देश की सबसे बड़ी ई-कॉमर्स कंपनी फ्लिपकार्ट के दूसरे फाउंडर बिन्नी बंसल भी अब कंपनी से अलग हो गए। इसके पहले वॉलमार्ट द्वारा फ्लिपकार्ट को खरीदने पर उसके एक और फाउंडर सचिन बंसल का भी कंपनी से रिश्ता टूट गया था। भारत में ई-कॉमर्स सेक्टर को नई राह दिखाने वाले यूनीकॉर्न सचिन बंसल और बिन्नी बंसल का अपनी ही बनाई कंपनी से अलग होना सवाल खड़ा करता है कि क्यों फ्लिपकार्ट का मालिकाना हक अमेरिकी कंपनी वॉलमार्ट के पास चला गया जबकि उसकी वैल्युएशन बहुत अच्छी थी और वह अपने क्षेत्र की नंबर वन कंपनी बन गई थी। असल में स्टार्ट अप में ऐसा ही होता है। उसकी दुनिया पूरी तरह गोल है। इसकी शुरुआत देसी लोग करते हैं, जिनके पास यूनीक आइडिया होता है। इसकी बदौलत वह अपना बिजनेस शुरू करते हैं। यह आइडिया देसी-विदेशी दोनों हो सकता है, अगर विदेशी आइडिया की बात करें, तो इसमें विदेश से आए आइडिया को कॉपी-कैट कर लागू किया जाता है। इसे बाद में देसी आधार पर डिजाइन कर दिया जाता है। फ्लिपकार्ट, ओयो रूम्स, ओला जैसी कंपनियां इसी तरह भारत में स्टार्टअप के रूप में स्थापित हुई हैं।
इसके अलावा कुछ लोग देसी आइडिया के साथ बिजनेस शुरू करते हैं। लेकिन जब एक बार बिजनेस शुरू हो जाता है, तो सब एक-दूसरे में मिल जाता है यानी देसी-विदेशी का अंतर खत्म हो जाता है। पर, यहीं से स्टार्ट अप के सामने चैलेंज खड़े होने शुरू होते हैं। किसी भी बिजनेस को बढ़ाने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी पैसा है। क्योंकि अगर पैसा नहीं होगा तो आप अपनी कंपनी का विस्तार नहीं कर सकते हैं। पैसे के लिए भारतीय स्टार्ट अप विदेशी निवेशकों पर ही निर्भर है। यानी बिजनेस पर चाहे-अनचाहे नियंत्रण निवेशकों का ही रहता है। जहां तक भारत से मिलने वाले निवेश की बात है तो अभी यहां पर स्टार्ट अप की स्टेज उस स्तर पर नहीं पहुंची है, जहां भारतीय निवेशक खास तौर से ई-कॉमर्स सेक्टर की कंपनियों में बड़ी मात्रा में निवेश करें। अभी इस स्तर पर पहुंचने में काफी समय लगेगा। अभी तक भारत में निवेश का स्तर तीसरे स्टेज तक ही पहुंचा है। यानी कभी पैसा चीन से आएगा, कभी अमेरिका से तो कभी सिंगापुर से आएगा। यानी तस्वीर साफ है कि स्टार्ट अप को फंडिंग के लिए विदेशी निवेशकों पर निर्भर रहना पड़ेगा। भारत में स्टार्ट अप की फंडिंग के पैटर्न को देखा जाय तो ज्यादातर पहले चरण में सिंगापुर के निवेशक भारत में पैसा लगाते हैं। उसके बाद जब स्टार्ट अप का बिजनेस बढ़ने लगता है तो फिर चीन से निवेश आता है। फिर तीसरे चरण में अमेरिकी निवेशक पैसा निवेश करते हैं। अभी भारत का स्टार्ट अप बाजार तीसरे चरण तक ही पहुंचा है। हमें यह भी समझना होगा कि बिजनेस में कोई चीज स्थायी नहीं होती। जमीन, श्रम सभी तरह की चीजें काफी गतिशील होती है।
उसमें भी अगर हम स्टार्ट अप की बात करें तो वह पारंपरिक बिजनेस की तुलना में कहीं ज्यादा गतिशिल होते हैं। यानी उनके काम करने का तरीका पारंपरिक कंपनियों की तुलना में बहुत अलग होता है। स्टार्टअप की कुछ खासियत होती है, जो भारतीय कंपनियों पर भी लागू होती है। स्टार्टअप शुरू करने और उसमें काम करने वाले लोगों की उम्र बहुत कम होती है। उनमें काम करने की ऊर्जा बहुत ज्यादा होती है, जिसकी वजह से काम करने की गति एकदम अलग होती है। कुल मिलाकर माहौल एकदम अलग होता है, जहां हम कह सकते हैं कि हमेशा मंथन होता रहता है। फ्लिपकार्ट की बात करें तो वहां पर दोनों फाउंडिंग पार्टनर सचिन बंसल और बिन्नी बंसल अब कंपनी से अलग हो गए हैं। दोनों ने बहुत अच्छी तरह से कंपनी को स्थापित किया और कंपनी की ग्रोथ भी अच्छी तरह से कराई। अब कंपनी पर पूरी तरह से वॉलमार्ट का कब्जा हो गया है। कुछ दिनों में कंपनी के कामकाज के कल्चर में बदलाव आएगा। अभी तक फ्लिपकार्ट में स्टार्टअप कल्चर था। जो कि वॉलमार्ट के स्वामित्व में आने के बाद कम होगा। वहां पर कॉरपोरेट कल्चर ज्यादा होगा। ऐसे समझिए की 80 फीसदी कॉरपोरेट कल्चर तो 20 फीसदी स्टार्टअप कल्चर होगा।
एक सवाल मन में यह भी उठता है कि जब सचिन और बिन्नी बंसल ने फ्लिपकार्ट को देश की सबसे बड़ी ई-कॉमर्स कंपनी बना दिया, तो वह उसे ग्लोबल लेवल पर क्यों नहीं ले गए। फ्लिपकार्ट ही नहीं दूसरी बड़ी कंपनियों के फाउंडर की बात करें, तो उनके लिए भारत से बाहर सफलता पाने में तीन अड़चनें हैं। एक तो विदेश में बिजनेस बढ़ाने के लिए फंड की जरूरत पड़ती है। साथ ही विदेश में बिजनेस के लिए एक अच्छे पार्टनर की भी जरूरत पड़ती है। इसके अलावा आपके बिजनेस का मॉडल ऐसा होना चाहिए जो कहीं भी चल सकता हो। जहां तक भारत की ई-कॉमर्स कंपनियों के बिजनेस मॉडल की बात है, तो वह ऐसा नहीं है कि वह हर जगह फिट हो जाए। ऐसे में उनके लिए विदेश में अपनी पहुंच बढ़ाना मुश्किल रहता है।
जैसा फ्लिपकार्ट के साथ हो रहा है वैसा दूसरे स्टार्टअप के साथ भी हो सकता है। उन कंपनियों में भी बदलाव देखे जा सकते हैं। यानी कंपनियों का स्वामित्व बदलेगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि चाहे पेटीएम हो, ओयो रूम्स हो या दूसरे प्रमुख स्टार्ट अप, उन सभी में विदेशी निवेशकों का पैसा लगा हआ है। इन कंपनियों ने भी ग्रोथ के लिए काफी पैसा जुटाया है। ऐसे में आने वाले दिनों में कई बड़े बदलाव देखे जा सकते हैं। विदेशी निवेशकों द्वारा ज्यादा पैसा लगाने से इन कंपनियों के शेयरहोल्डिंग पैटर्न में फाउंडर की हिस्सेदारी निवेशकों की तुलना में बहुत कम हो गई है। साथ ही इन कंपनियों को बिजनेस के लिए आने वाले दिनों में अभी और पैसों की जरूरत पड़ेगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि अभी भी ज्यादातर कंपनियां कमाई नहीं कर पा रही हैं। ऐसे में उनके पैसों की जरूरत विदेशी निवेशकों से ही पूरी होने वाली है। जब विदेशी निवेशक पैसा लगाएंगे तो फाउंडर के शेयर भी कम होंगे। शेयर कम होंगे तो फाउंडर की हिस्सेदारी भी कंपनी में घटेगी। हिस्सेदारी घटेगी तो निदेशक मंडल से सीट भी जाएगी। सीट जाएगी तो मैनेजमेंट कंट्रोल हाथ से निकल जाएगा। इसके बाद एक ही रास्ता बचता है कि फाउंडर मालिक नहीं रह जाएंगे। यानी कंपनी का नियंत्रण विदेशी निवेशकों के पास चला जाएगा। या यूं कहें कि कंपनी असली मालिक के पास चली जाएगी। अभी भारत में जो चेहरे दिख रहे हैं, उन्हें एक तरह से असली मालिक नहीं कहा जा सकता है।
जहां तक फ्लिपकार्ट से उसके दोनों फाउंडर के अलग होने की बात है, तो जब भी कोई कंपनी शुरू होती है तो उसका एक लक्ष्य होता है। जब वह पूरा हो जाता है तो फिर आगे क्या, ऐसा ही मामला फ्लिपकार्ट के साथ है। दोनों फाउंडर ने एक कंपनी को शुरू किया। उसे देश की नंबर वन कंपनी बनाया। उसकी वैल्युएशन बढ़ाई, यूनीकॉर्न बने, इसके बाद क्या बचता है। ऐसे में अब कुछ और करना है, यही उनका शायद लक्ष्य है। उन दोनों ने अपने को साबित किया है। वह जरूर कुछ नया करेंगे।
भारतीय ई-कॉमर्स इंडस्ट्री में जिस तरह से कंपनियों की कमाई नहीं हो रही है। उसकी वजह से आने वाले समय में इंडस्ट्री की प्रमुख कंपनियों पर धीरे-धीरे चीन और अमेरिकी निवेशकों का ही कब्जा हो जाएगा। ऐसे में तय है कि इंडस्ट्री के काम करने का तरीका भी बदलेगा। यानी अभी तो कस्टमर को हैवी डिस्काउंट मिल रहा है। आने वाले समय में जब इंडस्ट्री में एक-दो कंपनियों का ही बोलबाला होगा। तो, ई-कॉमर्स सेक्टर में हैवी डिस्काउंट का दौर खत्म हो सकता है।
ऐसा इसलिए होगा कि आने वाले समय में धीरे-धीरे कंपनियों का मालिकाना हक वास्तिवक मालिक के पास पहुंच जाएगा। जैसा कि फ्लिपकार्ट के मामले में हुआ है। मेरा मानना है कि वॉलमार्ट ही कंपनी का वास्तविक मालिक है। ऐसा ही दूसरी कंपनियों के साथ भी होगा। अभी जो हमें मालिक दिख रहे हैं, वह बदलेंगे। स्टार्ट अप में ऐसा ही होता है। उसमें शुरुआती समय में दिखने वाले मालिक अस्थायी होते हैं। जो स्थायी मालिक होता है वह कुछ समय के बाद दिखता है। स्थायी मालिक ही तय करेगा कि बिजनेस को आगे कैसे बढ़ाया जाएगा। यहीं पर हैवी डिस्काउंट का दौर खत्म होगा। अभी भारतीय कस्टमर इन्वेस्टर के पैसे से ही डिस्काउंट ले रहे हैं। कस्टमर के लिए यह बहुत अच्छा दौर है। जितना डिस्काउंट उन्हें अभी मिल रहा है, वह दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में अच्छा है। अभी यह फायदा अगले 4-5 साल और मिलता रहेगा।
लेकिन जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि जब वास्तविक मालिक के हाथ में कंपनी का नियंत्रण पहुंचेगा, तो भारतीय स्टार्टअप कल्चर में काफी बदलाव आएगा।
अगर इस बदलाव से मन में यह सवाल उठ रहा है कि डिस्काउंट मॉडल की वजह से विदेशी निवेशकों के पास देसी कंपनियों का नियंत्रण चला जा रहा है तो ऐसा सोचना सही नहीं है। क्योंकि अगर निवेशक नहीं आते तो फ्लिपकार्ट, पेटीएम जैसी कंपनियां आज इतनी बड़ी नहीं बनतीं। ऐसे में यह इंडस्ट्री के लिए अच्छा है, जिसकी वजह से भारतीय ई-कॉमर्स इंडस्ट्री आज इस स्तर पर पहुंची है और फायदा बिजनेस के साथ-साथ कंज्यूमर को भी मिल रहा है। साथ ही, आगे भी कुछ दिनों तक मिलता रहेगा। हालांकि इस बदलाव का असर यह होगा कि भारतीय ई-कॉमर्स सेक्टर पूरी तरह से कुछ साल बाद बदल जाएगा। आने वाले दिनों में भारतीय ई-कॉमर्स सेक्टर में अलीबाबा, अमेजन, वॉलमार्ट और शायद कोई एक कंपनी और होगी, जिसका वर्चस्व होगा, कुल मिलकार 3-4 कंपनियों का ही आधिपत्य होगा।
(लेखक ब्रांड गुरु हैं, यह लेख प्रशांत श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित है)