हाल के दिनों में पंकज जी का एक विज्ञापन टीवी पर दिखा जिसमें वे कहते हैं, “सच..करीब से दिखता है!”
सौभाग्य से मैंने इस अभिनेता और दुर्लभ व्यक्तित्व के करीब जा कर इस सच को महसूस किया है। एक दिन भरी दोपहरी में छांव खोजते हुए मैं पटना में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त सुप्रसिद्ध अभिनेता पंकज त्रिपाठी भैया से मिलने होटल मौर्या पहुंच गया था।
“मेरी यात्रा देखोगे नीलोत्पल?” दुलार से कंधे पर हाथ रख भैया बोले। “हां भैया...” इतना ही तो बोला था मैंने। मुझे कहां पता था कि अभी एक तीर्थ यात्रा पर निकलने वाला हूं।
“जानते हो इसी होटल मौर्या में कभी पिछले दरवाजे से आता था। सीधे किचन में। इतना बोलते हुए वह रिसेप्शन से आगे निकल गए।
“चलो पहले किचन दिखाता हूं तुम्हें, जहां से मेरी जिंदगी सफर पर निकली थी भाई।”
सामने एक दरवाजा था, उसमें एक छोट-सी खिड़की थी जिस पर कांच लगा था। “ये देखो, यहीं दरवाजे के पीछे से पहली बार कोई हीरोइन देखे थे गुरु, देखो यहीं से...वो वहां सामने वर्षा उसगांवकर बैठी खाना खा रही थीं, फिल्म साथी की हीरोइन गुरु।” दरवाजा खोल वह अंदर गए। मैं धीरे से बस पीछे-पीछे चलता रहा।
“ये देखो किचन... यहीं हम काम करते थे। अरे कहां हैं सब? अरे यार चंदन, अरे का हाल भाई? और का उस्ताद? और का हो भैया?”
किचन में एक सुपरस्टार नहीं, एक साथी ही घुसा था।
दोस्तों में दोस्त जैसे
वह साथी जिसके खून में दोस्ती और आत्मीयता रेड ब्लड सेल्स और व्हाइट ब्लड सेल्स से हर हाल में ज्यादा मात्रा में है। कमाल का आदमी, आप यकीन नहीं कर सकते यह राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता है। रसोई में पुराने साथी को नाम से बुला गले मिल रहे थे पंकज त्रिपाठी।
“ए बबुआ पंकज...अरे आवा बबुआ।” यही बोल कर सबसे पहले चहक के यशवंत जी लिपटे। फिर तो सारे साथी। मैंने कृष्ण-सुदामा की बस कहानी पढ़ी थी, नहीं पता था जिंदगी यह दिखा भी देगी। रसोई में जैसे मुहब्बत की रोशनी छितरा गई थी। एक साथी बोला, “याद है पंकज हम लोग इसमें बेकरी बनाते थे?” पंकज भैया उससे लिपट गए।
“देखो ऐ नीलोत्पल, ये सब शेल्फ देख रहे हो, नीबू, विनेगर मार के शेल्फ चमका देते थे।” दुनिया को आज समझ आया होगा, कोई सितारा पॉलिश हो रहा था नीबू की रगड़ से। तभी उन्होंने किसी को दादा बोल पुकारा, “अरे क्या हाल दादा? परमोशन हुआ?” वे दादा किस भाव से मिले, ये महसूस कर रहा हूं, लिख नहीं सकता।
“हम जब निकल के थिएटर चले जाते थे, यही हमारा काम कर देते थे। कहते थे निश्चिन्त हो कर जाओ पंकज।”
मेरा रोम-रोम उस रसोई के आगे झुका था, जिसने राष्ट्रीय स्टार बना के परोस दिया इस बॉलीवुड को। उस रसोई की इस पाक कला को सलाम किया जहां अन्नपूर्णा के मंदिर में सरस्वती का पुत्र बन रहा था।
पंकज भैया बताते हैं कि वह बेकरी सेक्शन में थे। तपती भट्ठी के आगे घंटों खड़े रह कर जलना होता था। पर उस तंदूर को क्या पता था कि ये आदमी जलेगा, झुलसेगा नहीं, तप के सोना हो जाएगा। एक साथी किसी नए लड़के को ले आए, “पंकज भाई, ये लड़का भोजपुरी में गाता है। बढ़िया है। यार इसके लिए देखना न कोई चांस।”
“पहले हमारा नंबर रखो। हमसे बात कर लेना कभी भी।” दिन-रात शूटिंग में व्यस्त रहने वाला अभिनेता अपनी पुरानी रसोई के नए साथी को बिना मांगे अपनी ओर से नंबर दे रहा था। इससे ज्यादा जमीन में जड़ गड़ाया आदमी क्या देखूंगा!
किचन के एक-एक कर्मचारी से बात, उनका हाल...। उनके बेटे-बेटियों की पढ़ाई के बारे में पूछना। मैं सोच रहा था यह आदमी जमीन के नीचे भी जमीन रखता है। “और यार नासिर उस्ताद का क्या हाल?” उन्होंने दोस्त चंदन से पूछा। ऐसे क्रूर समय में जब जरा सी सफलता पर बेटा बाप के बारे में कम सोच पाता है, एक स्टार अपने रसोई उस्ताद को याद कर रहा था। चंदन भाई दोस्त को हाल-ए-हर साथी सुनाते गए।
बीच-बीच में मुंबई से डायरेक्टर का फोन आ रहा था। और यह अभिनेता था कि फोन छोड़ रसोई के साथी की बातें, पुरानी यादें, केक पर कैसे हम लोग डिजाइन बना देते थे की बात किए जा रहा है। मेरे पास एक दिल और होता तो उस लम्हे पर कुर्बान छोड़ आता जिससे फिर कभी और कोई काम न लेता।
दुनिया में कई लोग संघर्ष की जमीन से उठ आसमान पर गए हैं, पर जिंदगी में पहली बार किसी को आसमान से उतर धरती पर लौटते देख रहा था। इतनी ऊंचाई से कौन आता है साब? लोग तो झांकने में थकान महसूस करते हैं और ये अभिनेता कूद के नीचे आता है और अपनी आत्मीयता, सादगी और याराबाशी से बहुत ऊंचे जा स्थापित हो जाता है। इतिहास उसी को ही दर्ज करता है, जो अपने संघर्ष की यात्रा के आरंभिक पड़ाव पर भी अपने पांव की छाप मिटने नहीं देता। इतनी ऊंचाई पर जा अपनी डीह पर शीश रखने आने वाले लोग बहुत कम हैं दुनिया में। ऐसा एक व्यक्ति गोपालगंज के पास है। इस खातिर गांव बेलसंड की धरती को नमन।
पंकज त्रिपाठी पर बस इसलिए दिल मत कुर्बान करिए कि वह शानदार अभिनेता हैं, बल्कि इसलिए दिल लुटा दीजिए कि वह आने वाली पीढ़ियों की फसल के लिए खाद हैं, पानी हैं। जब-जब गांव देहात का युवा हारे, थके अपने संघर्ष में, उन्हें ये चित्र, ये कहानी, ये रसोई की धौंकनी जरूर दिखा दीजिएगा, जिससे उन्हें भरोसा मिले, मेहनत के ताप पर जलते रहो... तप कर निकलोगे।
(डार्क हॉर्स और औघड़ जैसी चर्चित किताब के लेखक। विचार निजी हैं)