राजनीति के राष्ट्रीय मंच पर फिलहाल तो पुराने चेहरे ही नमूदार हैं। नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह, चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, मल्लिकार्जुन खड़गे, शरद पवार, शिवराज सिंह चौहान और ऐसे ही तमाम परिचित चेहरों में अब भी इतनी ताकत बच रही है कि वे हमारे सामूहिक जीवन और संवैधानिक व्यवस्थाओं का कबाड़ा कर सकें, लेकिन इतना भी निराश होने की जरूरत नहीं है।
अच्छी खबर यह है कि अभी-अभी संपन्न हुए आम चुनावों ने ऐसे युवा नेताओं की फसल पैदा की है जो अब इस देश की निगाह में आ चुके हैं। यह नौजवान पीढ़ी बिलकुल नई ऊर्जा, इच्छाशक्ति और विचारों के प्रति खुलेपन की नुमाइंदगी करती है। ये लोग बदलाव की जरूरत को समझते हैं और उसका सम्मान भी करते हैं।
स्वाभाविक रूप से जो सबसे मुखर आवाज नई पीढ़ी में उभरी है, वह राहुल गांधी की है। 2019 की हताशा और हार के अतल से उबर कर 99 लोकसभा सीटों के सम्मानजनक आंकड़े तक कांग्रेस पार्टी को पहुंचाने वाले इस शख्स की कहानी अलग से कहे जाने योग्य है।
उतनी ही दिलचस्प कहानियां दूसरे युवा नेताओं की हैं जो आने वाले कुछ बरसों में सियासी फिजा पर छा जाने को तैयार हैं। इनमें से तीन पर करीबी निगाह रखी जानी चाहिए।
अखिलेश यादव
युवा नेताओं की ताजा फसल की सबसे अहम पैदाइश हैं समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव, जिनके जोर से न केवल भाजपा बहुमत से चूक गई बल्कि अयोध्या आंदोलन का केंद्र रहे सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश ने हिंदुत्व के गुब्बारे को पंचर कर डाला।
इस आम चुनाव में उतरने से पहले अखिलेश यादव के सामने एकाधिक चुनौतियां थीं। पहली तो यही, कि चुनाव के सातवें दौर तक खुद को मैदान में टिकाये रखने जितनी ताकत, धैर्य और मिजाज उनमें कायम रहेगा या नहीं। इस मैदान में उनका सामना योगी आदित्यनाथ और उनके प्रभामंडल में सिमटे समूचे प्रशासन से था। फिर उनके ऊपर अमित शाह और नरेंद्र मोदी थे, जो समाजवादी पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल चुके थे। इसके बावजूद अखिलेश ने अपने समर्थकों को निराश नहीं किया और वे दौड़ में बने रहे।
राहुल गांधी के साथ उनकी संयुक्त रैलियों में उमड़ी जबरदस्त भीड़ ने उन्हें और ऊर्जा दी। आखिरकार अपनी पार्टी के खाते में 37 लोकसभा सीटें जीतकर अखिलेश ने अपने नेतृत्व पर उठने वाली तमाम आशंकाओं को शांत कर दिया है। खासकर उनके खानदान में न तो शिवपाल यादव और न ही रामगोपाल यादव के पास उनके नेतृत्व पर सवाल उठाने की कोई कुव्वत बच रही है। मुलायम सिंह यादव की ठोस विरासत अब अखिलेश यादव की काया में पूरी तरह ढल चुकी है।
अखिलेश को यह भी साबित करना था कि उनके पास वह कल्पनाशक्ति, रणनीतिक स्पष्टता और लचीलापन है जिसके सहारे वे अपनी पार्टी के सामाजिक समीकरण को यादवों और मुसलमानों के पार ले जाकर विस्तारित कर सकें। लिहाजा, उन्होंने इस समीकरण को फैलाते हुए नाम दिया पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक, और यह नुस्खा काम कर गया।
चुनाव एक ऐसा जायज मौका होता है जब लोग, समूह और समुदाय ताकतवर खिलाडि़यों के साथ सौदेबाजी कर पाते हैं। ऐसे में एक सामाजिक गठजोड़ को कायम करने की कला जो चुनावी फायदे भी दे सके, नेता की इस क्षमता पर निर्भर करती है कि वह विरोधी पाले के लोगों को अपने पाले में कितना खींच पाता है। इस संदर्भ में अखिलेश ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के दलितों को अपनी ओर करने में पर्याप्त कामयाबी हासिल की। दलित वोटों का समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन की तरफ आना ही इस चुनाव का असली पासापलट साबित हुआ।
ऐसा करते हुए अखिलेश इस राजनीतिक स्वीकार्यता को भी दर्शा रहे थे कि मुसलमान अबकी कांग्रेस के साथ एकतरफा जाने का मन बना चुका था क्योंकि वह मानता था कि कांग्रेस ही इकलौती राष्ट्रीय पार्टी है जो भाजपा के हिंदुत्व को चुनौती देकर उसे रोक सकती है। इस समझदारी पर पहुंचने के बाद ही अखिलेश ने कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन का निर्णय लिया, भले ही उसमें कुछ रोड़े आए। इसके बाद की कहानी इतिहास है।
प्रियंका गांधी
विडम्बना ही कहेंगे कि परिवारवाद के खिलाफ एक दशक से प्रचार कर रहे मोदी ने दलीय राजनीति में जाने-अनजाने परिवार की भूमिका को और स्थापित कर डाला है। इस चुनाव में प्रियंका गांधी वाड्रा ने खुद को एक सार्वजनिक व्यक्तित्व और कांग्रेस के स्पाष्टवादी, संजीदा व आकर्षक प्रचारक के रूप में स्थापित कर लिया है। जब चुनाव प्रचार शुरू हुआ था उस वक्त प्रियंका और राहुल दोनों का आत्मविश्वास कम लगता था, गोया उन्हें यह विश्वास न रहा हो कि उनके राजनीतिक व्यक्तित्व और संदेशों की स्वीकार्यता लोगों में बनेगी। वे संकोच में थे। फिर बीच में प्रियंका के पति रॉबर्ट वाड्रा ने अमेठी या रायबरेली से चुनाव लड़ने की अप्रत्याशित इच्छा भी जता दी। यह बात समझ में आने वाली नहीं थी, लेकिन परिवार ने उन्हें न सिर्फ चुप करा के बैठा दिया बल्कि खुद को एक थकाने वाले प्रचार अभियान में झोंक डाला।
राहुल गांधी ने तो दो लंबी यात्राएं कर के अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को अर्जित किया था लेकिन प्रियंका के निजी खाते में ऐसी कोई उपलब्धि नहीं थी। जब वे प्रचार में निकलीं, तो समय के साथ उनकी आवाज मुखर हुई और समर्थकों व कार्यकर्ताओं की भीड़ ने उन्हें ऊर्जा देने का काम किया। फिर वे रंग में आ गईं।
वे अपने भाई से बेहतर और धाराप्रवाह हिंदी बोलती हैं। यही उनकी ताकत बना। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के हर जुमले का एक-एक कर के जवाब दिया। अपनी हर सभा में उन्होंने मोदी को उलाहना दी, उन्हें उकसाया और जुबानी प्रचार-युद्ध में जमीन पर ला पटका।
इस चुनाव में आए जनादेश ने कांग्रेस को उबार दिया है और भाजपा का मुख्य प्रतिद्वंद्वी स्थापित कर दिया है। इसने गांधी परिवार को भी नवजीवन दिया है। प्रियंका गांधी ने साफ कह दिया है कि वे किसी के मातहत काम नहीं करने वाली हैं, इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि 2025 के अंत तक वे कांग्रेस की अगली अध्यक्ष के रूप में हमें दिखाई दें।
तेजस्वी यादव
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव वाली कामयाबी को वे भले नहीं छू पाए, लेकिन तेजस्वी यादव ने खुद को बिहार के अगले नेता के रूप में स्थापित जरूर कर दिया है। नीतीश कुमार और लालू यादव अपनी पारी खेल चुके हैं। सुशील कुमार मोदी और रामविलास पासवान गुजर चुके हैं। खाली हो रहा बिहार का सियासी मैदान अब नए नेतृत्व की बाट देख रहा है।
लालू प्रसाद यादव के इकलौते राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में उभरे तेजस्वी के पास राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेता के बतौर इंडिया गठबंधन की नाव बिहार में पार लगाने की जिम्मेदारी थी। इस भूमिका को उन्होंने अच्छे से निभाया। अंतिम नतीजे भले उतने आकर्षक नहीं हैं लेकिन किसी के मन में दो राय नहीं है कि तेजस्वी ही बिहार के नए नेता हैं। हाल के बरसों में उन्होंने खुद की एक सौम्य सार्वजनिक छवि कायम की है और अपनी पिछली अक्खड़पन वाली छवि को धो डाला है, जिसके पीछे अक्सर उनके देसी और उज्जड्ड पिता को दोषी माना जाता था। चुनाव प्रचार में वे संयमित रहे, जिम्मेदार बने रहे और तार्किकता के साथ अपनी बातों को रखा। कोई निजी हमला नहीं किया, कोई सस्ता जुमला नहीं कहा और कभी गाली-गलौज नहीं की।
सबसे अहम बात यह रही कि उन्होंने वह काम कर दिखाया जो बीते बरसों में उनके पिता भी नहीं कर पाए थे- उन्होंने राजद की अपील को मूल यादव और मुसलमान जनाधार के पार विस्तारित किया। उन्होंने ‘बाप’ नाम का सामाजिक गठबंधन बनाया (बहुजन, अगाड़ी, अधिक-आबादी और गरीब)। इसके सहारे उन्होंने साहनी और कुशवाहा समुदायों को राजद की ओर खींचा, हालांकि अब भी उन्हें और उनकी पार्टी के कोर प्रबंधकों को- जो मुख्यत: यादव हैं- बाकी समुदायों को समाहित करने की कुशलता विकसित करने में लंबी दूरी तय करना है। व्यापक सामाजिक गठजोड़ कायम करने और उसे टिकाये रखने का खेल ही आज बदलाव से गुजर रहे भारतीय समाज की सच्चाई है। तेजस्वी की पूरी उमर अभी बाकी है। उन्होंने बिहार में नेतृत्वकारी भूमिका को खुद अर्जित किया है, यह बात किसी को भूलनी नहीं चाहिए।
इन तीनों के अलावा कुछ और युवा नेताओं की ओर देखने की जरूरत है, जैसे अभिषेक बनर्जी, चिराग पासवान और कन्हैया कुमार। इन चेहरों के सहारे देश के लोग अब आश्वस्त हो सकते हैं कि युवाओं की नई पौध अब मरे हुए और सड़ चुके दरख्तों की जगह लेने को तैयार खड़ी है। और यह भविष्य की सियासत में अलग तरह के रंग दिखा सकते हैं। यकीनन, 2024 का जनादेश देश की राजनीति में बदलावकारी साबित हुआ।
(हरीश खरे वरिष्ठ पत्रकार और टिप्प्णीकार हैं)