मुंबई की मायानगरी। एक सपनों का शहर... हजारों युवाओं की आखिरी मंजिल, जहां ख्वाब पूरा होने से ज्यादा बिखरते रहे हैं। इसके बावजूद, इसका आकर्षण कम नहीं होता। साल दर साल, मन में अपनी तकदीर तराशने के अरमान संजोये गुमनामों के जत्थे यहां हर रोज पहुंचते रहे हैं। उन्हीं में कोई खुशकिस्मत सिनेमा के रुपहले फलक पर चमकते सितारे के रूप में उभरता है, बिलकुल किसी ब्लॉकबस्टर की पटकथा की तरह। कहने को तो देश में कई फिल्मोद्योग बरसों से फल-फूल रहे हैं, लेकिन बॉलीवुड का कोई सानी नहीं है। कोई शक? भारतीय सिनेमा के पितामह कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के के मूक फिल्मों के जमाने से ही ‘बंबई नगरिया’ और हिंदी चित्रपट की सुनहरी दुनिया एक दूसरे का पर्याय रही है, जिसकी तुलना शायद गुजरे जमाने के गीतकार चोली-दामन से करते। भले ही मुंबई (जिस नाम से इस महानगर को पिछले 25 वर्षों से जाना जाता है) को देश की आर्थिक राजधानी होने का गौरव प्राप्त है, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी ख्याति मुख्य तौर पर इसकी रंगीन और ग्लैमरस फिल्म इंडस्ट्री की वजह से ही है। अगर वहां की जुबां में कहें, ‘बॉम्बे बोले तो बॉलीवुड!’
लेकिन क्या मुंबई का हिंदी सिनेमा पर एकाधिकार खत्म होने वाला है? क्या आने वाले दिनों में दशकों से जमे यहां के सपनों के सौदागर अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर किसी नई मायानगरी के लिए कूच करेंगे, जहां उन्हें शूटिंग के लिए उपयुक्त, अत्याधुनिक सुविधाओं के साथ लुभावने पैकेज भी मिलेंगे? ‘मैक्सिमम सिटी’ के रूप में विख्यात इस नायाब महानगर ने हिंदी सिनेमा को सौ साल से अधिक तक सींचा है, देश के कोने-कोने से आई अद्भुत प्रतिभाओं को छत और शोहरत प्रदान किया और बॉलीवुड की लोकप्रियता को अटलांटिक महासागर के दोनों किनारों तक पहुंचाया है। लेकिन अब इसका क्या कोई नया विकल्प आने वाला है? क्या बंबई अब उसकी जान नहीं रहेगी?
ग्रेटर नोएडा के सेक्टर-21 में बनने वाली फिल्म सिटी का मुआयना करते अधिकारी
ऐसे सवाल उठने लाजिमी हैं, क्योंकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने गृह राज्य में एक सर्वसाधन-संपन्न फिल्म सिटी स्थापित करने की बीड़ा उठाया है। दावा है कि योगी सरकार देश की राजधानी दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा के सेक्टर-21 में 1,000 एकड़ में फैले ऐसे अति-आधुनिक, विश्वस्तरीय परिसर का निर्माण करने जा रही है, जैसा देश में अन्यत्र नहीं। आमची मुंबई में भी नहीं!
इस महीने की शुरुआत में जब मुख्यमंत्री आदित्यनाथ निवेशकों से मिलने मुंबई पहुंचे और अपने प्रवास के दौरान इसकी घोषणा की, तो महराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार हतप्रभ रह गई। कयास ये लगाये जाने लगे कि शायद आदित्यनाथ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को समूल नोएडा ले जाने की मंशा रखते हैं। जाहिर है, उद्धव को यह नागवार गुजरा। उन्होंने बगैर आदित्यनाथ का नाम लिए कहा कि महाराष्ट्र जैसे ‘चुंबकीय प्रदेश’ से कोई भी उद्योग बाहर नहीं जाएगा, बल्कि अन्य राज्यों के उद्योगपति महाराष्ट्र में उद्योग लगाने आएंगे। उन्होंने जोर देकर कहा, “राज्य के उद्योग राज्य में ही रहेंगे। आज भी आपसे मिलने कुछ लोग आएंगे और कहेंगे हमारे यहां आ जाओ ... कंपटीशन होना अच्छी बात है, लेकिन चिल्लाकर, धमकाकर कोई लेकर जाना चाहेगा तो मैं वह होने नहीं दूंगा।”
संदेश आदित्यनाथ के लिए ही था, जो उस दिन कई फिल्मी हस्तियों के साथ वहां के उद्योगपतियों से मिलने वाले थे। आदित्यनाथ अपनी यात्रा के दौरान सुपरस्टार अक्षय कुमार सहित बॉलीवुड की कई मशहूर हस्तियों से मिले, जिससे राजनीतिक और फिल्मी हलकों में यह चर्चा आम हो गई कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अब मुंबई की जगह अपने गृह राज्य को हिंदी सिनेमा का केंद्र बनाना चाहते हैं। आदित्यनाथ ने हालांकि ऐसे अनुमानों को यह कहकर तुरंत खारिज किया कि यह कोई बटुआ नहीं है, जिसे छीना जा सके। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि “यह खुली प्रतिस्पर्धा है। जो ज्यादा सुरक्षा दे सके, अच्छा माहौल दे सके, जहां हर कोई काम कर सके। मुंबई फिल्म सिटी मुंबई में काम करेगी, उत्तर प्रदेश में नई फिल्म सिटी काम करेगी।”
इसके बावजूद, बॉलीवुड में कई लोगों को लगा कि आदित्यनाथ की फिल्म सिटी बनाने की घोषणा महज राजनीतिक स्टंट है, जैसा पूर्व में कई प्रदेशों के हुक्मरानों ने किया है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने तो उन्हें अभिनय और मुंबई भ्रमण छोड़कर प्रदेश संभालने की नसीहत दे डाली। उन्होंने ट्वीट कर मुख्यमंत्री पर तंज किया, “बहुरंगी और बड़े मानसिक क्षितिज की उम्मीद रखने वाली फिल्म इंडस्ट्री आज की एकरंगी व संकीर्ण सोच वाली सत्ता के रहते कभी विकसित नहीं हो सकती। कल को ये लोग फिल्म के विषय, भाषा, पहनावे और दृश्यों के फिल्मांकन पर भी अपनी पाबंदियां लगाएंगे। मान्यवर अभिनय और भ्रमण छोड़ प्रदेश संभालें!”
लेकिन, मुंबई से लखनऊ लौटने के महज पंद्रह दिनों के अंदर आदित्यनाथ ने जाहिर कर दिया कि वे ‘खुली प्रतिस्पर्धा’ के प्रति कितने संजीदा हैं। 15 दिसंबर को निर्माणाधीन जेवर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से सिर्फ छह किलोमीटर दूर एक अति-महत्वाकांक्षी फिल्म सिटी के निर्माण की दिशा में उनकी सरकार ने महत्वपूर्ण निर्णय लिया।
सरकार ने यमुना एक्सप्रेस-वे औद्योगिक विकास प्रधिकरण के माध्यम से प्रस्तावित फिल्म सिटी के निर्माण की विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) बनाने हेतु अमेरिकी कंपनी मेसर्स सीबीआरई साउथ एशिया प्राइवेट लिमिटेड का चयन कर लिया। फार्च्यून 500 में शामिल इस कंपनी को 14 फरवरी 2021 तक इसे तैयार करने की जिम्मेदारी मिली है। इसके अलावा तीन अन्य चयनित कंपनियों- एनडीएस आर्ट वर्ल्ड प्राइवेट लिमिटेड, सीपी कुकरेजा आर्किटेक्ट्स और एजिस इंडिया कंसल्टिंग इंजीनियर्स प्राइवेट लिमिटेड भी दावेदारों में थी, लेकिन यह निविदा सीबीआरई को मिली। इसे अब भारत सहित दुनिया की सभी फिल्म सिटी के अध्ययन और उनकी सबसे अच्छी चीजों का समावेश करके फिल्म सिटी का प्रोजेक्ट रिपोर्ट को तैयार करना है।
उप्र में बनने वाली फिल्म सिटी की रूपरेखा
यह फिल्म सिटी 1,000 एकड़ में बसाये जाने की योजना है, जिसमें 780 एकड़ जमीन औद्योगिक उपयोग के लिए और शेष व्यावसायिक उपयोग में लाने की योजना है। इस योजना से जुड़े सूत्रों के अनुसार, अगर सब कुछ तय कार्यक्रम के अनुसार होता रहा तो 2022 में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के वर्तमान कार्यकाल के समाप्त होने के पूर्व वहां ‘लाइट्स, कैमरा, एक्शन’ की गूंज सुनाई दे सकती है। लेकिन क्या यह सब इतने कम समय में पूरा हो जाएगा? प्रदेश के संस्कृति और पर्यटन मंत्री नीलकंठ तिवारी का मानना है कि यह बिलकुल संभव है। तिवारी आउटलुक से कहते हैं, “इस फिल्म सिटी में 2022 तक ऐसी व्यवस्था जरूर हो जाएगी कि फिल्म बन सके। प्रदेश में योगी जी के नेतृत्व में सबसे आगे रहने की सोच है और अभी फिल्म सिटी के शुरुआत हुई है। काम पूरा होने में जरूर समय लगेगा लेकिन 2022 से काम जरूर शुरू हो जाएगा।’’ (देखें इंटरव्यू)
आदित्यनाथ के विरोधी इसे अगले विधानसभा चुनाव के पूर्व उत्तर प्रदेश के विकास पुरुष के रूप में अपनी छवि पेश करने की कवायद मात्र समझ रहे हैं, लेकिन मुख्यमंत्री का मानना है कि इससे न सिर्फ बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन होगा बल्कि इससे देश और प्रदेश की नई पहचान बनेगी। इसके अलावा, फिल्म निर्माताओं को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के नजदीक एक ‘वन-स्टॉप डेस्टिनेशन’ वाला बेहतरीन विकल्प उपलब्ध होगा। इस फिल्म सिटी में फिल्म निर्माण की सारी आधुनिक सहूलियतें होंगी, जो बड़े स्केल वाली फिल्मों के निर्माण के लिए जरूरी होती हैं। इसके अतिरिक्त, वहां फिल्म म्यूजियम और फिल्म विश्वविद्यालय जैसी अनेक सुविधाएं उपलब्ध होंगी। (देखें बॉक्स)
तिवारी कहते हैं कि भले ही मुंबई को मायानगरी बोला जाता हो लेकिन, सिनेमा की बड़े पैमाने पर शूटिंग अरसे से उत्तर प्रदेश में होती रही है। वे कहते हैं, “प्रदेश में फिल्म सिटी बनने के बाद यह इंडस्ट्री से जुड़े लोगों के लिए आसान हो जाएगा।”
योगी सरकार की फिल्म सिटी बनाने की योजना का स्वागत कई बॉलीवुड हस्तियों ने की है। मृत्युदंड, गंगाजल, दामुल और राजनीति जैसी फिल्में बनाने वाले निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री के लिए जो माहौल बन रहा है, वह प्रोत्साहित करने वाला है। उन्होंने लखनऊ में पिछले दिनों मुख्यमंत्री से मुलाकात के बाद कहा, “यहां बड़ा भविष्य हो सकता है। हम इसका समर्थन करेंगे, मैं इसमें ढेरों अवसर देखता हूं।” (देखें इंटरव्यू)
फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री को लगता है कि आदित्यनाथ के इस निर्णय का फिल्म इंडस्ट्री पर दूरगामी परिणाम होगा। वे कहते हैं, “इस तरह की अवधारणा बन गई थी कि मुंबई का मतलब ही हिंदी फिल्म इंडस्ट्री है। हिंदी भाषी टैलेंट कहीं-न-कहीं पीछे छूट रहा था, जो उस संस्कृति को समझता है, जो उस मिट्टी में ही पला-बढ़ा है, उसे नजरअंदाज किया जा रहा था। यूपी में इस इंडस्ट्री को प्रोत्साहन मिलता है तो इसे हम खत्म कर सकते हैं।”
अमिताभ बच्चन और नवाजुद्दीन सिद्दिकी उप्र से ही हैं, जबकि हेमा मालिनी मथुरा से सांसद हैं
अग्निहोत्री का कहना है कि हिंदी पट्टी में हिंदी फिल्मों को फिल्माया जाता है तो वहां की कहानियां निकलकर परदे पर आएंगी। वे कहते हैं, “बॉलीवुड में इन दिनों मनगढ़ंत कहानियों के आसरे फिल्मों का तानाबाना बुना जा रहा है। अन्य भाषाओं में जिस तरह की जमीन से जुड़ी कहानियां हमें देखने को मिलती हैं, वैसा अब हिंदी में बंद हो गया है।” वे कहते हैं, “पहले हमलोग यूपी आते थे और राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में जाकर शूटिंग करते थे, फिर मुंबई लौट जाते थे। अब शायद हमें उत्तर प्रदेश की फिल्म सिटी में बेहतर सुविधाएं मिलेंगी।”
फिल्म निर्माता अशोक पंडित भी अग्निहोत्री से इत्तेफाक रखते हैं। वे कहते हैं, “मुंबई भले ही भारत में सिनेमा की जन्मभूमि हो, इसकी कर्मभूमि देश में कहीं भी हो सकती है। “हिंदी सिनेमा की शूटिंग शुरू से ही चेन्नै और हैदराबाद जैसे शहरों में होती रही है और आजकल 50 फीसदी से ज्यादा फिल्मों और वेब सीरीज की शूटिंग उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में होती है।”
यह सही है। ऐसा नहीं है कि फिल्म उद्योग सिर्फ मुंबई में विकसित हुआ। श्वेत-श्याम सिनेमा के युग में ही मद्रास की जेमिनी स्टूडियो, प्रसाद स्टूडियो और एवीएम स्टूडियो ने अनेक बड़े बजट की हिंदी फिल्में बनाईं। बाद के वर्षों में ईनाडु समूह के मीडिया बैनर पर रामोजी राव ने हैदराबाद में विश्व की सबसे बड़ी बेहतरीन स्टूडियो बनाई, जहां अनगिनत हिंदी फिल्मों की शूटिंग हुई। अस्सी के दशक में हिंदी सिनेमा के मशहूर अभिनेता जीतेंद्र दक्षिण भारतीय निर्माताओं की फिल्मों में इतने व्यस्त हो गए कि वे बंबई में अपना घर छोड़ कर मद्रास (अब चेन्नै) में ही रहने लगे। उस समय जीतेंद्र सहित बॉलीवुड का हर सितारा वहां की फिल्मों में काम करता था, जो अधिकतर तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम फिल्मों की रीमेक हुआ करती थीं। उसी दौरान रजनीकांत और कमल हासन जैसे दक्षिण भारतीय सुपरस्टार का बॉलीवुड में पदार्पण हुआ। नब्बे के दशक में मलयालम सिनेमा के सुपरस्टार मामूटी समेत कई ऐसे अभिनेताओं ने हिंदी सिनेमा में पदार्पण किया, जिनका बॉलीवुड से पहले कोई वास्ता नहीं था। और तो और, नब्बे के दशक में मिठुन चक्रवर्ती मुंबई छोड़कर स्थायी रूप से तमिलनाडु के ऊटी में रहने चले गए, जहां उन्होंने कई कम बजट की फिल्में बनाकर वहां वन-मैन फिल्म इंडस्ट्री की नींव डाली।
उन दिनों बॉलीवुड के निर्माताओं के दक्षिण भारत की फिल्म सिटी या स्टूडियो में काम करने पर कोई विवाद नहीं हुआ, न ही इस पर सवाल खड़े हुए कि इतनी बड़ी संख्या में हिंदी फिल्मों की शूटिंग मुंबई से बाहर दक्षिण भारत की फिल्म स्टूडियो या लोकेशन पर क्यों हो रही है? मुंबई हर दौर में हिंदी सिनेमा का मुख्य केंद्र बनी रही, जहां हिंदी और मराठी के अलावा उत्तर भारत की अधिकतर भाषाओं की फिल्में बनती रहीं। अगर कोलकाता स्थित मूल रूप से बांग्ला भाषा की फिल्म इंडस्ट्री को छोड़ दें, तो पूरे उत्तर भारत में भोजपुरी जैसी आंचलिक भाषाओं की फिल्मों का अपना कोई फिल्म उद्योग न था। डबिंग से लेकर साउंड रिकॉर्डिंग तक, फिल्म निर्माण संबंधी हर छोटे-छोटे काम के लिए निर्माताओं को मुंबई जाना पड़ता था, जिससे उनकी फिल्मों का बजट काफी बढ़ जाता था। नई शताब्दी की शुरुआत में जब मनोज तिवारी, रवि किशन और दिनेश लाल निरहुआ जैसे कलाकारों के उदय के साथ वर्षों से बंद पड़े भोजपुरी फिल्म उद्योग का पुनर्जन्म हुआ, तब भी स्थितियां नहीं बदलीं। उनकी फिल्मों की शूटिंग या तो मुंबई के गोरेगांव स्थित फिल्म सिटी में या गुजरात के राजपिपला में होती थीं क्योंकि उन्हें वहां शूटिंग कि सारी सुविधाएं मुहैया करा दी जाती थीं। हिंदी भाषी क्षेत्रों में किसी फिल्म सिटी या शूटिंग के लिए जरूरी सुविधाएं नहीं होने के कारण उन्हें मजबूरन मुंबई की ओर रुख करना पड़ता था। इसकी वजह से आंचलिक फिल्मों का विकास भी नहीं हुआ।
प्रतिभाशाली गायक कैलाश खेर और नामी निर्देशक विशाल भारद्वाज का उप्र से नाता
इसका प्रमुख कारण यह था कि हिंदी भाषी प्रदेशों में फिल्म निर्माण के लिए फिल्म सिटी की स्थापना को कभी तवज्जो नहीं दिया गया। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में दशकों से हिंदी फिल्मों की शूटिंग होती रही, लेकिन तमाम संभावनाओं के बावजूद वहां कभी फिल्म सिटी जैसी आधारभूत संरचनाओं के गठन का कार्य पूरी शिद्दत से नहीं किया गया। अस्सी के दशक में नोएडा सेक्टर-16 में बड़े स्तर की फिल्म सिटी बनाने की योजना जरूर बनी थी और उसके लिए जमीन भी आवंटित की गई, लेकिन बाद के वर्षों में वह महज मीडिया सिटी के रूप में परिणत हो गया।
वर्ष 2015 में समाजवादी पार्टी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सरकार ने एक नहीं, दो-दो फिल्म सिटी –एक लखनऊ के पास, दूसरा उन्नाव में-बनाने की महत्वाकांक्षी योजनाएं बनायीं, लेकिन वे भी मूर्त रूप नहीं ले सकीं। अखिलेश अब योगी सरकार पर उनकी योजनाओं का श्रेय लेने का आरोप लगा रहे हैं। उन्होंने कहा, “अब सपा काल की ‘फिल्म सिटी’ का श्रेय लेने के लिए प्रदेश की भाजपा सरकार कैंची लेकर फीता काटने को तैयार खड़ी है पर अब न तो उनके अभिनेता का अभिनय काम आ रहा है, न ही कोई डायलॉग, उनकी फ्लाप पिक्चर उतरने वाली है क्योंकि प्रदेश की असली तस्वीर बनाने वालों की एडवांस बुकिंग हो गई है।”
लेकिन अशोक पंडित कहते हैं कि इतने कम समय में इस योजना को अमलीजामा पहनना मुख्यमंत्री योगी की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। वे कहते हैं, “एक जगह सारी चीजें हमें मिलती हैं तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है और इससे बजट में भी कमी आती है। ऐसी फिल्म सिटी तो हर राज्य में होनी चाहिए। नई जगह पर नई रचनात्मकता देखने को मिलती है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मुंबई से इतर इंडस्ट्री की तलाश को लेकर हम जैसे लोग कितने उत्साहित हैं।”
पंडित का मानना है के यूपी में फिल्म सिटी स्थापित होने से क्षेत्रीय फिल्म इंडस्ट्री को भी काफी फायदा मिलेगा। वे कहते हैं, “भोजपुरी फिल्म का अपना अलग मार्केट है, जिसे इस प्रोजेक्ट के बाद काफी बढ़ावा मिलेगा। अभी यहीं के लोग जाकर मुंबई में काम करते हैं। अब स्थानीय लोगों को और अधिक काम मिलेगा, क्योंकि मुंबई इंडस्ट्री में भी यहीं के लोग बढ़ई से लेकर टेक्निशियन और सेट डिजाइनर के तौर पर काम करते हैं। उन्हें अब यहीं मौका मिलेगा तो वहां जाना क्यों मंजूर करेंगे।”
लेकिन सवाल यह है कि प्रतिस्पर्धा के इस दौर में क्या मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की इस पहल से बॉलीवुड का जादू धीरे-धीरे उतरने लगेगा? 1937 में गठित फिल्म निर्माताओं की सबसे पुरानी संस्था इंडियन मोशन पिक्चर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन (इम्पा) का मानना है कि मुंबई एक जीवंत शहर है और यहां का बेहतरीन मौसम सालों भर शूटिंग के लिए उपयुक्त है। इसके अनुसार, सिर्फ समुद्र के किनारे बसे मुंबई, चेन्नै, हैदराबाद, केरल, कोलकाता जैसे शहर या राज्य ही शूटिंग के लिए उपयुक्त हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में गर्मी के दिनों में भीषण गर्मी और सर्दी के दिनों में भीषण सर्दी का मौसम होता है, जो शूटिंग की निरंतरता (कॉन्टीन्यूटी) के हिसाब से बिल्कुल उपयुक्त नहीं है।
आदित्यनाथ की मुंबई यात्रा से उपजे विवाद पर इम्पा के अध्यक्ष टी.पी. अग्रवाल ने उद्धव ठाकरे को एक पत्र लिखकर कहा कि महाराष्ट्र फिल्म इंडस्ट्री का जन्मस्थान है, जो अन्यत्र नहीं जाएगी, लेकिन साथ ही उन्होंने उम्मीद जताई कि राज्य सरकार लॉकडाउन के बाद पैदा हुई स्थिति में बॉलीवुड को संकट की स्थिति से उबरने में मदद करेगी।
इम्पा की मांग है कि अब तक महाराष्ट्र में जो सब्सिडी और मनोरंजन कर में छूट मराठी फिल्मों को मिलती रही है, उसे सभी हिंदी फिल्मों को भी दिया जाए क्योंकि यूपी जैसे राज्य निर्माताओं को अपने यहां शूटिंग करने पर कई छूट दे रहे हैं। उन्हें यह छूट ब्रिटेन, मॉरीसस और कई अन्य देशों में शूटिंग करने पर भी मिलती है। निर्माताओं की यह भी मांग है कि महाराष्ट्र में शूटिंग कम से कम शर्तों पर बिना किसी शुल्क के हो, जैसा दक्षिण भारत और कई देशों में होता हैं। मुंबई की फिल्म सिटी में भी वे हिंदी सिनेमा के लिए 25 फीसदी की छूट चाहते हैं।
अग्रवाल ने अपने पत्र में उद्धव का ध्यान इस बात पर भी दिलाया कि महाराष्ट्र में कई राजनैतिक दलों की फिल्म यूनियन हैं, जो अक्सर फिल्म शूटिंग में व्यवधान डालते हैं, जिसके कारण कई निर्माता राज्य के बाहर शूटिंग करने चले जाते हैं। उन्होंने कहा, “सरकार को निर्माताओं को तंग करने वाली गैर-कानूनी संस्थाओं के खिलाफ कठोर कदम उठाये जाने चाहिए।”
उन्होंने स्पष्ट किया कि अगर महाराष्ट्र में फिल्म निर्माण के लिए समुचित माहौल बनेगा तो कोई निर्माता मुंबई छोड़ कर नहीं जायेगा। वे कहते हैं, “अगर ऐसा होता है तो हमारे सदस्य अन्य राज्यों में मिलने वाली सुविधाओं का लाभ तो उठाएंगे लेकिन मुंबई उनका बेस बना रहेगा।”
दरअसल, मुंबई में शिवसेना और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना जैसी कई राजनीतिक दलों के कला, संस्कृति और चित्रपट संकायों से जुड़े कार्यकर्ताओं के साथ-साथ करणी सेना जैसे संगठनों पर अक्सर किसी न किसी वजह से फिल्म की शूटिंग में अड़ंगा लगाने, रिलीज रोकने और सिनेमाघरों में तोड़फोड़ करने जैसे आरोप समय-समय पर लगते रहे हैं, जिसके कारण निर्माताओं को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। इंडस्ट्री के जानकारों का मानना है कि अगर मुंबई में निर्माताओं को परिस्थितियां अपने अनुकूल नहीं मिलेंगी तो वे शूटिंग के लिए अन्यत्र चले जाने से गुरेज नहीं करेंगे, क्योंकि फिल्में बनाना एक विशुद्ध व्यवसाय ही है।
बॉलीवुड के लिए हालांकि ऐसी समस्याएं नई नहीं हैं। अस्सी का दशक आते-आते फिल्म निर्माण का स्वरूप बदलने लगा था। नब्बे के दशक में दाऊद इब्राहीम से लेकर अबू सलेम जैसे अंडरवर्ल्ड डॉन ने इंडस्ट्री में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। कई दशक तक माफिया सरगनाओं का मुंबइया मायानगरी में बोलबाला था। उसकी वजह से कई अपहरण, फिरौती और हत्या की घटनाएं भी हुईं। इस मामले में टी-सीरीज के गुलशन कुमार की हत्या गौरतलब है, जिसमें कई लोगों के नाम सामने आए आए। माफियाओं का दबदबा ऐसा था कि कई फिल्में सरगनाओं पर बनीं। हालांकि नब्बे के दशक के बाद माफिया सरगनाओं का दबदबा छंटने लगा।
नई सदी में बड़े कॉर्पोरेट स्टूडियो का फिल्म व्यवसाय में प्रवेश हुआ, जिसके कारण छोटे निर्माताओं के लिए फिल्में बनाना कठिन हो गया। सिंगल-स्क्रीन थिएटर बंद होने लगे और मल्टीप्लेक्स में सिर्फ बड़े स्टारों कि फिल्मों का प्रदर्शन होने लगा। कुछ बड़े निर्माताओं का एकछत्र राज्य स्थापित हो गया और इंडस्ट्री विभिन्न लॉबी में बंट गई, जिसके कारण अनेक अभिनेता और तकनीशियन अपनी प्रतिभा के अनुरूप मौके पाने से वंचित हो गए।
इस वर्ष अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की दुखद परिस्थिति में मौत के बाद बॉलीवुड पर भाई-भतीजावाद के आरोप भी लगे। ऐसे आरोप नए बिलकुल नहीं थे, लेकिन उस इंडस्ट्री के लिए जिसके सितारों के लिए लाखों प्रसंशक पलकें बिछाये रखते थे, यह उसकी धूमिल होती आभा का आभाष दे गया।
आदित्यनाथ की फिल्म सिटी भले ही बॉलीवुड की जन्मस्थली मुंबई को हिंदी सिनेमा के केंद्र के रूप में डिगा न सके, लेकिन देश के एक बड़े भू-भाग, हिंदी पट्टी में सिनेमा उद्योग के विकास को निश्चित ही एक नयी रफ्तार देगी। यह बॉलीवुड का ही विस्तार होगा, न कि उसका प्रतिद्वंद्वी। हालांकि यह कोई नहीं चाहेगा कि यह किसी तरह की सियासी टकराहट का मंजर साबित हो। दोनों ही इंडस्ट्री फले-फूले तो निश्चित रूप से और संभावनाएं बनेंगी। यह बात सभी राजनैतिक नेताओं को सोचनी चाहिए और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी यही कहते लग रहे हैं।
(साथ में अलोक पांडेय, भारत सिंह और नीरज झा के इनपुट)
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एक नजर में यूपी की फिल्म सिटी
फिल्म सिटी योगी आदित्यनाथ के लिए एक ड्रीम प्रोजेक्ट जैसा है। यह कैसी होगी और इसे बनाने में कितना खर्च होगा, इन सबकी एक विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाई जा रही है। हाल ही में मुख्यमंत्री के सामने फिल्म सिटी पर एक प्रस्तुतिकरण पेश किया गया।
अब तक की योजना के अनुसार इस डेडीकेटेड इन्फोटेनमेंट फिल्म सिटी जोन में फिल्म स्टूडियो के अतिरिक्त सिनेमा और टीवी के लिए रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट, ओटीटी इंडस्ट्री, डिजिटल प्रोडक्शन और सिनेमा हब जैसी तमाम इकाइयां बनाई जाएंगी।
यहां स्टेट आफ आर्ट स्टूडियो, प्री-प्रोडक्शन और पोस्ट-प्रोडक्शन सुविधाएं होंगी। स्पेशल इफेक्टस स्टूडियो बनेंगे।
एक हेलीपैड भी बनाया जाएगा, जहां छोटे-बड़े हेलीकाप्टर लैंड कर सकेंगे।
फिल्म, टेलीविजन कार्यक्रम, रेडियो कार्यक्रम, विज्ञापन, ऑडियो रिकार्डिंग, फोटोग्राफी और डिजिटल आर्ट की सुविधा होगी। मेकअप रूम, स्टोर रूम भी होंगे।
मंदिर, चर्च, गुरुद्वारा, बस स्टॉप, एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन, झरने, बाग, पुलिस स्टेशन, जेल, अदालत, चाल, अस्पताल, पेट्रोल पंप, दुकानें, शहर गांव के सेट आदि बनेंगे।
विश्वस्तरीय बालीवुड संग्रहालय भी होगा जिसमें भारतीय सिनेमा के विस्तृत आयाम को शोकेस किया जाएगा। दुर्लभ और विशिष्ट फिल्मों का संग्रह और प्रदर्शन होगा। साथ ही फिल्म निर्माण प्रक्रिया और प्रसिद्ध स्टूडियो को प्रदर्शित किया जाएगा।
निर्देशन, स्क्रिप्ट राइटिंग, सिनमाटोग्राफी, एनिमेशन, साउंड रिकार्डिंग, एडटिंग और प्रोडक्श्न डिजाइन के पाठ्यक्रम संचालित होंगे।
रिटेल, फूड कोर्ट, एम्फीथियेटर, दर्शक गैलरी, रेस्ट रूम, मल्टीलेवल पार्किंग भी होंगे।
पांच सितारा सहित विभिन्न श्रेणियों के होटल बनेंगे। कन्वेशन हाल, डारमेटरी भी बनेगी। क्लब हाउस बनेंगे।
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बिहार की पटकथा
बिहार में फिल्म सिटी के निर्माण की मांग वैसे तो लंबे समय से रही है, लेकिन किसी सरकार ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई। अस्सी के दशक में भोजपुरी फिल्मों के सभी प्री और पोस्ट-प्रोडक्शन कार्य बंबई में ही होते थे, क्योंकि पटना या पूर्वांचल के किसी शहर में डबिंग तक के लिए भी कोई अच्छा स्टूडियो मौजूद न था। जब नई सदी की शुरुआत में भोजपुरी सिनेमा का पुनर्जन्म हुआ और हर वर्ष 100 से अधिक भोजपुरी फिल्में बनने लगीं, जिनमें अमिताभ बच्चन सहित बॉलीवुड के कई शीर्ष अभिनेता काम करने लगे, तो बिहार में एक फिल्म सिटी बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी। नवंबर 2005 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक स्टेट-ऑफ-द-आर्ट फिल्म सिटी बनाने की बात की। बॉलीवुड दिग्गज और तब भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने सरकार के कला और संस्कृति विभाग में राजगीर में फिल्म सिटी बनाने के लिए एक डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट पेश की, लेकिन उनके अनुसार, लालफीताशाही के कारण इस दिशा में कोई प्रगति न हो सकी।
नीतीश कुमार की 2015 में सत्ता में वापसी के बाद बिहार सरकार ने नालंदा जिले के राजगीर में 20 एकड़ ज़मीन पर एक फिल्म सिटी बनाने की घोषणा जरूर की, लेकिन पांच वर्ष बाद भी इसकी शुरुआत नहीं हो सकी है। हालांकि इसके लिए 20 एकड़ जमीन का अधिग्रहण हो गया है। राजगीर में सबसे पहले 1970 में प्रदर्शित जॉनी मेरा नाम फिल्म में देवानंद और हेमामालिनी पर वहां फिल्माया गया एक गाना काफी चर्चित हुआ था। लेकिन, बाद के वर्षों में लगातार बिगड़ती कानून व्यवस्था, बिजली, सड़क और होटल की बदतर हालत के कारण बॉलीवुड तो दूर, भोजपुरी फिल्मों के निर्माता भी बिहार में शूटिंग करने से कतराने थे। शत्रुघ्न सिन्हा ने अपने बैनर के तले बनी हिंदी फिल्म कालका (1982) की धनबाद में और भोजपुरी फिल्म बिहारी बाबू (1985) की शूटिंग मधुबनी में की। बाद में, 1999 में प्रदर्शित मनोज बाजपेई की शूल की भी शूटिंग मोतिहारी में हुई। अर्जुन कपूर की फिल्म हाफ गर्लफ्रेंड (2018) के चंद दृश्य पटना में फिल्माए गए, लेकिन इनकी संख्या उंगली पर गिनी जा सकती है। कला, संस्कृति और युवा मंत्रालय के अनुसार, राजगीर में फिल्म सिटी बनाने का मकसद प्रतिभाओं को मंच देना है। विशेषज्ञों का मानना है कि इसके लिए और उपाय करने होंगे।
गिरिधर झा
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झारखंड में मसीहा की तलाश
अर्जुन मुंडा के मुख्यमंत्री रहते फिल्म सिटी का सपना भी देखा गया, कुछ पहल भी हुई। रघुवर सरकार ने सत्ता संभालने के बाद फिल्म नीति भी बनाई। राजधानी रांची के करीब पतरातू घाटी में फिल्म सिटी की योजना भी बनी मगर बात योजनाओं तक ही रह गई। फिल्म विकास निगम भी ठोस भूमिका नहीं अदा कर पा रहा, इसके अधीन की कमेटियां भी सिमटकर रह गईं। कुछ बड़े कलाकारों को यहां ब्रांड एंबेसेडर के रूप में जोड़ा भी गया मगर वे सब्सिडी तक सिमट कर रह गए। किसी मसीहा की जरूरत है जो फिल्म इंडस्ट्री के सपने को जमीन पर उतार सके।
कोंकणा सेन की अ डेथ इन द गंज, अनुपम खेर की रांची डायरी, ऋषि प्रकाश मिश्र की अजब सिंह की गजब कहानी, बेगम जान, नाचे नागिन गली-गली, रोफा, पंचलाइट अलग कारणों से चर्चा में रही। रघुवर सरकार के दौरान फिल्म सब्सिडी और विकास के लिए 15 करोड़ रुपये जारी हुए थे। मगर प्रभावशाली लोग ही अनुदान का फायदा उठा सके। चार साल के दौरान कोई दो सौ से अधिक फिल्मों के प्रस्ताव आये मगर महज नौ फिल्म ही उपकृत हुए। अनुपम खेर की कमेटी के खत्म होने के बाद कोई दो दर्जन फिल्मों का प्रस्ताव अनुदान के लिए मुख्यमंत्री सचिवालय को बढ़ाया गया मगर प्रस्ताव से आगे बात नहीं बढ़ी। धोनी पर बायोपिक, प्रकाश झा की परीक्षा, लोहरदगा, आक्रांत, फुलमनिया, बेलुरिया, गिलुआ, जुगनी, झारखंड का छैला, गंवार मचयलस हाहाकार, करमा .... यहां के फिल्मों की लंबी फेहरिस्त है। किसी को बड़ा मुकाम मिला तो कोई सिमटकर रह गई।
पिंक, मुल्क और थप्पड़ जैसी फिल्मों से ख्याति पाने वाली तापसी पन्नू ने भी रश्मि राकेट के लिए इसी दिसंबर में रांची में शूटिंग की। जैम्पा (झारखंड मोशन पिक्चोर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन) के अध्यक्ष नंदकिशोर सिंह कहते हैं कि सरकारें फिल्म सिटी को आकार देना चाहती थीं, मगर उसे क्रियान्वित करने वाले पिछड़ गये। करीब पचास दशक से थियेटर और फिल्म से जुड़े रहे रांची विवि के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर डॉ. सुशील अंकन कहते हैं कि संभावनाएं बहुत हैं, लोकेशन के लिए भटकना नहीं पड़ेगा, मौसम अनुकूल है। रांची में थियेटर की परंपरा भी बहुत पुरानी है। 1864 में ही यूनियन क्लब एंड लाइब्रेरी की स्थापना से रंगमंच की यात्रा शुरू हो गई। पद्मश्री से सम्मानित ऋत्विक घटक ने 1958 में फिल्म बनाई थी अजांत्रिक। यानी तब फिल्मी दुनिया के महारथी ने झारखंड में संभावनाएं देखी थीं।
नवीन कुमार मिश्र, रांची
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मध्य प्रदेश में निजी फिल्म सिटी
मध्य प्रदेश में निजी फिल्म सिटी
मध्य प्रदेश में भी फिल्म सिटी बनाने की तैयारी हो रही है लेकिन राज्य सरकार ने नहीं, निजी निवेशकों ने यह मंसूबा बनाया है। राज्य सरकार निवेशकों को आकर्षित करने के लिए कई रियायतें दे रही है। इसी का असर है कि कई निवेशक यहां फिल्म सिटी बनाने पर कुछ गंभीर हुए हैं। मध्य प्रदेश की विविधता भरी खूबसूरती पहले से ही फिल्मकारों को आकर्षित करती रही है लेकिन इस वर्ष इनकी संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है। कोरोना संकट के बाद लॉकडाउन खुलते ही कई फिल्मकारों ने अपनी शूटिंग यहां शुरू कर दी है। इसमें अनुपम खेर, विद्या बालन और भूमि पेंडनेकर जैसे सितारों से सजी फिल्में भी हैं। इतना ही नहीं, नए साल में यहां करीब 30 फिल्मकार अपनी शूटिंग शुरू करने जा रहे हैं।
मध्य प्रदेश की इस साल की शुरुआत में जारी फिल्म पर्यटन नीति की वजह यह सब कुछ हो रहा है। इस नीति में फिल्म सिटी बनाने को लेकर भी विशेष रियायतें दिये जाने की व्यवस्था है, जिसके अंतर्गत नगद सब्सिडी के साथ ही जमीन उपलब्ध कराना शामिल है। नीति में पीपीपी मॉडल पर इसे तैयार किये जाने का प्रावधान है। मध्य प्रदेश पर्यटन बोर्ड ने करीब 1000 एकड़ जमीन की पहचान कर रखी है, जो निवेशकों को फिल्म सिटी बनाने के लिए दी जायेगी। यह जमीन भोपाल, सिहोर, देवास और खजुराहो जैसे शहरों के करीब है। यदि कोई निवेशक फिल्म सिटी, फिल्म स्टूडियो या फिर थीम पार्क बनाना चाहता है तो बोर्ड की ओर से पांच करोड़ रुपये तक की निवेश सब्सिडी दी जायेगी। मध्य प्रदेश पर्यटन बोर्ड के प्रबंध संचालक शिव शेखर शुक्ला कहते हैं कि राज्य में जिस तरह की विविधता है उससे फिल्मकारों को शूटिंग के लिए हर तरह की लोकेशन है। इन सब को सामने लाने की आवश्यकता थी।
शमशेर सिंह, भोपाल