें प्रबल हुईं, और इन हमलों पर अंकुश लगाया गया। फिर भी निशान बने हुए हैं। कई कश्मीरी युवा आज कड़वाहट से पूछते हैं, ‘‘अगर हम आतंक के खिलाफ खड़े हैं, तो हमारे साथ आतंकवादियों की तरह व्यवहार क्यों किया जाता है?’’
पहलगाम हमले के बाद, सुरक्षा बलों ने कथित आतंकवादियों के कम से कम आठ घरों को ध्वस्त कर दिया और सैकड़ों को हिरासत में ले लिया। मैं स्पष्ट कर दूं कि उनके नाम का कोई भी कश्मीरी आतंकवाद का समर्थन नहीं करता है। अगर किसी ने अपराध किया है तो उसे न्याय के कटघरे में लाया जाना चाहिए और कानून का सामना करना चाहिए। लेकिन उनके परिवारों को सजा क्यों? उन घरों को क्यों नष्ट करें जहां निर्दोष माता-पिता, बच्चे और भाई-बहन रहते हैं? उन्होंने क्या गलत किया है? न्याय का ताल्लुक जवाबदेही से होना चाहिए, सामूहिक पीड़ा पैदा करने से नहीं। हमारे दर्द में, हम पूछते हैं, एक परिवार के आश्रय को बर्बाद करने से शांति कैसे मिलती है?
आने वाले दिन और महीने अहम होंगे, खासकर दो पड़ोसी देशों के बीच जारी तनाव के मद्देनजर। हर कोई शांति चाहता है, और यह सही भी है। लेकिन शांति दो-तरफा सड़क है। जिम्मेदारी अकेले भारत की नहीं है। पाकिस्तान को भी खोखले नारों से ऊपर उठना चाहिए और शब्दों को कार्रवाई से मिलाना चाहिए। दुनिया आज नतीजे मांगती है, बयानबाजी नहीं।
मुझे यह पूरी ईमानदारी से कहना चाहिए कि मैं इस त्रासदी का राजनीतिकरण नहीं करना चाहता, लेकिन सच कहा ही जाना चाहिए। वह यह है कि जम्मू-कश्मीर में पूरी तरह से सशक्त और निर्वाचित राज्य सरकार का अभाव एक गहरी और निरंतर विफलता है। सुरक्षा केवल बंदूकों और बंकरों से नहीं, विश्वास से आती है। यह लोगों के साथ साझेदारी का मसला है। केवल एक निर्वाचित सरकार ही है जिसके साथ भावनात्मक जुड़ाव हर कश्मीरी को शांति का संरक्षक बना सकता है। इसके बगैर, कानून प्रवर्तन एक बेचेहरा मशीन बन जाने का जोखिम पाल लेता है जो लोगों से जुदा होगा, नाजुक होगा और बेअसर भी होगा।
और अंत में, जब मैं इस लेख को लिखना समाप्त कर रहा हूं, कुछ ऐतिहासिक घटित हुआ है, जो आधुनिक भारत के इतिहास में अभूतपूर्व है।
पहली बार, हमारी अपनी जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने पहलगाम में हुए हमले की निंदा करने के लिए विशेष सत्र बुलाया। सरकार ने एक प्रस्ताव पेश किया और पूरा सदन राजनैतिक भेदों से ऊपर उठकर हिंसा की स्पष्ट रूप से निंदा करने के लिए एकजुट हो गया। एक स्पष्ट, शक्तिशाली आवाज में, उन्होंने घोषणा की, ‘‘हमारे नाम पर नहीं।’’
इससे किसी के मन में कोई संदेह नहीं रहना चाहिए, 1.37 करोड़ लोगों की रिहाइश जम्मू-कश्मीर ने स्पष्ट रूप से हिंसा को खारिज कर दिया है और पहलगाम में हुई बर्बरता की बिना किसी हिचकिचाहट के निंदा की है।
(तनवीर सादिक नेशनल कॉन्फ्रेंस के मुख्य प्रवक्ता और जदीबल के विधायक हैं। विचार निजी हैं)