हमारा समाज और हमारी राजनीति जिस रास्ते पर है, उसमें लगता है कि प्राचीन संस्कृति के आधुनिक रूप और बोध के लिए कोई जगह रह गई है और न उस पुरानी संस्कृति के लिए, जो दुनिया में ‘सॉफ्ट पॉवर’-सौम्य शक्ति-के नाम से कामयाब रही है। अब हम विचित्र यात्रा पर हैं। यह यात्रा संस्कृति से अपसंस्कृति और विकृति तक की है। एक विराट मध्यवर्ग को प्राचीन गौरव की सुखभ्रांति की खुराक दे दी गई है और वह बेखबर है कि उसका वर्तमान सांस्कृतिक तौर पर कितना निकृष्ट और दरिद्र हो रहा है। वह एक साथ मूर्तिपूजा, मुद्रा-पूजा में यकीन रखता है और डोनाल्ड ट्रंप से चाहता है कि वह उसके बेटे-बेटियों के अमेरिका में बसने पर बंदिश न लगाए।
मीडिया को भी संस्कृति से कोई लगाव या सरोकार नहीं है। अखबारों, टीवी चैनलों के लिए संस्कृति एक हल्का-फुल्का मनोरंजन या फूहड़ लतीफे से ज्यादा कुछ नहीं है। उसका संसार फिल्मी गानों की नकल की नकल, कुछ तीर कुछ तुक्कों के बल पर करोड़पति बनाने और उन घटिया सीरियलों तक सीमित है जिनमें सजी-धजी औरतें तमाम गहनों के साथ रात-दिन घरेलू षड्यंत्रों में लिप्त रहती हैं। आकाशवाणी का योगदान साहित्य और संगीत में जरूर गौरतलब रहा है, लेकिन अब वह भी गिरावट की शिकार है। संचार माध्यमों को साहित्य की सुध तब आती है जब वह कोई बिकाऊ घटना बन जाए, किसी बड़े लेखक की मृत्यु हो जाए या उसे कोई बड़ा पुरस्कार मिल जाए, तब कुछ हलचल मचती है और यह पता किया जाता है कि कौन जल्दी से उस पर लिख सकेगा। यह एक अनुष्ठान, एक कर्मकांड की तरह होता है। खेती के विशेषज्ञ पत्रकार पी. साईनाथ ने लिखा है कि मीडिया में किसानों को तभी जगह मिलती है, जब उनकी मौत हो जाती है। यह स्थिति साहित्य और कला के कर्मियों की भी है। साहित्य और विभिन्न कला-रूपों के विकास के लिए ऐसी सरकारी संस्थाएं लगभग नहीं हैं जैसी दुनिया के दूसरे कल्याणकारी राज्यों में पाई जाती हैं।
सहिष्णुता, सद्भाव, सामासिकता, बहुलता, धर्मनिरपेक्षता, ऐसे बहुत से शब्द हैं जो बहुसंख्यक आक्रामकता के शिकार हुए हैं। वे निरे शब्द नहीं हैं, बल्कि बुनियादें हैं जिन पर आजादी, लोकतंत्र और मनुष्यता टिके होते हैं। सांप्रदायिक नफरत और उन्माद इन बुनियादों पर चोट कर रहे हैं और सत्ताधारी उसे लगातार शह दे रहे हैं। प्रेमचंद ने 1934 में अपने एक लेख में कहा था कि ‘सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भांति, जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है।’ लगभग छियासी वर्ष पहले कही गई यह बात आज और भी भयानक रूप में सच नजर आती है। भाजपा जिसे ‘हिंदुत्व’ या भारतीय संस्कृति कहती है, वह दरअसल यही सांप्रदायिक संस्कृति है, जिसका दूसरा नाम अल्पसंख्यकों, मुसलामानों और दलितों पर बहुसंख्यकों का साम्राज्य है। हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का यह स्वरूप कभी नहीं रहा।
भाजपा सरकार का संस्कृति-विरोध इससे भी जाहिर है कि जब 2015 में कुछ लेखकों-कलाकर्मियों ने (जिनमें इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल था) देश में बढ़ती असहिष्णुता, सांप्रदायिकता और एमएम कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर और पानसरे जैसे विद्वानों और मोहम्मद अखलाक जैसे निर्दोष अल्पसंख्यक नागरिकों की हत्या के विरोध में अकादेमी या दूसरे पुरस्कार लौटाए और उसकी गूंज अंतरराष्ट्रीय लेखक बिरादरी में भी सुनाई दी तो उस वक्त के संस्कृति मंत्री ने कहा था, ‘ऐसे लेखकों को लिखने से रोका जाना चाहिए।’ यह कथन जर्मनी के नात्सी तानाशाह हिटलर के संस्कृति मंत्री हरमन गोय रिंग की तर्ज पर था जो कहता था कि ‘मैं जब भी संस्कृति शब्द सुनता हूं, मेरा हाथ अपने रिवाल्वर को टटोलने लगता है।’ उन्हीं दिनों भोपाल में सरकारी स्तर पर विश्व हिंदी सम्मलेन आयोजित हुआ था, जिसमें कोई संजीदा लेखक निमंत्रित नहीं था। तब के विदेश राज्यमंत्री से इसकी वजह पूछी गई तो उन्होंने कहा, ‘लेखकों को बुलाना क्यों जरूरी है? वे आते हैं, शराब पीते हैं और चले जाते हैं!’ यह संस्कृति-विरोध समूचे ज्ञान के ही विरोध तक दिखा था जब प्रधानमंत्री ने नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन पर कटाक्ष करते हुए कहा, ‘हार्वर्ड की पढ़ाई से क्या होता है? असली चीज तो हार्ड वर्क है!’
2014 में भाजपा सरकार के आने के कुछ ही समय बाद साहित्य, कला, संगीत, नाटक और सभ्यता विमर्श की संस्थाओं को दिए जाने वाले अनुदान में करीब तीस फीसदी कटौती कर दी गई थी। विचित्र बात थी कि उन संस्थाओं से तीस फीसदी धन खुद अर्जित करने के लिए कहा गया और इस पर गौर नहीं किया गया कि संस्कृति कोई बिकाऊ वस्तु नहीं हो सकती और सभी समाजों में वह राज्य की सहायता से ही फलती-फूलती है। नतीजतन, संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं ने खर्चों में कटौती कर दी, पारिश्रमिक कम कर दिए। साहित्य अकादेमी हर साल विनिमय कार्यक्रम के तहत लेखकों के दो प्रतिनिधि मंडल विदेश भेजती थी जिसे बंद कर दिया गया और यह काम नेशनल बुक ट्रस्ट को सौंप दिया गया, जहां संघ की विचाधारा के लोग काबिज थे। जागरूक लेखक क्योंकि व्यवस्था के आलोचक होते है, सरकार को डर था कि अकादेमी की ओर से जाने वाले लेखकों में उसके समर्थक नहीं होंगे। ललित कला अकादेमी, संगीत नाटक अकादेमी, नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा आदि संस्थाओं में भी प्रत्यक्ष सरकारी दखल बढ़ गया और साहित्य अकादेमी को, जहां उसके स्वायत्त संविधान के कारण सरकार सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकती, परोक्ष ढंग से नियंत्रित किया जाने लगा, जिसमें लेखकों के चयन, फंड देने में देरी जैसे तरीके शामिल थे। सोशल मीडिया में उसकी गतिविधियों की सूचना के साथ गैरजरूरी ढंग से संस्कृति मंत्री का नाम जाना पिछली सरकार के समय ही शुरू हो गया था, जो आज भी जारी है।
साहित्य अकादेमी को पूरी तरह स्वायत्त संस्था के तौर पर गठित किया गया था जिसका कामकाज लेखकों के हाथ में हो। उसका संविधान भी इस तरीके से तैयार किया गया, जिससे वह संस्कृति मंत्रालय और नौकरशाही के हस्तक्षेप से मुक्त रह सके। इस स्वायत्तता की एक मिसाल यह है कि जब 2005 में सांस्कृतिक संस्थानों के मामलों पर हक्सर समिति ने कुछ बदलावों की सिफारिश की, तो साहित्य अकादेमी के तत्कालीन अध्यक्ष, प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति ने उन्हें पूरी तरह खारिज कर दिया। अनंतमूर्ति वही लेखक हैं जिन्हें अपने मोदी-विरोधी बयान के कारण पाकिस्तान भेजने की धमकी दी गई, उनके घर के बाहर इस मकसद के पोस्टर लगाए गए और आखिरकार जल्दी ही उनकी मृत्यु हो गई। उनके कार्यकाल तक अकादेमी को सरकारी हस्तक्षेप से निजात मिली रही, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान उसके इतिहास में पहली बार किसी भाजपा नेता का प्रवेश हुआ। यह अकादेमी के घुटने टेकने की शुरुआत थी।
नेहरू युग में कला, साहित्य, संगीत-नृत्य-रंगकर्म और ज्ञान की जो संस्थाएं अस्तित्व में आईं, उन पर आज उन लोगों का वर्चस्व है, जो उन विषयों के बारे में लगभग कुछ नहीं जानते। नेशनल बुक ट्रस्ट, इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स ऐंड कल्चर, नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, फिल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड, चिल्ड्रन्स फिल्म सोसायटी जैसे संस्थानों के वर्तमान प्रमुखों के बॉयोडाटा पर सरसरी नजर डालने से पता चलेगा कि ये संस्थान उन लोगों द्वारा चलाए जा रहे हैं जो उस काम के योग्य नहीं हैं।
ये घटनाएं शायद यह बताने के लिए काफी हैं कि संघ परिवार की अगुआई वाली सत्ता का साहित्य-संस्कृति, विद्वता, सभ्यता से कितना सरोकार है। पिछले कुछ समय से विभिन्न विषयों पर उसके नेताओं के बयानों को देखें, तो हैरानी होती है कि ज्ञान से इतना वैर रखने वाले लोग कैसे एक साथ और वह भी आक्रामक मुद्रा में राष्ट्रीय मंच पर आ गए हैं। वे न कभी अच्छे साहित्य और पुस्तकों, अच्छे संगीत और कला, अच्छे थिएटर और सिनेमा और अच्छी विद्वता के संपर्क में आते हैं और न जरूरत महसूस करते हैं।
संस्कृति समाज का सर्वोच्च मूल्य और सबसे ज्यादा टिकाऊ पहचान होती है। मैथ्यू आर्नोल्ड को याद करें तो ‘संस्कृति मानव आत्मा का इतिहास है।’ एक व्यक्ति हर समय अपना धन या दूसरी दुनियावी चीजों को अपने पास नहीं रख सकता, लेकिन उसकी संस्कृति हमेशा उसके पास रहती है। समावेशिता सांस्कृतिक आत्मा की एक बड़ी ताकत थी और इसी के बल पर हमारे पूर्वजों ने हमें औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति दिलाई थी। स्वाधीनता के वे पहरेदार खुद बहु-सांस्कृतिक लोग थे। लेकिन अब हम आत्मा की संकीर्णता के युग में पहुंच गए हैं, जहां सांस्कृतिक बहुलता को सरकार और गैर-संवैधानिक एजेंसियों द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है। रंगमंच, कला, सिनेमा, साहित्य के सम्मेलनों-प्रदर्शनों पर प्रतिबंध, तोड़फोड़ और रोड़े अटकाने जैसी घटनाओं की सूची काफी लंबी है। एक स्वाधीन लोकतंत्र की जगह एक भयभीत लोकतंत्र ने ले ली है और डर कर रहने की भावना को समाज में फैलाया जा रहा है। यहां तक कि हमारी स्मृति और इतिहास भी निगरानी की जद में हैं और सत्ताधारी ताकतें इस कोशिश में लगी हैं कि लोग एक इतिहास को भूल जाएं और एक दूसरे इतिहास को याद रखें। मसलन, यह जाना-माना तथ्य है कि भाजपा सरकार स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भगत सिंह आदि की भूमिका को नेपथ्य में डालना चाहती है और उनकी जगह सावरकर और दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोगों को मंच पर लाना चाहती है जिनका आजादी की लड़ाई में कोई खास योगदान नहीं रहा। एक सभ्य संस्कृति हमेशा ‘दूसरे’ को अपनाने, विजातीय को स्वजातीय मानने का यत्न करती है, लेकिन संघ परिवार का जोर सिर्फ इस पर है कि कैसे ‘दूसरों’ को निर्मित किया जाए, उन्हें ‘शत्रु’ घोषित किया जाए। उसकी यह ‘शत्रु’ हमारी वह बहुभाषिक, स्तर-बहुल, आचरण-बहुल, सामासिक संस्कृति है। राहत इतनी-सी है कि संस्कृति और सभ्यता के कार्यकर्ता उसका विरोध और प्रतिरोध करते जाते हैं क्योंकि साहित्य और कलाओं का पूरा कारोबार किसी भी तथाकथित ‘दूसरे’ को ‘अपना’ बनाने पर टिका होता है। यह बेवजह नहीं है कि कवि कुंवर नारायण ने अपने एक कविता संग्रह का नाम ‘कोई दूसरा नहीं ’ रखा था।
(वरिष्ठ कवि, आलोचक, पत्रकार और स्तंभकार)
- एक स्वाधीन लोकतंत्र की जगह एक भयभीत लोकतंत्र ने ले ली है और डर कर रहने की भावना को समाज में फैलाया जा रहा है