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वंचितों के लिए बने खाद

रघुवंश प्रसाद सिंह को ब्रह्म बाबा कहा जाता था
रघुवंश प्रसाद सिंह  (1946-2020)

रघुवंश प्रसाद सिंह को अकारण ही ब्रह्म (बिहारी में, बरहम) बाबा नहीं कहा जाता था। फक्कड़, अलमस्त और अपनी धुन में चलने वाला दूसरा कोई राजनेता राज्य की सियासत में न था। बिहार क्या, शायद देश भर में नहीं! लेकिन, उनके मनमौजी मिजाज का एक आयाम जो उन्हें भीड़ से अलग करता था, वह थी उनकी गरीबों, वंचितों और शोषितों के उत्थान के प्रति संजीदगी।

रघुवंश बाबू ताउम्र समाज के उस अंतिम आदमी को मुख्यधारा में लाने को समर्पित रहे, जिसकी बात समाज और राजनीति के हर मंच से की जाती है, लेकिन बिरले ही इस उद्देश्य के लिए कोई जीवनपर्यंत जुटा र‌हता है। रघुवंश बाबू के लिए ऐसा जीवन जीना कोई विस्मय की बात न थी। वे समाजवाद के उन अंतिम पुरोधाओं में थे जो  अध्यापन छोड़कर राजनीति में सिर्फ इसलिए आए थे, ताकि समाज में जातिगत विषमताओं से ऊपर उठकर सामाजिक न्याय और कौमी एकता के लिए काम किया जा सके।

सियासत उनके लिए समाज की निःस्वार्थ सेवा का, न कि स्वार्थसिद्धि का साधन थी। राजनीति में इतनी लंबी पारी खेलने के बाद भी उन्होंने न तो खुद के लिए और न ही किसी परिजन के लिए कोई आलीशान मकान बनाया, अकूत संपत्ति की तो बात ही छोड़िए।

यह सब इसके बावजूद कि जिन लोगों के साथ वे जिंदगी भर सियासी सफर में रहे, उनमें से अधिकतर ने सत्ता सुख की खातिर समाजवादी आंदोलन के मूल सिद्धांतों की वर्षों पूर्व तिलांजलि दे दी थी। जिनके साथ रहे उन पर परिवारवाद और भ्रष्टाचार के न सिर्फ आरोप लगते रहे बल्कि न्यायालय ने भी उन्हें दोषी करार दिया, फिर भी रघुवंश बाबू अपने लंबे करियर में बेदाग छवि वाले नेता रहे। बिहार से लेकर केंद्र में मंत्री रहे लेकिन उनकी ईमानदारी पर किसी ने कभी भी कोई उंगली नहीं उठाई।

 रघुवंश बाबू के राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी उनके बारे में अक्सर कहा करते थे कि एक सही आदमी गलत पार्टी में है। उनकी कार्य क्षमता और स्वच्छ छवि को देखते हुए जद-यू और भाजपा सहित हर पार्टी समय-समय पर उन पर डोरे डालती रही, लेकिन वे राजद में ही खुश थे। यहां तक कि पिछले दो लोकसभा चुनाव लगातार हार जाने के बावजूद उन्होंने लालू प्रसाद यादव का साथ नहीं छोड़ा। इसका मुख्य कारण यह नहीं था कि लालू उनके इमरजेंसी के समय से मित्र थे, बल्कि यह था कि वह लालू को बिहार में सांप्रदायिक शक्तियों को रोकने और सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वाले सबसे मजबूत योद्धा के रूप में देखते थे। हालांकि वे स्वयं एक सवर्ण राजपूत जाति से आते थे, लेकिन पिछड़ी जातियों के उत्थान के प्रति उनके संकल्प ने उन्हें हमेशा लालू के साथ रखा। लोहिया के कट्टर अनुयायी के रूप में उन्हें यह गवारा न था कि उन जैसी राजनैतिक शक्तियों के साथ चले जाएं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समाजवाद की मूल विचारधारा के विपरीत काम करती हैं। भाजपा या नीतीश कुमार की तुलना में लालू का साथ उन्हें इसी वजह से बेहतर लगता था। यह बात और है कि अपने जीवन के आखिरी कुछ महीनों में उन्हें राजद के नए नेतृत्व से निराशा हुई, और मृत्यु से महज दो दिन पूर्व उन्होंने अपना एक हस्तलिखित त्यागपत्र लालू को भेज दिया था।

 रघुवंश बाबू न सिर्फ एक कुशल राजनेता थे, बल्कि उनमें बेहतरीन प्रशासनिक क्षमता भी थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी पहली यूपीए सरकार में ग्रामीण विकास मंत्रालय का पद ग्रहण करने के बाद मनरेगा को देश भर में लागू करने के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयासों की सर्वत्र प्रशंसा हुई। उनके मंत्रालय में काम करने वाले वरिष्ठ अधिकारी उनकी कार्य क्षमता से चकित रहते थे। कभी-कभी तो वे बगैर कुछ खाए-पीये बारह-तेरह घंटे अपने कार्यालय में डटे रहते थे। उनके पहले वहां के बाबुओं ने शायद ही किसी ऐसे मंत्री को देखा था जो सरकार की किसी नई योजना को धरातल पर उतारने के लिए इतना प्रतिबद्ध हो। लेकिन, रघुवंश बाबू के लिए यह महज एक मौका था गरीब और मेहनतकश लोगों के लिए कुछ करने का। 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद राजद यूपीए-2 सरकार का हिस्सा नहीं रही और पिछले छह साल तक सांसद न रहने के बावजूद गरीबों के प्रति उनकी चिंता कम न हुई। मृत्यु के मात्र दो दिन पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लिखे अपने अंतिम पत्र में भी उन्होंने मनरेगा में मजदूरी भुगतान संबंधी अपनी चिंता जाहिर की। उनके लिए यह बेमानी था कि दुनिया उन्हें ‘ब्रह्म बाबा’ की संज्ञा देती है या ‘मनरेगा मैन’ की, असल जिंदगी में वे सिर्फ एक समर्पित राजनैतिक कार्यकर्ता और समाजसेवी बने रहे और उनकी यही पहचान वर्षों तक बरकरार रहेगी।