जब तंजानियाई मूल के ब्रिटिश लेखक अब्दुलरज़ाक गुर्नाह को इस साल साहित्य का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा हुई, तो दुनिया ने खोजना शुरू किया कि यह लेखक किस दुनिया से आया है। जल्द ही पता चला कि यह ऐसा लेखक है जिसकी किताबों की बिक्री हिंदी के लेखकों से ज्यादा नहीं होती और जिसे उपन्यासकार से ज्यादा आलोचक के रूप में पहचाना जाता है। पत्रकार जेन फील्डमैन के मुताबिक अमेरिका में उनकी सारी किताबें मिलाकर 3000 से ज्यादा नहीं बिकी हैं।
जाहिर है, गुर्नाह कहीं से नोबेल पुरस्कार की दौड़ में नहीं थे। हर साल की तरह इस साल भी साहित्य के नोबेल के लिए जितने अनुमान लगाए गए थे, उनमें कहीं गुर्नाह का नाम नहीं था। द न्यू रिपब्लिक में कुछ ही दिन पहले अलेक्स शेपर्ड ने तरह-तरह के आधारों पर संभावित नोबेल विजेताओं की कई सूचियां तैयार कीं। यह इतनी बड़ी सूची थी कि इससे कोई नाम छूटने का अंदेशा नहीं था। लेकिन पुरस्कारों की घोषणा के बाद उन्होंने मजाक में लिखा कि इस बार उनका अनुमान बिल्कुल सही साबित हुआ। वह अनुमान क्या था? यही कि उनकी बनाई सभी सूचियों से बाहर के किसी लेखक को यह पुरस्कार मिल सकता है और ऐसे देश के लेखक को मिल सकता है, जिसका नाम उनकी सूची में नहीं है।
गुर्नाह पर लौटें। उनकी मूल भाषा स्वाहिली है। लेकिन 1960 के दशक में तंजानिया में एक फौजी बगावत के बाद शरणार्थी के तौर पर वे ब्रिटेन आ गए और फिर लगातार अंग्रेजी में ही लिखा। उनके उपन्यासों में स्मृति, विस्थापन और उपनिवेशवाद के प्रभावों की गहन चर्चा है। नोबेल समिति ने उनको पुरस्कृत करते हुए कहा कि “संस्कृतियों और महादेशों की खाई में फंसे शरणार्थियों की नियति और उपनिवेशवाद के प्रभावों की कारुणिक और अडिग व्याख्या के लिए उन्हें यह पुरस्कार दिया जा रहा है।”
गुर्नाह केंट यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहे। उन्होंने कई किताबों की भूमिका लिखी है। इनमें वीएस नायपॉल, न्गूगी वा थ्योंगो और सलमान रुश्दी जैसे लेखकों की भूमिका भी शामिल है। कम से कम दो-तीन आधारों पर उनके चयन को लेकर संतोष जताया जा सकता है। अरसे बाद किसी अश्वेत लेखक को यह पुरस्कार मिला है- शायद करीब तीन दशक बाद। उनके पहले 1993 में टॉनी मॉरीसन को नोबेल सम्मान मिला था। अफ्रीकी मूल के किसी लेखक को भी काफी दिन बाद यह सम्मान मिला है।
इस साल नोबेल पुरस्कार ने अपने ऊपर यूरो-केंद्रित और श्वेत वर्चस्व वाले पुरस्कार होने की तोहमत के एक हिस्से को तोड़ने की कोशिश की है। दूसरी बात, नोबेल समिति ने गुर्नाह को पुरस्कृत कर मौजूदा दुनिया में विस्थापन के सांस्कृतिक संकटों की ओर फिर ध्यान खींचा है। संयोग से यह ऐसा समय है जब विस्थापन और शरणार्थी समस्या के राजनीतिक-सांस्कृतिक आयाम बेहद तीखे और त्रासद हैं। खुद गुर्नाह ने कभी कहा था कि जब वे ब्रिटेन आए थे, तब शरण चाहने का अर्थ वह नहीं था, जो अब हो गया है। अब राज्य आतंकवाद से पीड़ित ज्यादा से ज्यादा लोग भाग रहे हैं। हालांकि नोबेल समिति बार-बार ऐसे सामाजिक राजनीतिक कारणों को अपने चयन का आधार बताने से बचती रही है। लेकिन यह सच है कि जाने-अनजाने समकालीन दबावों का जो असर ऐसे निर्णयों पर पड़ता है, वह यहां दिख रहा है।
हालांकि जानकार यह सवाल भी उठा रहे हैं कि अगर अफ्रीकी मूल के किसी अश्वेत लेखक को यह सम्मान दिया जाना था तो वे न्गूगी वा थ्योंगो हो सकते थे जिनका विपुल लेखन अपने-आप में एक आंदोलन है।
नोबेल समिति ने एक काम बेहतर किया है। पिछले कुछ वर्षों में जिस लोकप्रियतावाद के दबाव में वह दिख रही थी उसे बीते दो वर्षों में उसने उतार फेंका है। 2016 में जब डिलेन थॉमस को नोबेल पुरस्कार दिया गया तो यह साहित्य के नोबेल के लिए एक तरह से अवमाननापूर्ण फैसला था। डिलेन थॉमस अपने संगीत के लिए इतने प्रसिद्ध हैं कि नोबेल पुरस्कार उनके लिए मायने नहीं रखता। वे यह पुरस्कार लेने गए भी नहीं। ठीक अगले साल यह पुरस्कार काजुआ इशीगुरु को दिया गया, जिनकी किताबों पर फिल्में बन चुकी हैं। वे एक बड़े लेखक हैं और लोकप्रियता किसी भी लेखक को पुरस्कृत करने में आड़े नहीं आनी चाहिए।
लेकिन लोकप्रियता लेखकों के रास्ते में आती रही है। मौजूदा समय के तीन सबसे प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध उपन्यासकार नोबेल की सूची से बाहर हैं। जापान के हारुकी मुराकामी, भारतीय मूल के सलमान रुश्दी और चेक लेखक मिलान कुंदेरा अब शायद नोबेल का इंतजार छोड़ चुके होंगे। हालांकि हर साल मुराकामी के प्रशंसक इंतजार करते हैं कि इस बार नोबेल कमेटी उन पर मेहरबान होगी, लेकिन उनका नाम हमेशा छूटता नजर आता है। इसी तरह कनाडा की मशहूर लेखिका मार्गरेट ऐटवुड नोबेल पुरस्कार नहीं पा सकी हैं। कवियों में एदोनिस का नाम न जाने कितने साल से चल रहा है और कब तक चलेगा पता नहीं।
वैसे कमेटी एक दौर में यह संकेत देती रही है कि उसका काम महत्वपूर्ण लेकिन कम चर्चित लेखकों के काम को भी सामने लाना है और अक्सर उसके चयन के बाद कई लेखकों की वैश्विक ख्याति बनी है। यह सिलसिला तीन-चार बरस पहले टूटता लग रहा था, जो अब फिर लौट आया है।
खास बात यह है कि इस साल साहित्य का नोबेल जितना अप्रत्याशित रहा है, उतना ही शांति का भी। बेशक, शांति के नोबेल सम्मान पहले भी व्यक्तियों, संस्थानों या प्रवृत्तियों को आधार बनाकर दिए जाते रहे हैं लेकिन संभवतः यह पहली बार होगा कि दो पत्रकारों को यह सम्मान दिया गया है। इस लिहाज से यह बड़ी पहल है कि अभिव्यक्ति की आजादी को शांति के लिए जरूरी माना गया है। फिलीपींस की मारिया रेसा और रूस के द्मित्री मुरातोव को शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया है। नोबेल समिति ने इस अवसर पर जो प्रेस विज्ञप्ति जारी की है, उसके मुताबिक यह पुरस्कार भले ही इन दो पत्रकारों को दिया गया है मगर ये दोनों दुनिया भर में लोकतंत्र और स्वतंत्रता के पक्ष में पत्रकारिता के संघर्ष की नुमाइंदगी करते हैं। मारिया रेसा ने फिलीपींस में सत्ता के दुरुपयोग, हिंसा के इस्तेमाल और बढ़ते हुए स्वेच्छाचार के खिलाफ लगातार आवाज उठाई है। उन्होंने 2012 में खोजी पत्रकारिता के लिए एक डिजिटल मीडिया कंपनी बनाई और उसके बाद ड्यूटार्टे की हुकूमत की गड़बड़ियों को लगातार उजागर किया। इनमें वह ड्रग्स विरोधी मुहिम भी शामिल थी जिसे कातिलाना कहा जाता है। इस मुहिम में इतनी ज्यादा मौतें हुईं जैसे लगा कि राज्य अपनी ही जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ रहा है।
रूस के द्मित्री मुरातोव भी अरसे से रूस में अभिव्यक्ति पर आने वाले संकटों का सामना कर रहे हैं। वे 24 साल से नोवाजा गजेटा के संपादक हैं जो रूस में पहला स्वतंत्र अखबार था। इसकी स्वतंत्रता बनाए रखने की भी उन्हें खासी कीमत चुकानी पड़ी है। उनके कई पत्रकारों को जान से हाथ धोना पड़ा है।
इन दोनों को पुरस्कृत करते हुए नॉर्वेजियन नोबेल कमेटी ने कहा, “स्वतंत्र, निष्पक्ष और तथ्यपरक पत्रकारिता सत्ता के दुरुपयोग, झूठ और युद्ध के दुष्प्रचार के विरुद्ध बचाव का काम करती है। नार्वेजियन नोबेल समिति मानती है कि अभिव्यक्ति की आजादी और सूचना की आजादी सूचना संपन्न जनता आश्वस्त करने में मददगार है। ये अधिकार लोकतंत्र के लिए और युद्ध और झगड़ों से बचाव के लिए अपरिहार्य है। प्रेस की स्वतंत्रता और बोलने की आजादी के बिना एक बेहतर विश्व-व्यवस्था, निरस्त्रीकरण और देशों के बीच बंधुत्व सुनिश्चित करना मुश्किल होगा।”
क्या यह कहने की जरूरत है कि अपने देश में प्रेस की आजादी पर जिस तरह हमले बढ़े हैं, उससे हमारे लोकतंत्र की आत्मा भी खतरे में है? दरअसल इस वर्ष के साहित्य और शांति के नोबेल पुरस्कार फिर याद दिलाते हैं कि चुपचाप अपने अनुभवों को सटीक ढंग से दर्ज करने का भी मोल होता है और सत्य की रक्षा में खड़े होकर ही मानवता की रक्षा की जा सकती है। शांति और समानता के लिए पत्रकारिता और साहित्य की भूमिका पर लगी यह साझा मुहर इस साल के नोबेल पुरस्कार बड़ी उपलब्धि है। इसने हमारे समय की चुनौतियों को भी रेखांकित किया है।