सत्यजित राय और उनके पसंदीदा हीरो सौमित्र चटर्जी की फिल्मों के साथ बड़ी हुई पीढ़ी का होने के नाते यह कहना किसी विवाद को न्योता देना नहीं होना चाहिए कि अगर 1959 से लेकर इतने वर्षों में सिर्फ सौमित्र दा की भूमिकाओं की विविधता पर ही गौर करें तो हम समृद्ध विरासत की मस्ती में झूम रहे हैं। यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। अभी उनकी और फिल्में हैं, उनके आखिरी काम हैं। लेकिन पिछले दस साल से मैं एक दूसरी परियोजना से जुड़ा हुआ था, सौमित्र दा के साथ जुड़कर उनकी गद्य रचनाओं के संकलन के संपादन में। पहले दो खंड 2016 में छपे और वे 1,000 से अधिक पन्नों के हैं। जब वे विदा हुए, तो हम तीसरा खंड भी लगभग तैयार कर चुके थे। यह भी करीब 500 पन्नों का होगा।
उनसे मेरी आखिरी बातचीत, या कहें कि उनका जो आखिरी फोन मेरे पास आया था, वह 9 सितंबर की देर शाम को। उन्हें अचानक 2015 में एक युवा लेखक अंसारुद्दीन के बारे में अपना लिखा एक लेख मिल गया था। अंसारुद्दीन एक अलग तरह के लेखक हैं और छोटे-से शहर कृष्णनगर में उनका बचपन बीता है। अब वे पास के एक गांव में अपनी छोटी-सी जोत में खेती करते हैं और लिखते हैं। सौमित्र दा ने उन्हें एक खुली चिट्ठी लिखी थी और वह कृष्णनगर से छपने वाली एक छोटी पत्रिका में छपी थी। उसकी एक प्रति हाल ही में मुझ तक पहुंची और वे उस पर मेरी प्रतिक्रिया जानना चाहते थे। यह भी कि क्या मैं उसे संकलन में शामिल करना पसंद करूंगा।
उस लेखक के वे बड़े प्रशंसक थे, जैसे उसकी रचनाओं में ग्रामीण बंगाल को देखने का एकदम अलग नजरिया है। ग्रामीण बंगाल ही बांग्ला उपन्यासकारों ताराशंकर बंद्योपाध्याय, बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय और माणिक बंद्योपाध्याय की कई महान रचनाओं की पृष्ठभूमि रहा है। संयोग से गांवों के जीवन के मामले में ये सभी बाहरी थे, सहानुभूति रखने वाले गहरे जानकार बाहरी, मगर बाहरी। अब एक ऐसा शख्स है जिसका उस मिट्टी से वास्ता है... और वह सब उसके लेखन में आया है! सौमित्र दा को उस मौलिकता ने काट खाया था, जो असरुद्दीन के लेखन में गांव के जीवन की बेहद अनुभवजन्य दृष्टि दिखती है।
उस पूरी बातचीत का सिनेमा से कोई लेनादेना नहीं था, उसका वास्ता जीवन, साहित्य, उस पूरे अनुभव के समृद्ध संसार से था, जो सौमित्र दा के अनुभव में उतरा है। वे सिर्फ अभिनेता नहीं थे, वे पढ़ते और पेंटिंग भी करते थे, कविता लिखते, उनका पाठ करते, नाटक का निर्देशन और उसमें अभिनय करते थे। संक्षेप में कहें तो उनके जीवन में रचनात्मकता कूट-कूट कर भरी थी। 2016 में उनके गद्य संकलन के विमोचन कार्यक्रम में वे, नसीरुद्दीन शाह और मैं मौजूद था। नसीरुद्दीन शाह ने आखिरी सवाल पूछा, “बतौर अभिनेता शुरुआत में आप पर किन-किन का असर था, और दशकों तक रंगमंच पर सक्रियता से क्या बदलाव आया या वह जस का तस रहा?” सौमित्र दा के जवाब में उनके पूरे करिअर का विलक्षण सार-संक्षेप था। उन्होंने कहा, “शुरुआत से सब कुछ बता पाना वाकई मुश्किल है। मुझे, मेरे अभिनय जीवन को आकार देने में मुख्य असर शिशिर कुमार भादुड़ी का रहा है, जो अब काफी जाना-पहचाना है। उस वक्त का बंगाली थिएटर ही मेरे दिमाग पर हावी था... जब तक कि मैंने पथेर पांचाली नहीं देखी थी और सिनेमा का दीवाना नहीं बन गया था। हालांकि तब तक मैं कई हॉलीवुड फिल्में देख चुका था, मगर उससे मेरे मन में यह विचार बना था कि मुझे कैसा अभिनय करना चाहिए। लेकिन मैंने पथेर पांचाली देखी तो फौरन मेरे दिमाग की बत्ती जल गई। मैंने महसूस किया कि कैमरे को नहीं भुलाया जाना चाहिए, बल्कि उसे आपके भीतर ले जाना है, क्योंकि कैमरा ही आपका दर्शक है। इस तरह सिनेमा में अभनय का मेरा विचार बदला। जहां तक थिएटर के बारे में मेरे विचारों की बात है तो वह लगातार बदलता रहा है। एक वक्त मैं सोचा करता था कि किसी अभिनेता के लिए नाटक को साकार करने, अभिनय के पात्र को उतार देने से बढ़कर कुछ नहीं है। लेकिन बाद में मैंने महसूस करना शुरू किया कि नाटक पूरी तरह से इतना ही नहीं है। फिर मैंने एहसास किया कि थिएटर कई तरह का हो सकता है। युवा दिनों में मुझे गीत-संगीत वाला थिएटर नहीं रुचता था। अब मुझे पक्का यकीन है कि भारत में असली थिएटर में संगीत की विरासत रची-बसी है, जो आधुनिक थिएटर में आनी चाहिए। थिएटर सभी माध्यमों के संसाधनों अपने भीतर समेट सकता है और उसमें अकूत संभावनाएं हैं।” यही दिमाग का मौलिक खुलापन वे सिनेमा में ले आए, जिसकी शुरुआत 1959 में हुई थी।
अपूर संसार से उस रिश्ते, एकदम खास अभिनेता-निर्देशक रिश्ते की शुरुआत हुई, जो न सिर्फ राय की उन 14 फिल्मों में जारी रही, जिनमें सौमित्र दा ने अभिनय किया, बल्कि राय की दूसरी फिल्मों में भी यह बना रहा, क्योंकि उनकी पटकथा के पहले पाठकों में वे हुआ करते थे! राय उनसे पटकथा पढ़ने को कहते और विचार साझा किया करते थे। ऐसे भी मौके आए जब सौमित्र दा ने कोई भूमिका करनी चाही और राय ने ‘नकार’ दिया, लेकिन ताजिंदगी सौमित्र दा ने राय के फैसले को जायज ही माना। एक ऐसा ‘नकार’ तो गुपी गाइन बाघा बाईन का है, जिसमें गुपी की भूमिका के लिए राय ने तपन चटर्जी को चुना। सौमित्र दा में यह विनम्रता थी कि उन्होंने राय के नकारने के फैसले को सही माना और तपन के अभिनय की स्वाभाविकता को स्वीकारा। वे ऐसे ही थे, अपने समकालीन अभिनेताओं को पसंद और प्रशंसा करने में कभी पीछे नहीं रहे। छवि बिश्वास, तुलसी चक्रवर्ती, भानु बनर्जी, जहर रॉय और रवि घोष सभी को बड़े आदर से याद करते थे। यह गुण ‘बड़े’ अभिनेताओं में विरले ही पाया जाता है। इन कलाकारों के प्रति उनका सम्मान का भाव उनके कई लेखों में भी है। इन अभिनेताओं के प्रति समर्पित लेखों में उनकी अभिनय शैली, उनकी खासियतों की चर्चा करते हैं।
राय की फिल्म अभिजन के बारे में बात करना सौमित्र दा को बड़ा पसंद था। उसमें उन्होंने एक राजपूत टैक्सी ड्राइवर की भूमिका निभाई थी और वे भोजपुरी तथा बांग्ला की मिलीजुली बोली बोलते हैं। यह उन्होंने बिहारी राजपूत ट्रक ड्राइवरों से सीखी थी, जिनके संपर्क में कभी वे आए थे। उन्होंने उस बोली को अपने माकूल किया, उस पर काफी मेहनत की और राय के पास गए तथा उन्हें सुनाई। राय ने हंसते हुए पूछा कि यह भदेस अनगढ़ बोली रोमांटिक दृश्य में चल जाएगी क्या! लेकिन वह तो वाकई चल गई। यह खांटी भोजपुरी राजपूत की बोली नहीं थी, बल्कि सौमित्र दा की अपनी गढ़ी हुई थी, लेकिन उन्होंने उसे कामयाब और भरोसेमंद बनाया था। किसी भूमिका को निभाने के लिए पात्र की बोली का गहरा एहसास जरूरी है। सौमित्र दा के रचनात्मक तरकश में यह हुनर था। आखिर कवि होने के नाते भाषा की बारीकियों का गहरा एहसास था और उनके कान भी बेहद संवेदनशील थे। ये सभी गुण उनके अभिनय में उतर आए थे।
अपने पूरे जीवन में वे एक और उस्ताद तपन सिन्हा का आभार मानते रहे। अपूर संसार के बाद सिन्हा ने उन्हें झिंदेर बंदी में उस वक्त के चमकते सितारे उत्तम कुमार के बरक्स उतारा। सौमित्र दा उस लाजवाब सितारे से बीस साबित हुए और इस तरह लोकप्रिय ‘व्यावसायिक’ बांग्ला सिनेमा में उनका प्रवेश हुआ, जहां वे आखिर तक अपनी भारी मौजूदगी बनाए रहे। वे आजीवन ‘कला’ और ‘व्यावसायिक’ सिनेमा दोनों के फर्क के प्रति सचेत रहे। लेकिन औसत दर्जे के बॉक्स ऑफिस सिनेमा में भी अपनी बेहतरीन कला का प्रदर्शन करते थे, जिसमें काम करना घरेलू जिम्मेदारियों के कारण उनकी मजबूरी थी (हालांकि वे बेहद सादा, कमखर्चीली और आडंबरहीन जिंदगी जीते थे)। अक्सर बेहद औसत दर्जे के पात्रों में भी जान डाल देते थे, जबकि निर्देशकों से न के बराबर मदद मिलती थी। जब भी बेहतर निर्देशकों ने उन्हें चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं दीं, उन्होंने बड़ी संजीदगी के साथ तैयारी की, जैसा कि उन्होंने सरोज दे के निर्देशन में कोनी (1984) में तैराकी मास्टर की भूमिका, या सिन्हा की ह्वीलचेयर (1994) में ह्वीलचेयर पर चलने वाले डॉक्टर, गौतम घोष की देखा (2001) में अंधेपन से पार पाने की कोशिश, या इधर हाल की अतनु घोष निर्देशित मयुराक्षी (2017) में अलझाइमर रोग से पीडि़त इतिहास के रिटायर प्रोफेसर की भूमिका में नई जमीन तोड़ दी।
हालांकि यह कहना अनुचित-सा लग सकता है, मगर राय की फिल्मों में उनकी भूमिकाओं में अपेक्षाकृत आसानी रहती थी, क्योंकि एक तो महान फिल्मकार मौजूद होता था, और दूसरे, वे औपनिवेशिक दौर के बंगाल के सांस्कृतिक इतिहास की अपनी गहरी समझ का फायदा ले सकते थे। इस क्षेत्र में सौमित्र दा की रुचि साहित्यिक पत्रिका एक्षण के संपादन से भी गहरी हुई थी। पत्रिका का कवर और डिजाइन राय ने तैयार किया था। दोनों के बीच 19वीं सदी के बंगाल के बारे में गहरी रुचि का साझा था। दोनों एक-दूसरे से किताबें साझा किया करते थे और उस पूरे सांस्कृतिक आलोड़न पर लंबी बहसें किया करते थे। सौमित्र दा के साथ लंबी बैठकों में मैंने पाया कि राजनीति, इतिहास, कला, साहित्य, कविता और ड्राइंग जैसे विविध क्षेत्रों में वे लगातार सक्रिय रहते थे। हर विधा में उनकी पैठ स्वतंत्र थी लेकिन रंगमंच या परदे पर उनके प्रदर्शन में सबका मिश्रण दिखता था।
फिर, थिएटर भी उनकी सक्रियता का एक बड़ा क्षेत्र था। उन्होंने कुछ अनियमित-सा, गैर-पेशेवर कंपनियों के साथ काम करना शुरू किया था। हालांकि वे 1960 के दशक में पेशेवर थिएटर में भी काम कर चुके थे, जिसमें हर हफ्ते तीन शो होते और दो-तीन साल के अंतराल में 300, 500, 700 बार नाटक का मंचन होता था। लेकिन छोटी नाट्य मंडलियों के साथ अनियमित काम में भी उनकी कम रुचि नहीं थी। जैसा कि उन्होंने मुझे बताया, रंगमंच उन्हें हमेशा लुभाता था क्योंकि थिएटर में हर रात भूमिकाओं को नए सिरे से रचने की गुंजाइश रहती है। उस पर नई सोच के साथ विचार किया जा सकता है, जो सिनेमा में संभव नहीं है। सिनेमा में एक बार ही अंतिम बार होता है।
थिएटर में उनके अपने निर्देशन के काम में नाम जीवन, नीलकंठ और फेरा शामिल हैं। इसके अलावा फ्रीडरिख डर्रेनमट के जर्मन नाटक द विजिट का बांग्ला रूप है, जिसमें माधवी मुखर्जी ने ‘बेवफा’ प्रेमी से प्रतिशोध लेने वाली महिला की भूमिका निभाई है और सौमित्र दा ने उस प्रेमी की। राय की चारुलता में उन्होंने संजीदा प्रेमी अमल की भूूिमका निभाई थी। उन्होंने एंथनी शेफर के स्ल्यूथ और किंग लीयर का बांग्ला रूपांतरण और मंचन भी किया था, जिसका निर्देशन कौशिक सेन और सुमन मुखर्जी जैसे युवाओं ने किया था। वे ऐसे प्रयोगधर्मी नाटकों के मंचन में अपनी पेशेवर फीस भी नहीं लिया करते थे।
मुझे जून 2009 का वह वाकया याद है जब हम एक टैक्सी में आकाशवाणी जा रहे थे, जहां उसके आर्काइव के लिए एक इंटरव्यू करना था। तब उन्होंने बताया था कि वे तीन महीने तक लंदन में लंबी चिकित्सकीय जांच के बाद हाल ही में लौटे हैं। वहां उन्हें बताया गया कि उन्हें केंसर है और डॉक्टरों ने उन्हें सात साल की मोहलत दी है! उन्होंने सीधे यह सूचना देने के बाद बताना शुरू किया कि वे लंदन में एक कैंसर से उबरे नाटककार का नाटक नो स्मोकिंग देखने गए थे। फिर उन्होंने कहा कि वे आत्मकथात्मक नाटक पर काम करना चाहते हैं। कुछ महीने बाद वे इसके लिए तैयार थे। तीन अभिनेता एक ही जैसा पोशाक पहने थे, दो पुरुष, एक महिला। तीनों अपनी कथा कह रहे थे। उन्होंने उसे द थर्ड ऐक्ट नाम दिया। वे अपने जीवन के साथ यह तीसरा अभिनय करते निकल गए, दुनिया को अलविदा कहने के बमुश्किल महीने भर पहले तक पूरी संवेदना के साथ खुली आंखों के साथ सक्रिय थे।
(लेखक कला समीक्षक और प्रकाशक-संपादक हैं)