Advertisement

महिला पहलवान/यौन उत्पीड़न: ये कौन-सा निजाम है दोस्तो!

महिला पहलवानों का संघर्ष सिर्फ बृजभूषण सिंह के खिलाफ कार्रवाई से नहीं, बल्कि पूरे खेल संघों में आमूलचूल बदलाव, खिलाड़ियों और खेल के प्रति संपूर्ण नजरिया बदलने से पूरा होगा
28 मई को  जंतर मंतर पर साक्षी मलिक को घसीटती पुलिस

यकीन कर पाना आसान नहीं, कुछ उम्रदार लोगों के लिए ही नहीं, दशक भर पहले बहुचर्चित निर्भया कांड की जिन्हें याद हो वे भी शायद दांतों तले उंगली दबा लें, बशर्ते उनमें हैरान होने के कुछ भाव जागृत हों। अव्वल तो यही विवेक को झकझोरने के लिए काफी है कि दुनिया जीतने वाली महिला पहलवानों को अपने और अन्य खिलाड़ियों के साथ भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष (अब पूर्व) तथा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सांसद बृजभूषण सिंह के यौनाचार की शिकायतों पर कार्रवाई की मांग के लिए लगभग आधे वर्ष (अब तक) से सड़क की खाक छाननी पड़ रही है। हालांकि बृजभूषण सिंह इन शिकायतों का साजिश बता रहे हैं। पहलवानों की भी कई मौके पर संघर्ष की हिम्मत जवाब देती दिखती है। लेकिन सरकार और पुलिस समेत समूचे तंत्र का जो हाल है वह तो हर मानवीय गरिमा और लोकशाही को शर्मसार करने को काफी है। यहां तक कि कई लोगों की आंखें क्षुद्र राजनीति झांकने की कोशिश करती दिखती हैं। उनकी संवेदनाएं इसी तराजू पर तौली जाती और मुखर होती दिखती हैं। कई बार लगता है, जैसे गेब्रियल गार्सिया मार्केज के किसी औपन्यासिक जादुई यथार्थ का संसार उतर आया है। जैसे सब पर किसी जादू का मूठ चल गया है। खैर! पहले नंगी आंखों से दिखने वाले कोरे यथार्थ पर नजर डाली जाए। यह जानना जरूरी है कि घटनाक्रम कैसे मोड़ ले रहा है।

विनेश फोगाट

जंतर मंतर पर पहलवान विनेश फोगाट के साथ बदसलूकी

इस साल जनवरी से गुहार लगा रहे पहलवानों की आखिर कथित तौर पर कुछ मध्यस्थ अचानक 3 जून की आधी रात केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से भेंट करवाते हैं। भेंट में क्या हुआ, उसका सिर्फ धुआं-धुआं-सा कयास बाहर आता है क्योंकि कोई मुख खुलता नहीं। अगले एक दिन बाद कयास सुर्खियां बनने लगती हैं कि संघर्षरत पहलवानों ने रेल में अपनी नौकरी ज्वाइन कर ली है और पीछे हट गई हैं। पहलवानों में साक्षी मलिक, विनेश फोगाट, बजरंग पुनिया को ट्वीट करना पड़ता है कि नौकरी ज्वाइन करने का मतलब यह नहीं कि हम इंसाफ की मांग से पीछे हट गए हैं। विनेश लिखती हैं, “इंसाफ के आगे ऐसी नौकरी की क्या बिसात!” अगर समझ सकें तो यह उसी खेल का दोहराया जाना है, जो तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ लगभग सवा साल चले 2020-21 के किसान आंदोलन के दौरान हुआ था।

हम देखेंगेः हरियाणा के कुरुक्षेत्र महापंचायत में राकेश टिकैत

हम देखेंगेः हरियाणा के कुरुक्षेत्र महापंचायत में राकेश टिकैत

वजहें भी वही हैं, जो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले सरकार को माफी मांगने और कृषि कानूनों को वापस लेने पर मजबूर कर गई थीं। कुछेक महीने बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों में विधानसभा और अगले साल लोकसभा चुनाव जो सिर पर हैं। दरअसल पहली दफा जनवरी में दिल्ली के जंतर-मंतर पर आ बैठे पहलवान खेल मंत्री अनुराग ठाकुर के मशहूर मुक्केबाज मेरी कॉम की अगुआई में जांच कमेटी बनाने के आश्वासन पर उठ गए थे, जिसमें पी.टी. उषा भी थीं। लेकिन बात नहीं बनी तो 21 अप्रैल को पहलवानों ने फिर जंतर-मंतर पर डेरा डाल दिया, कनॉट प्लेस थाने में बृजभूषण सिंह के खिलाफ अपनी शिकायतों को लेकर पहुंचीं लेकिन एफआइआर लिखने से इनकार कर दिया गया, जबकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश हैं कि क्षेत्राधिकार से संबंधित न होने पर भी पुलिस को जीरो एफआइआर दर्ज करनी है। आखिर सुप्रीम कोर्ट की ही शरण में दौड़ना पड़ा। 28 अप्रैल को प्रधान न्यायाधीश डी.वाइ. चंद्रचूड़ की पीठ के निर्देश पर कई घंटे बाद दो एफआइआर दर्ज हुईं। छह पहलावानों की शिकायत पर अलग और एक नाबालिग की शिकायत पर पॉक्सो के तहत, जिसमें गैर-जमानती गिरफ्तारी जरूरी है। हालांकि अब खबरें आ रही हैं कि नाबालिग ने अपने आरोप वापस ले लिए हैं।

साक्षी फोगाट

जंतर मंतर पर संगीता फोगाट को घसीटती पुलिस

हालांकि मशहूर वकील कपिल सिब्बल कहते हैं, ‘‘कैसी जांच चल रही है। यौनाचार की घटनाएं सबके सामने होती हैं क्या कि कोई गवाह कहेगा कि हां, मैंने देखा है। फिर, क्या आरोपी गवाहों को डराने-धमकाने या सबूत मिटाने की हैसियत नहीं रखता है। यही तो गिरफ्तारी के आधार होते हैं।’’ एक अंग्रेजी अखबार में छपे एफआइआर में दर्ज और फिर सीआरपीसी की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज बयानों के अंश अगर सही हैं तो पहलवानों ने ऐसे वाकयों का जिक्र किया, जो किसी का सिर भी शर्म से झुकाने को नाकाफी तो रत्ती भर नहीं था। हालांकि ये खबरें भी आ रही हैं कि दोबारा बयान हो रहे हैं।

पुलिसिया रवैया

अहम मोड़ 28 मई को नए संसद भवन के उद्घाटन के दिन आया। उस दिन प्रधानमंत्री ऐलान कर रहे थे कि ‘‘आगे पूछा जाएगा कि क्या किया तो हमने नया संसद भवन बनाया।’’ उधर, बस एक किलोमीटर की दूरी पर नई संसद पर महिला पंचायत बैठाने का ऐलान कर चुके पहलवानों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए घसीटा-पटका जा रहा था। उनका तंबू उखाड़ा जा रहा था। पकड़कर दूर-दूर के थानों में ले जाया गया और रात घिरने के बाद छोड़ा गया। जंतर-मंतर को 144 धारा लगाकर बंद कर दिया गया। यह सब कथित लोकशाही में हो रहा था। पता नहीं कौन-सा अधिकार है कि प्रतिरोध और प्रदर्शनों के लिए तय जंतर-मंतर पर किसी को जाने नहीं दिया गया। आजकल यह भी बिना सवाल के मान लिया या मनवा लिया जाता है कि कहीं जुटने, प्रदर्शन करने के लिए पुलिस की इजाजत चा‌िहए। कायदा तो यह रहा है कि पुलिस को सूचना दी जाती है ताकि वह सुचारु व्यवस्था करे। खैर! इन सवालों से आगे बढ़ते हैं।

लौ जगाने की कोशिशः दिल्ली में कैंडल मार्च

लौ जगाने की कोशिशः दिल्‍ली में कैंडल मार्च

अंतरराष्ट्रीय पदक जीते खिलाड़ियों को लगा कि पानी सिर के ऊपर जा रहा है। उन्होंने तय किया कि अपने ओलंपिक, अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय पदक गंगा में बहा देंगे, जो उनकी जिंदगी के होने का मतलब हैं। बेशक, यह फैसला मुश्किल था।

इससे अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी सहित देश के कई नामधारी खिलाड़ियों ने उनके साथ की गई बदसलूकी की भर्त्सना की और अपील की कि वे कड़ी मेहनत से कमाए पदकों को न बहाएं क्योंकि ये सिर्फ उनके ही नहीं, देश और एक मायने में सारी दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं। अब बृजभूषण प्रेमियों की बातों का जिक्र न ही किया जाए तो अच्छा है। वे कहते रहे कि सरकार ने उन पर जितना खर्च किया, वे क्यों नहीं लौटाते, बृजभूषण ने तो इन पदकों की कीमत 15 रुपये आंकी। अब ऐसे लोगों को कौन कहे कि पदक जीतने वालों ने देश के मान-सम्मान, उसकी सत्ता में जो योगदान किया, उसकी कोई कीमत हो ही नहीं सकती।

सरकार हरकत में आई

पहलवान हरिद्वार पहुंचे तो कई सारे चैनल सक्रिय हुए। कथित तौर पर खासकर पश्चिम उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान वगैरह में भाजपा के नेताओं को भी चिंता सताने लगी। हरियाणा में सांसद वीरेंद्र सिंह और महाराष्ट्र में प्रीतम मुंडे ने खुलकर पहलवानों का समर्थन किया। उधर, भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के अध्यक्ष नरेश टिकैत और खाप पंचायतों के चौधरी हरिद्वार में हर की पौड़ी पर पहुंचे और उनसे पदक मांगकर वादा किया कि उन्हें कुछ समय दें, अब वे उनकी लड़ाई लड़ेंगे। पश्चिम उत्तर प्रदेश के श्योराण में पंचायत बैठी। फिर हरियाणा में कुरुक्षेत्र, सोनीपत वगैरह में बड़ी पंचायतें हुईं। पंचायतें राजस्थान में भी तय हैं। इसी दौरान पांच दिन का अल्टीमेटम खत्म होने के बाद अमित शाह के साथ खिलाड़ियों की बैठक की खबर आई। 6 जून को दिल्ली पुलिस बृजभूषण सिंह के दिल्ली, लखनऊ और गोंडा के घर पर भी पहुंच गई, जो पुलिसिया हरकत के संकेत हैं।  हालांकि अब ये खबरें भी आ रही हैं कि केंद्रीय गृह मंत्री से चुपचाप मुलाकात करने को लेकर खाप पंचायतों के चौधरी नाराज भी हैं।

गंगा की शरणः हरिद्वार में पदक बहाने पहुंचीं महिला पहलवान

गंगा की शरणः हरिद्वार में पदक बहाने पहुंचीं महिला पहलवान

शायद खाप पंचायतों के दिए हुए 9 जून के अल्टीमेटम को देखते हुए भी सरकार अलग तरह से हरकत में आई हो क्योंकि महत्वपूर्ण चुनावों की वेला में महिलाओं की नाराजगी भारी पड़ सकती है। जाति समीकरण की बात करें तो भी शायद बड़े खतरे की आशंका है। एक वर्ग, खासकर बृजभूषण समर्थक इसे जाट-राजपूत की लड़ाई की तरह पेश करते रहे हैं क्योंकि आंदोलनरत पहलवान जाट हैं। अगर इस मद में भी देखें तो जाटों की आबादी पश्चिम उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्‍थान में प्रभावी है, जो तकरीबन 25 संसदीय सीटों पर असर रखती है। उसके मुकाबले उत्तर प्रदेश में बृजभूषण के असर वाले गोंडा, बहराइच के इलाके में राजपूत उसकी भरपाई नहीं कर सकते, जहां चार-पांच सीटें आती हैं और राजपूतों की आबादी भी इतनी बड़ी नहीं है कि बड़ा असर डाल सके।

यह भी देखना जरूरी है कि इन खिलाड़ियों की और बृजभूषण सिंह की सत्ता क्या है, जिससे सरकार इतनी उलझन में है। पहले खिलाड़ियों और पदक की सत्ता (पावर) देखें।

अंतरराष्ट्रीय पदकों की सत्ता

कला, संगीत, साहित्य, खेल वगैरह हमेशा से किसी राज-साम्राज्य के लिए ऐसी सत्ता के प्रतीक रहे हैं जिससे दूसरे राज-साम्राज्य को ऊंचा-नीचा दिखाया जाता रहा है। समाज उन्हें अपना प्रतिनिधि मानकर गौरवान्वित होता है। अपने यहां जिस राजा के दरबार में जितने ऐसे रत्न हुआ करते थे, उसकी सत्ता उतनी मजबूत मानी जाती र‌ही। मौजूदा राष्ट्र-राज्य वाली दुनिया में खेल और खिलाड़ियों की ताकत सॉफ्ट पावर जैसी है। शीतयुद्घ के दौर में और आज भी खेलों की अंतरराष्ट्रीय और ओलंपिक स्पर्धाओं में पदक किसी देश की ताकत के प्रतीक माने जाते हैं। अमेरिका, रूस, चीन, ऑस्ट्रेलिया या यूरोपीय देशों की महाशक्ति की हैसियत इन पदकों से भी व्याख्यायित होती है। इस मामले में ओलंपिक और अंतरराष्ट्रीय पदक लाए खिलाड़ियों की हैसियत बड़े से बड़े जनप्रतिनिधि से ज्यादा बड़ी है। फिर, व्यक्तिगत स्पर्धाओं में पदक जीते खिलाड़ियों की अहमियत और ज्यादा होती है। हमारे देश में 1900 से शुरू होकर अब तक ओलंपिक के 33 पदक हासिल हैं, जिससे दो-तीन गुना ज्यादा पदक महाशक्ति देश एक ही स्पर्धा में पा जाते हैं। इनमें भी व्यक्तिगत स्पर्धाओं में 21 पदकों 9 पदक कुश्ती में आए हैं। इसलिए ओलंपिक कांस्य पाई साक्षी मलिक, ओलंपिक पदक पाए बजरंग पुनिया, विश्व कुश्ती खिताब पाई विनेश फोगाट की हैसियत खास है।

यही नहीं, प्रतिनिधित्व के मामले में भी देखें तो किसी खिलाड़ी को अपने अखाड़े में पहले अव्वल होना होता है, फिर तालुका, जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्पर्धाओं में सबसे ऊंचे पायदान पर पहुंचना होता है। तब उसे एशिया, कॉमनवेल्थ स्पर्धाएं जीतनी होती हैं। उसके बाद उसे अंतरराष्ट्रीय और ओलंपिक स्पर्धाओं में हिस्सा लेने का मौका मिलता है। उसमें भी जीतकर पदक हासिल किए जाते हैं। इसलिए किसी विधायक, सांसद या मंत्री वगैरह से उसे ज्यादा लोगों का प्रतिनिधि माना जा सकता है, जो सिर्फ एक इलाके के प्रतिनिधि होते हैं। फिर, ओलंपिक या अंतरराष्ट्रीय पदक विजेता पूरे देश की चमक बढ़ाते हैं और देशवासियों के लिए नायक की तरह होते हैं।

बृजभूषण की सत्ता

ब्रिजभूषण सिंह

उत्तर प्रदेश के गोंडा से लोकसभा सदस्य बृजभूषण सिंह छह बार सांसद रह चुके हैं और एक बार उनकी पत्नी केतकी सिंह सांसद रह चुकी हैं, जब मुकदमों में सजा की वजह से बृजभूषण चुनाव नहीं लड़ पाए। बृजभूषण रंगीन कैरियर के धनी हैं। उन पर कम से कम 31 आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं, जिनमें हत्या, हत्या की कोशिश से लेकर तमाम संगीन अपराध के आरोप हैं, लेकिन कोई मुकदमा आगे नहीं बढ़ पाया है। शुरू में वे बाबरी मस्जिद विध्वंस करने वाले कारसेवकों में अग्रणी थे और भाजपा नेताओं खासकर अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्‍ण आडवाणी से करीबी रिश्तों के लिए जाने जाते हैं। 1993 में बृजभूषण पर बतौर सांसद अपने मीनाबाग के आवास पर माफिया सरगना दाऊद इब्राहिम के शूटरों को पनाह देने का मुकदमा चला। सीबीआइ ने सबसे सख्त कानून आतंक-रोधी टाडा के तहत मुकदमा दायर किया, लेकिन आखिर में सीबीआइ मुकदमा साबित नहीं कर पाई। तब सत्र न्यायाधीश एस.एन. धींगड़ा ने सीबीआइ पर सख्त टिप्पणी की थी। तब चुनाव में भाजपा ने उनकी पत्नी केतकी सिंह को टिकट दिया और वे जीतीं। बृजभूषण का एक और रंग देखिए। 2004 के लोकसभा चुनाव में उन पर विरोधी सपा उम्मीदवार की हत्या की कोशिश का आरोप लगा, जिसकी जान मुलायम सिंह यादव ने विशेष हेलिकॉटर से दिल्ली भेजकर बचाई थी। बाद में कहते हैं कि मुलायम सिंह की मदद से मुकदमा रफा-दफा हुआ। एक दिलचस्प तथ्य यह है कि 2008 में अमेरिका न्यूक्लियर डील के मामले में यूपीए सरकार के पक्ष में वोट देने वाले वे इकलौते भाजपा सदस्य थे। भाजपा से निष्कासित हुए और सपा के टिकट पर चुनाव लड़े। 2014 में दोबारा भाजपा में आ गए।

तो, इन खिलाड़ियों और बृजभूषण की दो सत्ताओं में किसकी सत्ताधीशों को दरकार है, यह देखना लाजिमी है। इसी से राजनीति की चाल, चरित्र का पता चलता है।

Advertisement
Advertisement
Advertisement