कप्तानी, भारतीय क्रिकेट में हमेशा से चर्चा का विषय रहा है। एक समय था जब टीम इंडिया के पास एक ही कप्तान होता था, जो सभी फॉर्मेट यानी टेस्ट और वनडे दोनों की कप्तानी करता था। कपिल देव, मोहम्मद अजहरुद्दीन, सौरव गांगुली और सचिन तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी टेस्ट और वनडे की एक साथ कप्तानी कर चुके हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब टेस्ट और वनडे के साथ टी20 भी जुड़ गया है। अब तीनों ही फॉर्मेट टेस्ट, वनडे और टी20 अलग-अलग सोच और रणनीति की मांग करते हैं। पहली बार 2007 में एमएस धोनी को टी20 की युवा टीम सौंपी गई। फिर वनडे और 2008 में उन्हें टेस्ट टीम की भी जिम्मेदारी सौंपी गई। उन्होंने 2014 तक तीनों फॉर्मेट में कप्तानी कर भारत को 3 आईसीसी खिताब जिताए। धोनी ने नेतृत्व छोड़ा, तो विराट कोहली सामने आए। 2014 में उन्होंने टेस्ट कप्तानी संभाली और 2017 तक आते-आते वे ऑल-फॉर्मेट कप्तान बन गए। कोहली के आंकड़े बताते हैं कि वे भारत के सबसे सफल कप्तानों में रहे। उनके कार्यकाल में भारत ने ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैंड जैसे देशों में कई टेस्ट मैच जीते। वनडे और टी20 में भी लगातार सीरीज जीत हासिल हुईं। लेकिन लंबा समय ऐसा आया, जब भारत में एक ही कप्तान तीनों फॉर्मेट में नेतृत्व करता रहा।
2022 में जबसे कोहली ने कप्तानी छोड़ी, तब से भारतीय टीम में भी प्रयोग हुए। अब भारत के पास तीन फॉर्मेट में अलग-अलग कप्तान हैं। भारतीय क्रिकेट में यह प्रयोग नया है। अब रोहित शर्मा वनडे और सूर्य कुमार यादव भारत की टी20 टीम की कमान संभाल रहे हैं। गिल टेस्ट कप्तान होने के साथ दोनों फॉर्मेट में उपकप्तान हैं।
हालांकि दुनिया की अन्य टीमें इस पद्धति को पहले ही अपना चुकी हैं। इंग्लैंड ने बहुत पहले तय कर लिया था कि रेड बॉल और व्हाइट बॉल क्रिकेट में अलग-अलग कप्तान रहेंगे। जो रूट लंबे समय तक टेस्ट कप्तान रहे, जबकि इयोन मॉर्गन ने सीमित ओवरों की टीम को नई ऊंचाई दी। मॉर्गन के नेतृत्व में इंग्लैंड ने 2019 विश्व कप जीता और सफेद गेंद की क्रिकेट में वह दुनिया की सबसे आक्रामक टीम बनी। लेकिन दूसरी तरफ टेस्ट क्रिकेट में इंग्लैंड बुरी तरह पिछड़ गया। जो रूट ने आंकड़ों के लिहाज से अपनी कप्तानी के कार्यकाल को संतोषजनक परिणाम में बदला। लेकिन टीम की दिशा को लेकर सवाल उठे।
ऑस्ट्रेलिया के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। जब स्टीव स्मिथ को कप्तानी से हटाया गया, तो टीम कई हिस्सों में बंट गई। टिम पेन को टेस्ट कप्तान बनाया गया, सीमित ओवरों की टीम अलग-अलग नेतृत्व के बीच घूमती रही। नतीजतन, टेस्ट टीम तो किसी तरह संभली, लेकिन टी20 और वनडे क्रिकेट में हल्कापन आ आ गया। हालांकि, दोनों ही देशों में अब दो अलग-अलग कप्तानों का प्रयोग सफल हो रहा है। न्यूजीलैंड से लेकर दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका से लेकर वेस्टइंडीज तक कई क्रिकेट टीमें अब अलग फॉर्मेट में अलग कप्तान के फॉर्मूले पर चल रही हैं।
हालांकि ऐसा नहीं होता कि स्पिलिट कैप्टन हमेशा ही जीत दिलाए। कुछ उदाहरणों से लगता है कि स्पिलिट कैप्टेंसी का प्रयोग कभी असफल परिणाम भी देता है। भारतीय संदर्भ में इस प्रयोग पर कई पूर्व खिलाड़ी सवाल उठा चुके हैं। कपिल देव ने कहा था कि किसी कंपनी में दो सीईओ नहीं होते, वैसे ही एक ही टीम में दो-तीन कप्तान होना कठिन है। धोनी ने भी साफ कहा था कि विभाजित कप्तानी काम नहीं करती। उन्होंने खुद कोहली को समय देकर पूरी कप्तानी सौंप दी थी, क्योंकि उन्हें पता था कि टीम में स्पष्ट नेतृत्व होना जरूरी है। धोनी और कोहली की जोड़ी लगभग 14 साल तक भारतीय क्रिकेट की रीढ़ बनी रही। दोनों न सिर्फ अच्छे कप्तान बल्कि बेहतरीन खिलाड़ी भी रहे। इस स्थिरता के कारण भारतीय क्रिकेट ने दुनिया भर में पहचान बनाई।
बार-बार कप्तान बदलने से टीम में स्थिरता नहीं बनती। 2022 के बाद से लगभग हर 2–3 सीरीज में भारतीय टीम में अलग कप्तान देखा गया है। रोहित शर्मा को हर फॉर्मेट की कप्तानी मिली लेकिन उनकी फिटनेस चिंता का विषय रही है। टी20 और टेस्ट से वह संन्यास ले चुके हैं। शुभमन गिल को भविष्य का कप्तान माना जा रहा है, लेकिन वे अभी शुरुआत कर रहे हैं। सूर्य कुमार यादव टी20 में अच्छा कर रहे हैं, लेकिन क्या वे लंबे समय तक कप्तानी संभाल पाएंगे, यह बड़ा सवाल है। तीन कप्तानों का मतलब तीन सोच और तीन अलग-अलग योजनाएं है, जिससे टीम को बार-बार अलग निर्देश मिलते हैं और उन्हें खेलने में परेशानी हो सकती है। एक ही विरोधी टीम के ख़िलाफ जब अलग-अलग फॉर्मेट में भारत खेलता है, तो खिलाड़ी तीन नेताओं से अलग-अलग निर्देश पाते हैं। इससे तालमेल बिगड़ने की संभावना रहती है। हालांकि, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कभी-कभी यह फॉर्मूला खिलाड़ियों से बेस्ट निकालने में काम कर जाता है।
कप्तानी का असर मैदान के बाहर भी पड़ता है। भारतीय टीम का कप्तान अपने आप में ब्रांड होता है। जब कप्तानी बांट दी जाती है, तो उस ब्रांड का असर भी कम हो जाता है। एक कप्तान जितना ज्यादा समय तीनों फॉर्मेट में रहता है, उतना ज्यादा उसके पास आईसीसी टूर्नामेंट जीतने का मौका होता है। विभाजित कप्तानी में यह संभव नहीं होता क्योंकि कप्तान सिर्फ अपने फॉर्मेट तक सीमित हो जाता है। विवाद और अहंकार की लड़ाई भी यहीं से शुरू होती है। तीन कप्तानों का मतलब है, कि सभी की अपने पसंदीदा खिलाड़ियों को प्राथमिकता देना। इससे चयन को लेकर असहमति बढ़ने की पूरी संभावना हो सकती है। यह कई बार टीम के माहौल के लिए यह अच्छा नहीं होता।
वैसे भी, भारतीय क्रिकेट की असली ताकत उसकी स्थिरता रही है। धोनी और कोहली जैसे कप्तानों ने यह साबित किया है कि मजबूत कप्तान ही टीम को सही दिशा में ले जा सकता है। आंकड़े भी यही कहते हैं। धोनी ने टेस्ट टीम को नंबर वन बनाया, वनडे के दो आईसीसी खिताब जीते और टी20 का एक। कोहली की कप्तानी में भारत ने विदेश में टी20 सीरीज जीतीं, विदेश में टेस्ट मुकाबले जीते और हर बड़े देश के खिलाफ अच्छा प्रदर्शन किया। हालांकि, आईसीसी टूर्नामेंट जीतना बाकी रहा, लेकिन लगातार सेमीफाइनल और फाइनल तक पहुंचना भी एक बड़ी उपलब्धि है। ऐसे में यह कहना गलत होगा कि कप्तानी का कोई योगदान नहीं था।
तब फिर आगे का रास्ता क्या हो सकता है? शुभमन गिल को भविष्य का ऑल-फॉर्मेट कप्तान माना जा रहा है। वे युवा हैं, फिट हैं और लगातार खेल सकते हैं। यह गुण किसी भी लंबे कार्यकाल वाले कप्तान के लिए आवश्यक है। गिल के आने से स्थिरता आ सकती है, बशर्ते उन्हें समय दिया जाए। लेकिन इसके साथ ही बीसीसीआई को यह तय करना होगा कि कप्तानी के प्रयोग कितने दिन तक चलेंगे। लगातार बदलाव से टीम को नुकसान होगा। अब तक का अनुभव यही रहा है कि भारतीय क्रिकेट में विभाजित कप्तानी लंबी अवधि के लिए सफल नहीं हो सकती। इससे असंतुलन पैदा हो सकता है और टीम का फोकस बंट सकता है। भारत में हमेशा से एक मजबूत और ऑल-फॉर्मेट कप्तान की परंपरा रही है। धोनी और कोहली ने उस परंपरा को निभाया। आने वाले समय में भी एक ही कप्तान पर भरोसा करना टीम इंडिया के लिए बेहतर होगा। यही स्थिरता भारतीय क्रिकेट को आगे बढ़ा सकती है। हालांकि, कोच गौतम गंभीर और बीसीसीआई इस विषय में क्या राय रखते हैं, यह बहस पूरी तरह उस विचार पर निर्भर करेगी।