वर्ष 2030 तक युवा राष्ट्र के रूप में भारत विश्व में सर्वाधिक कामकाजी आबादी वाला देश होगा। इसके लिए देश में शत-प्रतिशत साक्षरता अनिवार्य है। भारत की 62 फीसदी से अधिक जनसंख्या कामकाजी आयु वर्ग (15-59 वर्ष) में है और कुल जनसंख्या के 54 फीसदी लोग 25 वर्ष से कम आयु के हैं। देश में युवाओं के जनसांख्यिकीय अनुपात को यदि हमें जनसांख्यिकीय लाभांश में परिवर्तित करना है, तो हमें अपने देश के बच्चों का भविष्य सर्वांगीण शिक्षा के माध्यम से संवारना होगा। प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत, सशक्त भारत, एक भारत, श्रेष्ठ भारत की संकल्पना को हमारे युवा ही पूरा कर सकते हैं। तेजी से बदलते वैश्विक परिवेश में हम आज अवसरों से परिपूर्ण ऐसे मोड़ पर खड़े हैं, जहां अगर हम अपनी क्षमता का उपयोग कर पाएं तो विश्व को नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं। यह इसलिए कि हमारे पास दुनिया का वृहदतम शिक्षा तंत्र है, जिसमें 1,000 विश्वविद्यालय, 45,000 डिग्री कॉलेज, 16 लाख विद्यालय, एक करोड़ शिक्षक, 33 करोड़ विद्यार्थी हैं। इस मानवशक्ति से हम विश्व की दिशा-दशा बदलने की क्षमता रखते हैं।
हम समझते हैं कि भारत को आर्थिक महाशक्ति और विश्वगुरु बनाने की आधारशिला गुणवत्तापरक नवाचारयुक्त, शिक्षा ही है। विशेषकर शिक्षा की चुनौतियों को समग्र रूप से हल करने के लिए और इसकी पहुंच, गुणवत्ता, शिक्षण/पहुंच प्रक्रिया में सुधार, अनुसंधान, वैश्विक मानकों को प्राप्त करने, प्रत्यायोजन, नियोजनीयता और उद्यमिता के क्षेत्रों में समन्वय स्थापित करने हेतु हम प्रतिबद्ध हैं। अच्छी बात यह है कि आज अपने स्तर पर मंथन, मनन चल रहा है कि हम वैश्विक मानकों को प्राप्त करने हेतु उत्कृष्टता का लक्ष्य कैसे प्राप्त करें?
मेरा मानना है कि शिक्षण और अनुसंधान में सहयोग के लाभ निर्विवाद हैं। बात अगर ज्ञान, विज्ञान, प्रौद्योगिकी की हो तो मुझे लगता है कि उत्कृष्टता अर्जित करने हेतु सहयोग की भावना सबसे सरल और कारगर माध्यम है। मुझे लगता है कि सहयोगात्मक शोध में सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी चुनना है। सहयोगी चुनने में, विश्वास और विश्वसनीयता आवश्यक मूल्य हैं। सहयोगी का चयन न केवल वैज्ञानिक क्षेत्रों में आपके बेहतर समन्वय की संभावना पर आधारित होना चाहिए, बल्कि समग्र रूप से एक सम्मानजनक, सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित होने की संभावना पर भी आधारित है, जिसमें संवाद की निरंतरता बनी रहनी चाहिए। यह स्वाभाविक है कि किसी भी सहयोगी परियोजना के कारण आपसी असहमति हो जाती है, क्योंकि इसमें शामिल व्यक्तियों की शैली और व्यक्तित्व सर्वथा पृथक होता है।
एक बहुविषयक अनुसंधान परियोजना में विभिन्न विशिष्टताओं द्वारा अलग-अलग दृष्टिकोण के कारण चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसमें अपर्याप्त संवाद के कारण स्थितियां और विषम बन जाती हैं। अनुसंधान से जुड़ी एक जटिलता बहु-संस्थागत अनुसंधान की एक कठिन चुनौती हो सकती है। सहयोगात्मक अनुसंधान कई नैतिक मुद्दों को उत्पन्न करता है लेकिन अगर नेतृत्व कुशल है, परिपक्व है, सकारात्मक है तो हम इन बाधाओं से पार पा सकते हैं।
कारण चाहे जो भी हो, इसके बारे में बात करें और पहली बार विवाद उठने पर तत्परता से इसे दूर करने का संकल्प लें। खूबसूरती इसी बात में है कि किस प्रकार सबको साथ लेकर अपने लक्ष्य को बेहतर ढंग से प्राप्त कर सकते हैं।
विश्व रैंकिंग एजेंसियां धारणा-आधारित स्वतंत्र सर्वेक्षणों के माध्यम से सूचना संग्रह के लिए एक विशेष दृष्टिकोण का पालन करती हैं। उनके मैट्रिक्स थर्ड-पार्टी डेटाबेस से प्राप्त मैट्रिक्स पर निर्भर करते हैं, जिसमें थोड़ा-बहुत डेटा शिक्षण संस्थानों द्वारा स्वयं प्रस्तुत किया जाता है। हालांकि, इन सर्वेक्षणों में भारतीय शिक्षाविदों की भागीदारी ऐतिहासिक रूप से बहुत कम रही है, जिससे भारत के औसत प्रदर्शन में गिरावट आई है। इसलिए, विश्व रैंकिंग एजेंसियों को भारतीय शिक्षाविदों और शोधकर्ताओं को शामिल करने के लिए गुंजाइश और डेटा सेट का विस्तार करके भारतीय संदर्भ को उचित प्रतिनिधित्व देने की आवश्यकता है। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोध से नए स्तर तक जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि हमारा प्रदर्शन आशा के बिलकुल विपरीत रहा है। कहीं-कहीं हमने अच्छा प्रदर्शन भी किया है। विशेषज्ञता के आधार पर भारतीय संस्थानों की विविधता है। जहां आइआइटी और भारतीय विज्ञान संस्थान जैसी भारतीय संस्थाएं, विषय-आधारित रैंकिंग की शीर्ष 100 सूची में लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं, वहीं कुछ भारतीय संस्थानों ने विशेष रैंकिंग जैसे, टाइम्स हायर एजुकेशन (टीएचई) इमर्जिंग इकोनॉमीज यूनिवर्सिटी रैंकिंग, छोटे आकार के लिए रैंकिंग और क्यूएस टॉप फिफ्टी अंडर फिफ्टी, शीर्ष 100 और शीर्ष 150 के तहत खुद को ताकत के साथ स्थापित किया है।
आज के प्रतिस्पर्धात्मक वैश्विक परिवेश में भारत के विश्वविद्यालयों में बुनियादी अनुसंधान को अंगीकृत करने की आवश्यकता है। गुणवत्ता अनुसंधान के लिए आज शोध संस्कृति विकसित करने की खास जरूरत है। सहयोग के माध्यम से प्रत्यक्ष धन और संसाधनों के प्रवाह को आसान बनाने के लिए उद्योग और नवाचार को अनुसंधान गतिविधियों के साथ जुड़े रहने के प्रयासों को बढ़ाने की जरूरत है।
अनुसंधान संस्कृति में सुधार को निर्देशित करने वाली नीतियों के साथ-साथ निवेश को प्राथमिकता देना समय की आवश्यकता है। भारतीय संस्थान को वैश्विक और स्थानीय आर्थिक मांगों को पूरा करने के लिए अपने छात्रों को कौशल और विशेषज्ञता प्रदान करने के लिए अपनी उच्च शिक्षा को फिर से तैयार करने और पुन: नए सिरे से डिजाइन करने की आवश्यकता है। हमें बदलते वैश्विक बाजार की आवश्यकतानुसार भारतीय विद्यार्थियों के कौशल और ज्ञान को स्तरीय बनाना है।
हमें ज्यादा से ज्यादा विदेशी छात्रों को प्रवेश देकर दुनिया भर से अधिक विदेशी संकायों के साथ अंतरराष्ट्रीयकरण पर ध्यान देने की आवश्यकता है। विश्व के शीर्ष संस्थानों, उद्योगों के साथ नवाचार और उद्यमिता को बढ़ाने हेतु विशेष अभियान हमारी रोजगार की चुनौती का मुकाबला कर सकता है। आज की परिस्थितियों में विदेशी और भारतीय संस्थानों के बीच सहयोग को ट्विनिंग कार्यक्रमों के लिए सुविधाजनक बनाकर शिक्षण और अनुसंधान में अधिक सहयोग की आवश्यकता है। विभिन्न देशों में स्नातक पाठ्यक्रम, समय सीमा अलग हो सकती है लेकिन अधिक से अधिक देशों के साथ हम पारस्परिक मान्यता प्रदान करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।
भारत में कम खर्चीली, उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा बहुत आकर्षक है। ऐसी स्थिति में दक्षिण में सहयोग बढ़ाने की अपार संभावना है। विश्वविद्यालयों को भी आपसी सहमति पत्रों (एमओयू) पर हस्ताक्षर करने की आवश्यकता है। विशेषकर प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के साथ सहयोगात्मक प्रयास न केवल शिक्षण और सीखने तक सीमित रहना चाहिए, बल्कि उनकी सर्वोत्तम प्रथाओं को प्राप्त करने के लिए समग्र विकास पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। कई बार हमको लगता है कि हम दूसरों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण हैं, बेहतर हैं। ऐसे में, दूसरों को महत्वपूर्ण कार्यों से बाहर करने की प्रवृत्ति विकसित होती है। कुछ लोगों को सहयोग से खतरा महसूस होता है। वे स्पष्ट रूप से महसूस करते हैं कि यदि वे दूसरों के साथ काम करते हैं, तो उनसे श्रेय छीन लिया जाएगा। लेकिन मेरा यह व्यक्तिगत अनुभव है कि यह कभी सच नहीं रहा। मैं हमेशा मानता हूं कि जो व्यक्ति सहयोग के लिए तैयार नहीं है वह असुरक्षित है। क्योंकि जब कोई शैक्षिक संस्थान सफल होता है तो पूरा शैक्षिक तंत्र जीतता है, भारत जीतता है। हो सकता है कि कई जगह सभी स्टार बनना चाहते हों, पर यह संकीर्णतावादी मानसिकता शोध संस्कृतियों के विकास के लिए रुकावट है। सहयोग आपके समग्र विकास को सुनिश्चित करता है।
भारत और विदेशों में शीर्ष विश्वविद्यालयों के बीच रणनीतिक साझेदारी का उपयोग अनुसंधान का विस्तार किए जाने से दोतरफा सहायता का लाभ होगा। संयुक्त अनुसंधान के वित्तपोषण के हिस्से के रूप में प्रतिभाशाली शोध छात्रों और पोस्ट-डॉक्टरल फेलो की आवाजाही परियोजनाएं इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
मुझे इस बात की खुशी है कि सहयोगात्मक अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए दिल्ली के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) ने औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की पांच राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के साथ करार किया है। समझौते के तहत आइआइटी दिल्ली सहयोगात्मक अनुसंधान, विचारों के आदान-प्रदान, ज्ञान के विकास, उच्च गुणवत्ता वाले अनुसंधान को बढ़ावा देने की योजना बना रहा है, जिसमें लगभग 60 बहुविषयक अनुसंधान परियोजनाओं को शुरू करने की योजना है। इसी क्रम में 6 माह पूर्व स्ट्राइड (भारत की विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए ट्रांस-अनुशासनात्मक अनुसंधान के लिए योजना) के रूप में एक नई पहल की घोषणा की, जो कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अनुसंधान संस्कृति और नवाचार को मजबूत करेगी और छात्रों और शिक्षकों को भारत की विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए योगदान देने में मदद करेगी। मुझे इस बात का संतोष है कि 33 साल बाद विश्व के सबसे बड़े विमर्श के बाद जिस शिक्षा नीति को हम ला रहे है वह न केवल अंतरराष्ट्रीयकरण को बढ़ावा देगी, बल्कि छात्र और संकाय गतिशीलता को सुविधाजनक बनाकर, अनुसंधान के लिए अंतरराष्ट्रीय भागीदारी सुनिश्चित कर उच्च शिक्षा कार्यक्रमों की सीमा पार मान्यता प्रक्रिया को आसान और व्यावहारिक बनाएगी।
निर्बाध टीम सहयोग न केवल संस्थान की उत्पादकता बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि कर्मचारियों की खुशी के लिए भी महत्वपूर्ण है। हमारी दुनिया के सामने आज की सबसे जटिल चुनौतियां हैं- जिसमें ऊर्जा संकट, खाद्यान संकट, जलवायु परिवर्तन, संसाधन की कमी और पारिस्थितिक तंत्र का नुकसान शामिल है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज का कुशल सक्षम नेतृत्व सहयोग को सफलता की जीत का सूत्र मानता है। तेजी से बदलते वैश्विक परिवेश में जब कनेक्टिविटी बढ़ रही है, दुनिया छोटी से छोटी होती जा रही है। ऐसे में, टीमवर्क को संगठनात्मक सफलता की कुंजी के रूप में देखा जाने लगा है। आज का कार्यबल पहले से कहीं अधिक सहयोग पर विश्वास करता है। अध्ययनों से पता चलता है कि विश्वविद्यालयों ने जहां-जहां सहयोग किया, वहां-वहां अधिक सकारात्मक परिणाम मिले हैं।
शोध अनुसंधान को अगले स्तर तक ले जाने हेतु यह आवश्यक है कि हम सभी अलग-अलग विषयों के बारे में अलग-अलग तरीके से सोचें। अलग-अलग लक्ष्य या रणनीति सृजित करने हेतु हमें मिलकर काम करना होगा। इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि हम विचारों के बारे में सोचें, परिणाम के बारे में नहीं। स्वयं निर्णय लेने के बजाय सीखने के बारे में सोचें, परस्पर संवाद हेतु हर माध्यम से जुड़े रहें। हमें याद रखना होगा कि कोई भी भागीदारी प्रतिबद्धता के बगैर नहीं हो सकती। सहयोग का सबसे बड़ा पुरस्कार यह होता है कि हमें यह नहीं पता चलता कि परिणाम क्या होगा, टीम की नवाचारयुक्त सृजनात्मकता बड़े-बड़े लक्ष्य हासिल कर सकती है।
विश्व परिदृश्य पर नजर डालें तो पाएंगे कि अकादमिक अनुसंधान अधिक अंतरराष्ट्रीय होता जा रहा है। चाहे वह विशेष उपकरणों तक पहुंच प्राप्त करना हो, नए विचार विकसित करना हो या धन के नए स्रोतों की खोज करना हो। शोधकर्ता दुनिया भर के अपने सहयोगियों तक पहुंच रहे हैं और इससे उनका काम बेहतर से बेहतर होता जा रहा है। हम जानते हैं कि सीमाएं विचारों को नहीं बांध सकतीं। कोई भी देश विचारों के बाजार को नियंत्रित नहीं करता। मेरा मानना है कि शोध, अनुसंधान, प्रयास या संपूर्ण विज्ञान की मुहिम को एक सामूहिक अंतरराष्ट्रीय, वैश्विक प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए, तभी विश्व कल्याण की परिकल्पना साकार हो सकती है।
(लेखक केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री हैं)
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शोध अनुसंधान को अगले स्तर तक ले जाने हेतु यह आवश्यक है कि हम सभी अलग-अलग विषयों के बारे में अलग-अलग तरीके से सोचें