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5 जनवरी 2026 · JAN 05 , 2026

इंटरव्यू/स्मिता पाटिल पुण्यतिथिः ‘स्टार नहीं, स्मृति का हिस्सा’

स्मिता पाटिल (1955–1986) भारतीय समानांतर सिनेमा की अग्रणी और सबसे प्रभावशाली अभिनेत्रियों में से थीं।
याद न जाएः स्मिता के साथ उनकी बड़ी बहन डॉ. अंजली पाटिल देशमुख (पीछे की ओर)

स्मिता पाटिल (1955–1986) भारतीय समानांतर सिनेमा की अग्रणी और सबसे प्रभावशाली अभिनेत्रियों में से थीं। श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे निर्देशकों के साथ उनके कार्य ने भारतीय कला-सिनेमा को नई दिशा दी। भूमिका, चक्र, मंथन जैसी फिल्मों में उनकी गहन और यथार्थवादी अभिनय शैली की व्यापक सराहना हुई। उन्होंने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार एवं फिल्मफेयर पुरस्कार सहित कई सम्मान प्राप्त किए। अभिनेता राज बब्बर की पत्नी और अभिनेता प्रतीक बब्बर की मां स्मिता मात्र 31 वर्ष की आयु में प्रसव-सम्बंधी जटिलता के कारण 13 दिसंबर 1986 को दुनिया को अलविदा कह गईं थीं। उनके निधन से भारतीय सिनेमा को गहरा आघात पहुंचा। स्मिता की पुण्य-तिथि पर उनकी अभिनय यात्रा, उनकी निजी जिंदगी पर पत्रकार-लेखक अरविंद मण्डलोई ने उनकी बड़ी बहन, नवजात शिशु विशेषज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. अनीता पाटिल देशमुख से बात की। स्मिता की छोटी बहन मान्या पाटिल सेठ स्मिता पाटिल फाउंडेशन की प्रमुख हैं। अंशः

स्मिता जी को कैसे याद करती हैं?

उसे याद करने की जरूरत नहीं पड़ती। याद उनको किया जाता है, जिनको भुला दिया गया हो। मैं मेरी बहन को एक दिन भी नहीं भूल सकती। वो मेरे ख्वाबों में आकर मुझसे मिलती है। उसका बेटा है यहां, जो मेरे बेटे जैसा है। मैं जितनी औरतों के साथ काम करती हूं, जो दलित हैं, आदिवासी हैं, मार्जिनलाइज्ड हैं, उन सबमें मुझे स्मिता का काम दिखाई देता है, जिन महिलाओं को उसने स्क्रीन पर जिया। स्मिता को भूलने का सवाल ही नहीं।

उनका बचपन कैसा था? उनके साथ आपके बचपन के दिन कैसे थे?

वो खिलाड़ी थी। उसको खेलना बहुत पसंद था। वो स्पोर्ट्स में भाग लेती थी। उसको बहुत सारे अवार्ड्स भी मिले थे। हम दोनों ही बहनें पुणे के मराठी स्कूल में पढ़े। जब वह छोटी थी तब उसे स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता था। हमारी मां नर्स थीं। मां को साढ़े आठ बजे हॉस्पिटल जाना होता था, स्मिता सुबह से रोना शुरू कर देती थी और कहती थी कि तुम्हारे हॉस्पिटल और मेरे स्कूल को तोड़ दो ताकि न तुम हॉस्पिटल जाओ न मैं स्कूल। हम साथ रहेंगे। स्मिता मां से बहुत गहराई से जुड़ी थी। शी वाज ए वेरी हैप्पी चाइल्ड। उसके दिमाग में ये कभी नहीं था कि आगे जाकर एक्टिंग-वेक्टिंग करना है, फिल्म करना है।

फिल्मों की यात्रा कैसे शुरू हुई?

यह बिल्कुल अचानक हुआ। मेरी एक सहेली थी जो वर्ली में टीवी सेंटर में काम करती थी, ज्योत्सना किरपेकर। वो मराठी न्यूज रीडर थी। उसका पति मेडिकल कॉलेज में मेरा क्लासमेट था दीपक, जो अब जाना-माना न्यूरोलॉजिस्ट है। हम उससे मिलने हमेशा जाते थे। स्मिता को फोटो खिंचवाने का बहुत शौक था, तो एक बार हम टीवी सेंटर में ज्योत्सना को फोटो दिखाने के लिए गए। वर्ली सेंटर के चीफ कृष्णमूर्ति थे। जब हम फोटो दिखा रहे थे, तब कृष्णमूर्ति ने पूछा कि क्या कर रहे हो। दीपक ने फोटो दिखाया और कहा कि ये हमारी मॉडल है। फोटो देखकर कृष्णमूर्ति ने कहा ये लड़की बहुत फोटोजेनिक है। इसे लेकर आओ। मैं एक न्यूजरीडर ढूंढ रहा हूं। इस तरह वो टीवी सेंटर में इंटरव्यू देने चली गई। तब वह अठारह साल की भी नहीं हुई थी। स्मिता मल्टीलिंग्विस्ट थी। इस तरह उसने हिंदी न्यूज पढ़ना शुरू किया।

स्क्रीन पर बहुत सारे लोगों ने उसे देखा। उसमें दो बहुत बड़े फिल्म प्रोड्यूसर, एक्टर थे। वो दोनों अलग-अलग तरीके से स्मिता से मिलने आ गए। मनोज कुमार थे वो रोटी, कपड़ा और मकान के लिए आए थे। देव आनंद आए उनकी फिल्म का नाम मैं भूल गई। उन्होंने पूछा उससे कि काम करना है क्या। उसने कहा, नहीं, मुझे काम नहीं करना है। मेरी ऐसी कोई दिलचस्पी नहीं है। फिर वो चले गए। फिर श्याम बाबू यानी श्याम बेनेगल ने उसे स्क्रीन पर देखा। बोला शी इज वेरी ‘स्क्रीन-सूटेबल।’ तब उनका साउंड रिकॉर्डिस्ट हितेंद्र घोष घर पर मां से मिलने आए। स्मिता से मिलने वे हमेशा आते रहते थे। उसने मां को कहा कि श्याम बाबू ने स्मिता को बुलाया है। मां ने कहा कि ‘‘मुझे कुछ मत कहो, उसे जो करना है खुद करेगी। अगर वो चाहती है, तो तुम ले कर जाओ।’’ हितेंद्र लेकर गया। श्याम बाबू ने उसे देखा और उसे पहली फिल्म करने के लिए बोला। उसने मना कर दिया। फिर श्याम बाबू घर आए और मेरे पिता से बात की। कुछ मुलाकातों में श्याम बाबू और मेरे पिता की बड़ी अच्छी दोस्ती हो गई, क्योंकि मेरे पिता फ्रीडम फाइटर थे, श्याम बाबू तेलंगाना मूवमेंट से निकले थे। दोनों सोशलिस्ट थे। दोनों फिल्म बफ थे। तो उनकी बहुत बनी। दोनों ने मिलकर स्मिता को समझाया कि करके देखो, नहीं समझ में आए तो छोड़ देना। इस तरह श्याम बाबू ने उन्हें चरणदास चोर में पहली भूमिका दे दी।

उसके पहले एफटीआईआई में अरुण खेपकर ने स्टूडेंट फिल्म की थी। उसमें स्मिता का कुछ रोल था। पर वो उसने खेल-खेल में कर दिया था। अरुण खोपकर को कुछ मदद की जरूरत थी। उसने कहा था कि डेढ़ मिनट है और तुम ऐसा-ऐसा कर दो तो उसने किया था। लेकिन फिल्म में जाने का उसे कोई शौक नहीं था। फिर श्याम बाबू ने उसे समझाया। फिर भी उसने कभी फिल्म में जाने या एक्टिंग करने का नहीं सोचा था। उसने फिल्म भूमिका करने के बाद ही फिल्मी करियर को गंभीरता से लेना शुरू किया। तब तक ऐसा था कि श्याम बाबू ने बोला है तो कर लेती हूं।

ऐसा कोई किस्सा जो अभी भी याद हो?

एक दफा वो घर पर आई, तो मां ने बोला कि ‘‘कुछ टीवी के लोग तुमसे मिलने आने वाले हैं, तो अपना कमरा थोड़ा साफ कर लो।’’ हमारे घर नौकर नहीं थे। ऐसा बोलकर मां खाना बनाने चली गई। मां जब वापस आई, तो सब चीजे वैसे ही पड़ी हुई थीं। स्मिता नीचे लुढ़क कर फोन पर बातें कर रही थी। यह देखकर मां इतना गुस्सा हुईं कि उन्होंने स्केल से स्मिता की पिटाई कर दी। स्केल दो जगह से टूट गया। यह तब हुआ जब स्मिता भूमिका फिल्म कर चुकी थी, उसको नेशनल अवॉर्ड मिल चुका था। ये बात स्मिता ने अपने इंटरव्यू में खुद भी बताई थी। मां कहती थीं कि तुम्हारे सारे अवॉर्ड-फवॉर्ड घर की देहलीज के बाहर हैं। घर के अंदर तुम मेरी बेटी हो। मेरी मां का मेरी बहन पर इतना प्रभाव था कि फिल्म उम्बरठा में उसने, जो सुलभा की भूमिका की है, वो उसने मां को सामने रखते हुए की है। स्मिता का मां से बहुत गहरा नाता था।

उनकी किन भूमिकाओं, फिल्मों, कमर्शियल को बेहतर या सर्वश्रेष्ठ मानती हैं?

मैंने उनकी दो ही कमर्शियल फिल्में देखी है, शक्ति क्योंकि इसमें दिलीप साहब थे और नमक हलाल क्योंकि उसका एक गाना बहुत फेमस हो गया था। बाकी सारी फिल्मों में उन्होंने ऐसी भूमिका की जिसमें औरत खुद को ढूंढती है, और सोचती है कि उस कोशिश में उसका शौहर, उसकी फेमिली, उसका समाज उसे दोषी न ठहराए। उसके सारे कैरेक्टर ऐसे ही थे। सबसे बढ़िया बात थी कि उसने कई भाषाओं में फिल्में की- कन्नड, गुजराती, बंगाली, मलयालम। उसने अपने दौर के सबसे प्रसिद्ध डायरेक्टर्स के साथ काम किया- सत्यजीत रे से लेकर मृणाल दा, अरविंदन तक। हालांकि श्याम हमेशा उसके मेंटर रहे। ऐसा नहीं था कि वो उनके पास गई और कहा कि मुझे फिल्म दे दो। उन सारे डायरेक्टर्स ने ही उसे बुलाया और कहा कि हमारे साथ काम करो। और इसका मुझे बहुत गुरूर है।

पैरलल सिनेमा में स्मिता जी का बड़ा योगदान है, आप उनकी किस भूमिका को अपने करीब पाती हैं?

ऐसा कहना तो बड़ा कठिन है। लेकिन फिर भी मुझे भूमिका में उनको जो कैरेक्टर है वह खुद के बहुत करीब लगता है। वो ऐसी औरत है, जो जिंदगी के दो पहलुओं में अटक गई है। वो ये भी चाहती है और वो भी चाहती है। इसमें संघर्ष होता है। सबसे खास बात मेरी बहन में यह थी कि उसने खुद को किसी खास इमेज में नहीं फंसने दिया। इस बारे में मृणाल सेन ने बहुत अच्छी बात कही थी कि, ‘‘स्मिता जब स्क्रीन पर आती थी, तो कोई यह नहीं कहता था कि ये स्मिता पाटिल है। वो जो भी भूमिका निभाती है, उस भूमिका में इतनी खो जाती थी।’’ मुझे अपनी बहन को देखकर दुनिया में सिर्फ एक ही एक्टर की याद आती है, डैनियल डेलुइस, क्योंकि वह भी वैसा ही एक्टर है जो कैरेक्टर में समा जाते थे। आप उसे पहचान नहीं पाते हैं कि ये डैनियल डेलुइस है। ऐसी ही मेरी बहन थी।

एक आम लड़की जो आपके साथ पली-बढ़ी, फिर वो स्टार हो गई। स्टार बनने के बाद उनमें  क्या बदलाव आए?

कोई बदलाव नहीं आया। वो जैसे पहले थी, वैसे ही रही। सुप्रिया (पाठक) ने बाजार में उसके साथ काम किया था। साल बाद सुप्रिया उसके साथ फिर मिर्च मसाला में आईं। स्मिता के जाने के बाद सुप्रिया ने कहीं इंटरव्यू में कहा, ‘‘जो स्मिता मुझे मिर्च मसाला  में मिली वो वही स्मिता थी, जो मुझे बाजार में मिली थी। हालांकि तब तक वह स्टार बन चुकी थी। उसे बहुत अवॉर्ड्स मिल चुके थे। तब भी उसमें कोई फर्क नहीं आया था।’’ मेरे लिए मेरी बहन को मिला यह सबसे अच्छा कॉम्प्लिमेंट था। यही उसकी खासियत थी। उसे स्टारडम जैसी बातें कभी छू भी नहीं पाईं। उसे गए 40 साल हो जाएंगे लेकिन आज भी लोग उसके बारे में यहां-वहां लिखते रहते हैं। उसके जन्मदिन पर हजारों लोगों ने उसके बारे में कई बातें लिखीं। मैं सोचती हूं 40 साल बाद लोग उसे क्यों याद करते हैं? मेरा मानना है कि सबको लगता है कि उसका जाना उनका उनका पर्सनल लॉस है। लोग बहुत चाहत और रिस्पेक्ट से उसे याद करते हैं। उसने लोगों को कलाकार के साथ इंसान के नाते भी छुआ। उनके लिए वो एक्टर नहीं उनके घर की ही कोई सदस्य थी।

प्रतीक का लालन-पालन आपके पास हुआ। प्रतीक की एक्टिंग में स्मिता जी की झलक है?

एक बात जो न किसी ने स्मिता में एक्सप्लोर की न प्रतीक में। वह यह कि दोनों बहुत अच्छे  कमेडियन हैं। उनकी कॉमेडी टाइमिंग और सेंस बहुत अच्छा है। कॉमेडी के मामले में दोनों में बहुत समानता है। कॉमेडी आसान नहीं, बल्कि कठिन शैली है। जब प्रतीक ऐसा कुछ करता है, तो मुझे स्मिता की याद आ जाती है।

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