महाराष्ट्र में भाषाई राजनीति एक बार फिर से भड़क गई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के वरिष्ठ नेता सुरेश ‘भैयाजी’ जोशी ने हाल ही में एक सार्वजनिक सभा में यह बयान दिया था कि मुंबई आने वाले लोगों के लिए राज्य की आधिकारिक भाषा मराठी को सीखना जरूरी नहीं है। मुंबई, पुणे, ठाणे और नासिक में स्थानीय नगर निकायों के चुनाव नजदीक होने के बीच भाजपा को इस बयान से शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा, तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने मामले को संभालने की कोशिश में कह दिया कि राज्य के सभी निवासियों को मराठी सीखनी चाहिए। पत्रकार और जय महाराष्ट्रा, ए हिस्ट्री ऑफ शिवसेना के लेखक प्रकाश अकोलकर का मानना है कि जोशी का यह कहना कि ‘‘मुंबई की भाषा एक नहीं है’’ जानबूझ कर माहौल को नापने के लिए दिया गया बयान था। उन्होंने कहा, ‘‘आरएसएस और भाजपा का ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’ लागू करने का एजेंडा स्पष्ट रूप से परिभाषित है। मुंबई का उदाहरण देकर वे हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा बनाने से पहले राजनैतिक प्रतिक्रिया जानना चाहते हैं।’’
जोशी खुद मराठीभाषी हैं। उनका कहना था कि शहर के विभिन्न हिस्सों ने वहां की प्रमुख आबादी के आधार पर अलग-अलग भाषाएं बोली जाती हैं। घाटकोपर में गुजराती ज्यादा हैं जबकि गिरगांव में महाराष्ट्रियन ज्यादा हैं। इस भाषाई वास्तविकता को मुंबई से ही समझा जा सकता है। राज्य की आधिकारिक भाषा मराठी, वैसे तो देश भर में 12 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाती है, लेकिन मुंबई में कोई भी मराठी का एक शब्द भी बोले बिना शहर में अपना काम-धंधा कर सकता है। ऐतिहासिक रूप से मुंबई का चरित्र महानगरीय रहा है जिसने कई भाषाओं, संस्कृतियों और जातीयताओं के लोगों को खुद में समेटा है। देश की वित्तीय राजधानी के रूप में मुंबई की आर्थिक बागडोर गैर-मराठीभाषी व्यापारिक और व्यापारिक समुदाय द्वारा नियंत्रित की जाती है, जो मराठी मूल निवासियों को रोजगार देते हैं। मुंबई भले ही महाराष्ट्र का अभिन्न अंग है, लेकिन वह मराठी संस्कृति का केंद्र नहीं है।
इस बहुसांस्कृतिकता से इतर, मुंबई भाषाई अंध राष्ट्रवाद का केंद्र भी रहा है। मराठी भाषा महाराष्ट्रियन पहचान का महत्वपूर्ण संकेतक है और इसकी राजनैतिक प्रतिध्वनि भी मजबूत है। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने भाषाई क्षेत्रवाद पर जोर देकर और स्थानीय मराठियों के गुस्से को आवाज देकर अपना राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित किया है।
केंद्र की मोदी सरकार इस समय हिंदी भाषा को थोपे जाने को लेकर गैर-भाजपा शासित राज्यों के विरोध का सामना कर रही है। तमिलनाडु सरकार ने राज्य के स्कूलों में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के त्रिभाषा (अंग्रेजी, हिंदी और राज्य भाषा) फॉर्मूले के हिस्से के रूप में हिंदी भाषा को शामिल करने का विरोध किया है। महाराष्ट्र में शिवसेना (उद्धव गुट) और मनसे की संकीर्ण राजनीति ने भाषाई राजनीति को जटिल बना दिया है। महाराष्ट्र में प्रमुख पार्टी के रूप में अपने पदचिह्न का विस्तार करने के लिए उत्सुक भाजपा ने मराठी को बढ़ावा देने का काम किया है।
विधानसभा चुनावों से कुछ हफ्ते पहले बीते अक्टूबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने समृद्ध और प्राचीन साहित्यिक परंपरा के लिए मराठी को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया था। राज्य की सत्ता में आने के बाद देवेंद्र फड़नवीस के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने सरकारी और अर्ध-सरकारी कार्यालयों के लिए सभी संचार और निर्देश पट्टिकाएं मराठी में अनिवार्य कर दिया था। राज्य योजना विभाग द्वारा जारी अधिसूचना में मराठी में नहीं बोलने वाले अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की चेतावनी दी गई है।
प्रतिष्ठित लेखक और साहित्य अकादमी विजेता रंगनाथ पठारे ने कहा कि दस साल की देरी के बाद मराठी को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने का कदम राजनैतिक के अलावा कुछ नहीं था, जिसका मकसद भाजपा के लिए मराठी वोट पाना था। पठारे को 2013 में कांग्रेस सरकार द्वारा यह पता लगाने के लिए नियुक्त किया गया था कि मराठी शास्त्रीय भाषा के दर्जे के मानदंडों को पूरा करती है या नहीं। वे बताते हैं, ‘‘मराठी की समृद्ध प्राचीन परंपरा है जो 2000 साल पुरानी है। मराठा साम्राज्य के 400 साल के शासन में कराची से लेकर कर्नाटक तक यह भाषा बोली जाती थी। हमने 2015 में भाषा की उत्पत्ति को दर्शाने वाले सभी दस्तावेजी और साहित्य प्रमाणों के साथ 500 पन्नों की रिपोर्ट प्रस्तुत की, फिर भी केंद्र सरकार ने तत्काल दर्जा देने से इनकार कर दिया।’’
भाजपा का उद्देश्य मराठी भाषा और संस्कृति को आगे बढ़ाने के नाम पर अपनी प्रतिद्वंद्वी शिवसेना (ठाकरे गुट) से मराठी एजेंडे का नियंत्रण हासिल करना है, जिसकी पहचान राजनीतिक क्षेत्र में मराठी समर्थक पार्टी के रूप में निहित है। संघ और शिवसेना की उत्पत्ति महाराष्ट्र में हुई और हिंदुत्व के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के कारण कई बार इन्हें एक ही सिक्के के दो पहलू मान लिया जाता है, लेकिन भाजपा और संघ की राष्ट्रवादी विचारधारा शिवसेना के क्षेत्रीय राष्ट्रवाद के विपरीत है।
शिवसेना की उत्पत्ति भाषाई पहचान के आधार पर बॉम्बे स्टेट से अलग कर महाराष्ट्र को स्वतंत्र राज्य बनाने के लिए लड़ाई से जुड़ी हुई है, जिसमें वर्तमान गुजरात, विदर्भ और महाराष्ट्र के कुछ हिस्से शामिल थे। बाल ठाकरे के पिता प्रबोधंकर ठाकरे 1956 में बनाई गई संयुक्त महाराष्ट्र समिति (संयुक्त महाराष्ट्र समिति) के प्रमुख व्यक्तियों और संस्थापक सदस्यों में से एक थे, जिसने मराठी संस्कृति, भाषा और लोगों के संरक्षण और प्रसार की मांग की थी। 1960 में बॉम्बे शहर की राजधानी के साथ महाराष्ट्र राज्य का गठन 105 लोगों की शहादत का परिणाम माना गया, जिन्होंने मराठी गौरव से प्रेरित होकर आंदोलन किया। महाराष्ट्र का हिस्सा बनने के बाद भी बॉम्बे गैर-मराठीभाषी प्रवासियों द्वारा आबाद रहा, जो आर्थिक अवसरों की तलाश में शहर आ रहे थे। इसके चलते मूल निवासी होने के बावजूद महाराष्ट्रियन लोग सबसे बड़े भाषाई अल्पसंख्यक बन कर रह गए।
शिवसेना ने नौकरियों में स्थानीय मराठी मूल निवासियों को प्राथमिकता देने के लिए हिंसक आंदोलन का नेतृत्व किया और यहां तक कि स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसरों से वंचित करने के लिए शहर में दक्षिण भारतीय प्रवासियों पर हमला किया। समय के साथ पार्टी ने स्कूलों में मराठी भाषा को अनिवार्य रूप से लागू करवाने, राज्य भर के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर मराठी साइनबोर्ड लगाने और मराठी भाषियों के आरक्षण के लिए अपने आक्रामक अभियानों के राज्य में अपनी पैठ बनाई। दूसरी ओर, पिछले महीने दिल्ली में हुए 98वें मराठी साहित्य महोत्सव में मोदी ने संघ के मराठी कनेक्शन का जिक्र किया था। उन्होंने मराठी भाषा और संस्कृति से परिचित कराने के लिए आरएसएस की प्रशंसा की, लेकिन अपने 100 वर्षों के सफर में संघ ने कभी भी मराठी भाषा के प्रचार के लिए वकालत नहीं की है। आरएसएस ने हमेशा हिंदी को एकजुट करने वाली भाषा के रूप में देखा है और हिंदी और संस्कृत को राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में स्वीकार करने के लिए प्रचार किया है।
मूल पार्टी में विभाजन और भाजपा के हाथों अपने नेताओं के नुकसान के बाद पीड़ित शिवसेना (ठाकरे गुट) को भाषा विवाद ने नया औजार दे दिया है। पार्टी ने वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों, रेस्तरां और भोजनालयों से बिल रसीद और मराठी भाषा में मेनू कार्ड प्रदान करने की मांग करके मराठी की सर्वोच्चता वाले अपने एजेंडे को पुनर्जीवित किया है।
अभियान की शुरुआत करने वाले शिवसेना नेता कृष्णा पावले ने कहा कि मुंबई में मराठी भाषा को पुनर्जीवित करने की तत्काल आवश्यकता है क्योंकि राज्य की भाषा और महाराष्ट्रियन पहचान हाशिये पर जाने के कगार पर है। उन्होंने कहा, ‘‘हमारे शहीदों और संविधान निर्माताओं ने कभी यह दावा नहीं किया कि मुंबई केवल मराठी लोगों के लिए है। हमने सभी का स्वागत किया है। लेकिन यह शर्मनाक है कि मुंबई में पैदा हुए गैर-मराठी भाषियों ने राज्य की भाषा सीखने से इनकार कर दिया और वे गर्व से कहते हैं, हम मराठी नहीं जानते।’’
मराठा साम्राज्य के 400 साल के शासन में कराची से लेकर कर्नाटक तक यह भाषा बोली जाती थी
रंगनाथ पठारे, साहित्य अकादमी विजेता
मुंबई आने वालों के लिए राज्य की आधिकारिक भाषा मराठी सीखना कोई जरूरी नहीं है
सुरेश भैयाजी जोशी, आरएसएस के वरिष्ठ नेता