यह अचानक तो नहीं था। लेकिन 22 जून को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के सुप्रीमो शरद पवार के दिल्ली निवास पर विपक्षी दलों के कुछ नेताओं और कुछ जानी-मानी हस्तियों की बैठक का खंडन-मंडन जरूर कुछ हैरान करने वाला था। एनडीए की पहली अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वित्त और विदेश मंत्री रह चुके और अब तृणमूल कांग्रेस में शामिल यशवंत सिन्हा और कुछ अन्य चर्चित शख्सियतों के 2018 में गठित राष्ट्र मंच की यह बैठक कथित तौर पर वैकल्पिक नीति दस्तावेज तैयार करने के लिए हुई थी, जिसके लिए एक कमेटी बनाई गई है। गौरतलब है कि इस बैठक में जिन विपक्षी दलों राकांपा, सपा, आम आदमी पार्टी, भाकपा, माकपा, तृणमूल कांग्रेस, रालोद, राजद, नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रतिनिधि पहुंचे, उनमें पहली पांत के थोड़े ही नेता थे। फिर भी खबरें बनीं कि कांग्रेस सहित कौन-से दल इसमें शामिल नहीं हुए और राकांपा नेता नवाब अली ने सफाई भी पेश की कि कांग्रेस सहित किसी से दूरी का कोई सवाल ही नहीं है। इसके पहले पश्चिम बंगाल चुनावों के बाद नए सिरे से चर्चा में आए चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने भी कहा, ‘‘कोई तीसरा-चौथा मोर्चा सत्तारूढ़ भाजपा से लोहा ले पाएगा, इसमें संदेह है।’’ इस बैठक के पहले प्रशांत की राकांपा प्रमुख शरद पवार और अन्य नेताओं से मुलाकात की खबरें भी बनीं। फिर भी विपक्षी एकजुटता की गहमागहमी और उसमें किसी तरह कमी-बेशी की खबरों से यह तो साफ दिखता है कि फिजा बदली हुई है और मुकाबले के लिए अस्त्र-शस्त्र चाक-चौबंद किए जा रहे हैं।
जाहिर है, यह फिजा 2 मई के चार राज्यों तमिलनाडु, केरल, असम, पश्चिम बंगाल और एक केंद्रशासित प्रदेश पुदुच्चेरी के चुनावी नतीजों और कोविड की दूसरी लहर से देश भर में हाहाकार जैसी स्थितियों से बनी है। दूसरी लहर की चरम स्थितियों में ऑक्सीजन, अस्पताल, दवा की किल्लतें और वैक्सीन गड़बड़झालों और बढ़ती बेरोजगारी तथा गरीबी भी एक नाराज फिजा तैयार कर रही हैं। फिर, तीसरी लहर की सिर चढ़कर बोल रही आशंकाएं भी अलग रंग घोल रही हैं। इन तमाम घटनाओं ने केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और सत्तारूढ़ भाजपा की कथित तौर पर अजेय छवि को झटका पहुंचाया है। खासकर पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों ने विपक्ष में दम भर दिया है और आगाह भी किया है कि एकतरफा एकजुटता ही केंद्र और भाजपा की सत्ता से टकरा सकती है। शायद यही वे हालात हैं, जिनसे भाजपा और उसकी केंद्रीय शख्सियतों प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के लिए नई चुनौती पैदा हो रही है। खास बात यह है कि यह चुनौती सिर्फ विपक्ष की ओर से ही नहीं मिल रही है, बल्कि भाजपा में क्षत्रप अपनी ताकत बटोरते दिख रहे हैं। इससे मोटे तौर पर पार्टी शासित राज्यों में कमजोर नेतृत्व के बूते केंद्रीय सत्ता को अजेय साबित करने वाली रणनीति भी सवालिया घेरे में आ गई है। यही नहीं, दूसरे दलों से भाजपा में आए नेताओं और एनडीए में बचे-खुचे सहयोगियों की भी आस्तीनें चढ़ती दिख रही हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण शायद हाल में बिहार का है, जहां जदयू को छोटा भाई बनाने की रणनीति लोजपा में बंटवारे के बाद कुछ फीकी पड़ती लग रही है। इस पर विस्तृत रिपोर्ट अगले पन्नों में है।
हाल के घटनाक्रम भाजपा के भीतर भी जैसी गहमगहमी के गवाह बने हैं, वह लंबे समय, खासकर 2014 के बाद मोटे तौर पर पहली दफा दिख रही है। पिछले पखवाड़े भाजपा के अहम संगठन महासचिव बी.एल. संतोष को उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा जैसे कई राज्यों के दौरे करने पड़े। यही नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नए सहसरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले को भी लगातार अलग-अलग राज्यों में बैठकें करते देखा गया है, जिन्हें नरेंद्र मोदी का समर्थक माना जाता है। उत्तर प्रदेश के मामले में बैठकें सिर्फ लखनऊ में ही नहीं हुईं, बल्कि दिल्ली में भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह से मिले। आखिर अरविंद कुमार शर्मा को प्रदेश में पार्टी उपाध्यक्ष बनाया गया, जो कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री कार्यालय में तैनाती और आइएएस से सेवानिवृत्ति लेकर उत्तर प्रदेश में भाजपा का काम करने गए थे। इस गहमागहमी की वजह कोविड की भयावह दूसरी लहर के अलावा प्रदेश में हुए पंचायत चुनावों में पार्टी का खराब प्रदर्शन था, जिसे 2022 की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए सही नहीं माना गया। इससे यह भी जाहिर हुआ कि प्रदेश में कई तबकों खासकर ब्राह्मणों और पिछड़ी तथा दलित जातियों में नाराजगी बढ़ रही है। दरअसल, केंद्रीय राजनीति के लिए भी उत्तर प्रदेश खास अहमियत रखता है, इसलिए विधानसभा चुनावों में कमजोर प्रदर्शन का जोखिम नहीं उठाया जा सकता। राज्य में बेचैनी की वजह सपा की संभावनाओं में बढ़ोतरी और खासकर किसान आंदोलन भी है, जिसकी गूंज पश्चिम उत्तर प्रदेश में ज्यादा सुनाई पड़ रही है।
असल में, इन नए हालात में बंगाल के घटनाक्रम का खास योगदान दिखता है, जहां तृणमूल कांग्रेस की 213 सीटों के साथ लगभग तीन-चौथाई बहुमत ने भाजपा की पहली दफा 77 सीटों पर जीत को इतना फीका कर दिया कि उलटा दलबदल शुरू हो गया। 2016 के विधानसभा चुनावों में महज तीन सीट जीतने वाली भाजपा को 2017 में तृणमूल से आए मुकुल रॉय से ऐसा दम मिला कि वह 2019 के लोकसभा चुनावों में 18 सीटें जीतने में कामयाब हो गई। अब मुकुल रॉय अपने बेटे शुभ्रांशु के साथ तृणमूल में लौट गए तो वहां तृणमूल में वापसी के लिए नेताओं और कार्यकर्ताओं में वापसी की होड़-सी मच गई है। बीरभूम जिले में तो कार्यकर्ता बैनर लिए माफी मांगते और तृणमूल में वापसी की गुहार लगाते देखे गए।
इसका फौरन असर त्रिपुरा में दिखा, जहां कांग्रेस और तृणमूल से भाजपा में गए नेता मुख्यमंत्री विप्लव कुमार देब से खुलकर नाराजगी दिखाने लगे। वहां सुदीप देव बर्मन के नेतृत्व में असंतोष इस कदर खुला कि बी.एल. संतोष को राजधानी अगरतला पहुंचना पड़ा। कहते हैं, देव बर्मन का यह असंतोष मुकुल रॉय फिनामिना का ही असर है, जो पूर्वोत्तर के कई राज्यों मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश में दिख सकता है। वहां, असम में भी सब कुछ सहज होने के संकेत नहीं हैं। पार्टी चुनाव तो जीत गई मगर कांग्रेस और विपक्ष की वोट हिस्सेदारी लगभग बराबर रही। इसलिए दबाव में हेमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा और पूर्व मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल को केंद्र में लाने की कवायदें संदिग्ध होने लगी हैं। कहते हैं, वे केंद्र में आकर मंत्री या कुछ और पद लेने को लालायित नहीं हैं। गौरतलब है कि हेमंत कांग्रेस से पार्टी में आए हैं और उन्हें ही पूर्वोत्तर में पार्टी का सूत्रधार माना जाता है। सोनोवाल अगप से कुछ पहले आए हैं। यानी अब भाजपा में बाहर से आए नेताओं की अपनी हिस्सेदारी के दावे मुखर होने लगे हैं।
यह हाल में बाकी राज्यों में भी दिखने लगा है। कर्नाटक में मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के खिलाफ हवा तो बेशक आरएसएस से जुड़े पुराने नेताओं (संतोष और होसबले भी वहीं से हैं और उन्हें येदियुरप्पा का विरोधी बताया जाता है) की ओर से उठी लेकिन पिछले चुनावों में कांग्रेस से आए कुछ नेता भी असहज महसूस करने लगे हैं और खुलकर अपनी आवाज बुलंद करने लगे हैं। फिर विभिन्न सामाजिक समुदायों और जातियों को समेटने की सोशल इंजीनियरिंग भी अब उस तरह काम करती नहीं दिख रही है, जैसा पहले करती दिख रही थी। इसकी एक वजह तो यह हो सकती है कि उन्होंने जिन आकांक्षाओं के साथ भाजपा की ओर रुख किया था, वह कारगर नहीं हो पा रहा है। फिर नेताओं की तो अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं ही।
ये महत्वाकांक्षाएं अब भाजपा के पुराने मजबूत नेताओं की ओर से उठने लगी हैं। इसका अच्छा उदाहरण मध्य प्रदेश है जहां मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को बदलने की कोशिशें कारगर नहीं हो पा रही हैं (देखें बॉक्स सब पर भारी शिव)। हालांकि प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के खेमे से भी असहज संकेत मिलने लगे हैं लेकिन वहां केंद्रीय नेतृत्व के लिए वैसी सिरदर्दी नहीं दिखती है, जैसी राजस्थान में है। वहां पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया के खेमे की ओर से खुली चुनौती मिलने लगी है। उनके समर्थक नारा लगाने लगे हैं कि ‘राजस्थान में वसुंधरा ही भाजपा और भाजपा ही वसुंधरा।’ आगामी विधानसभा चुनाव 2023 में अभी दो वर्ष से अधिक का समय है, लेकिन समर्थकों ने अभी से वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किए जाने की मांग तेज कर दी है। यह यूं तो कुछ महीने पहले ‘वसुंधरा राजे समर्थक राजस्थान मंच’ के गठन के ऐलान के साथ शुरू हुआ था, लेकिन इधर इसमें तेजी दिख रही है। पिछले कई घटनाक्रम कलह बढ़ने के ही संकेत दे रहे हैं। मौजूदा प्रदेश पार्टी अध्यक्ष सतीश पुनिया की अगुआई में प्रदेश पार्टी मुख्यालय के बाहर लगी नई होर्डिंग में वसुंधरा का चेहरा गायब है।
ऐसी ही कलह कमोवेश झारखंड में भी है। पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास, गोड्डा के सांसद निशिकांत दुबे, और केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा में ऐसी ठनी हुई है कि पार्टी कार्यलय लगभग सूना रहता है और कार्यकर्ताओं में मोहभंग असर दिखाने लगा है। वहां पार्टी में आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी की हलचलें भी तेज हैं। यही नहीं, महाराष्ट्र में भी कांग्रेस से आए कुछ नेताओं ने वापसी के संकेत दिए हैं और पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस का दबदबा घटने के संकेत है। कलह की चिंताजनक स्थितियां गुजरात में भी सिर उठा रही हैं, जहां खासकर प्रभावी पटेल बिरादरी के नेता मुख्यमंत्री विजय रूपानी जैन को चुनौती देने लगे हैं।
मतलब यह कि फिजा बदली हुई नजर आ रही है। संभव है 2024 के लोकसभा चुनावों के पहले स्थितियां कुछ काबू में आ जाएं मगर फिलहाल तो चुनौती विपक्ष से ही नहीं, अपनों के भीतर से भी सिर उठाने लगी है।
(साथ में नीरज झा और रांची से नवीन कुमार मिश्र)