भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक स्वराज के चार मजबूत स्तंभों पर खड़े न्यायप्रिय और बंधुत्व से ओतप्रोत नागरिकों के पुरुषार्थ से आगे बढ़ रहे आत्मनिर्भर और संपन्न राष्ट्र की रचना के संकल्प की प्रेरणा थी। इसलिए हर स्वतंत्रता दिवस हमारे लिए इस संदर्भ में आत्ममूल्यांकन का अवसर होता है। इस दृष्टि से हम आज कहां तक पहुंचे हैं?
कुछ बातें साफ दिख रही हैं। राजनीतिक स्थिरता के बावजूद सामाजिक जीवन में जाति सौहार्द और सांप्रदायिक सहयोग को लेकर बेचैनी है। इसीलिए 2019 के चुनाव में ‘सबके विश्वास’ को हासिल करने का लक्ष्य प्रधान था। अर्थतंत्र में कॉरपोरेट के वर्चस्व के बाद कई समस्याएं समाधान की प्रतीक्षा कर रही हैं। हमारा राष्ट्रीय जीवन आध्यात्मिक स्वराज के बजाय सांप्रदायिक कट्टरता और ‘अन्यता’ के आतंक की बढ़ती परछाई से चिंतित है। इस तसवीर को जरा नजदीक से देखें।
स्कूली किताबों में लिखा गया है कि हमारा देश 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र हुआ। यह अर्ध-सत्य है। क्यों? क्योंकि स्वतंत्रता और स्वराज लेन–देन की वस्तु नहीं होती। यह बहुआयामी देशज वास्तविकता होती है और राजनीतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक स्वराज इसके अनिवार्य आयाम हैं। दुनियाभर में हर देश-समाज की व्यक्तियों, समुदायों और संस्थाओं के जरिए कुछ आदर्शों, मूल्यों और नियमों के आधार पर सामूहिक सहयोग से रचना की जाती है। यह आसान नहीं, क्योंकि स्वराज की राह में आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय चुनौतियां होती हैं।
आज की दुनिया में किसी भी राष्ट्र की समग्र स्वतंत्रता और पूर्ण-स्वराज बेहतर भविष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता हो चुकी है। इसको वर्तमान की कसौटी पर अपने अतीत के शुभ पक्षों से सजाया जाता है और अशुभ पक्षों से बचाया जाता है। इसमें विदेशी दुष्प्रभावों और अंदरूनी खराबियों, दोनों से मुक्ति की चुनौती रहती है। इसीलिए हर देश को स्वराज-रचना की कीमत अदा करनी पड़ती है।
भारत की स्वराज-यात्रा अतीतमुखी नहीं है। हमने अपने स्वतंत्रता आंदोलन के लक्ष्य के रूप में अंग्रेजों के विदेशी राज को हटाकर उसके पूर्व देश के विभिन्न भागों में चल रहे मुगल राज, मराठा राज, सिख राज, अहोम राज, राजपूत-जाट राज, मैसूर राज आदि को पुन:स्थापित करना नहीं रखा था। इन सभी के साझा दोषों से मुक्त भविष्यमुखी राष्ट्रीय नव-निर्माण का लोकतांत्रिक मार्ग अपनाने का संकल्प किया गया था।
भारत ने अपने ‘स्वराज-पथ’ को संविधान के जरिए चिह्नित किया है, जो स्वतंत्रता संग्राम के नायकों-नायिकाओं के मार्गदर्शन में 1946-1949 की अवधि में रचा गया। इसे देश ने 26 नवंबर 1949 को अंगीकार किया और तबसे हम इसी के आलोक में राष्ट्र के विऔपनिवेशीकरण, लोकतांत्रिकीकरण और समावेशी विकास की त्रिवेणी को प्रवहमान बनाने में जुटे हैं। दूसरे शब्दों में, राजनीतिक लोकतंत्र के साथ सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के लिए प्रयास करना हमारा राष्ट्रधर्म होगा। इसीलिए स्वाधीनोत्तर भारत के संविधान के पहले ही पृष्ठ पर ‘उद्देशिका’ के रूप में दो-टूक शब्दों में समस्त नागरिकों के लिए चार आश्वासन दिए गए हैं: 1. सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, 2. विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, 3. प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त करने के लिए और 4. व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता आश्वस्त करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए ही देशवासी संकल्पबद्ध होंगे। यही 1949 के बाद के राष्ट्रीय जीवन में देशभक्ति का अर्थ होगा। इसी के समानांतर विधि के समक्ष समता का वादा है। इसके विपरीत धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव या व्यक्तिगत मर्यादा और प्राण की सुरक्षा की अवहेलना संविधान का अपमान अर्थात राष्ट्रधर्म का उल्लंघन है, राष्ट्रीय एकता का क्षय है।
इस प्रसंग में भी कुछ स्पष्टता की जरूरत है। पहला, 26 जनवरी 1950 से अपनाए गए भारतीय संविधान में अनेक युगांतरकारी प्रावधानों जैसे सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, अस्पृश्यता-उन्मूलन, धर्म-व्यवसाय-निवास क्षेत्र संबंधी आजादी, शोषण के विरुद्ध अधिकार और राज्य के कल्याणकारी नीति-निर्देशक तत्वों के बावजूद इसकी महत्ता को लेकर शुरू से विवाद बना हुआ है, क्योंकि इसकी रचना वयस्क मताधिकार के बजाय सीमित मताधिकार से चुनी गई प्रतिनिधि सभा ने किया है। इसके लिए मतदान का अधिकार कुल 10 प्रतिशत लोगों को ही था। दूसरे, इस संविधान निर्माण की प्रक्रिया में समाजवादियों, कम्युनिस्ट, हिंदुत्ववादियों और मुस्लिम लीग ने हिस्सा नहीं लिया था। कई रियासतों के लोगों की भी हिस्सेदारी नहीं थी। तीसरे, संविधान में अब तक 103 बार संशोधन हो चुके हैं। चौथे, संविधान में 1975 की इमरजेंसी के दौरान ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को भारतीय गणतंत्र के मूल तत्वों में जोड़ा गया। दोनों ही नए मूल्यों को लेकर धर्म-निरपेक्षता विरोधी मंचों और समाजवाद के आलोचकों की ओर से लगातार असहमति के स्वर सुनाई पड़ते हैं।
फिर भी यह मामूली संतोष की बात नहीं है कि हम लिखित संविधान के आधार पर इस सफर में सात दशक के दौरान राष्ट्रीय एकता और प्रगति की दिशा में कुछ फिसलनों के बावजूद आगे बढ़े हैं। ब्रिटिश राज के दो सदियों के व्यापक दोहन और ग्रामीण संपत्ति व्यवस्था तथा जाति-व्यवस्था की भयानक विषमता के कारण निरक्षरता और निर्धनता के दो पाटों में फंसे करोड़ों स्त्री-पुरुषों के जीवन में स्वराज-यात्रा की प्रगति से उत्पन्न प्रकाश की किरणें बढ़ी हैं। लोकतंत्र की निरंतरता के कारण राज्य सत्ता के सामाजिक आधार के क्रमिक विस्तार से सामाजिक अन्याय की जड़ें कमजोर हुई हैं। आर्थिक मोर्चे पर स्वावलंबन की दिशा में उठे राष्ट्रीय कदमों के कारण कृषि, उद्योग और वाणिज्य में हम विश्व-व्यवस्था में कुछ हद तक स्वायत्तता हासिल कर चुके हैं। लेकिन अभी हमारी छवि बहुत आकर्षक नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की गणना में 188 देशों के बीच भारत 130वें स्थान पर पहुंच पाया है। अर्थात हम अब भी एक मझोले कद के देश बन पाए हैं। देश के अंदर की दशा तो और भी शोचनीय है क्योंकि राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और असम तो देश के राष्ट्रीय औसत से भी नीचे फंसे हुए हैं।
वैसे यह आसान दौर नहीं रहा है। आरंभिक दशकों से लेकर अब तक भाषा, सांस्कृतिक अस्मिता और आंतरिक औपनिवेशिकता के आधार पर क्षेत्रीय अलगाववाद की अनेक लहरें उठी हैं। इसके लिए भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन से लेकर बड़े प्रदेशों के पिछड़े हिस्सों को भाषा की एकरूपता के बावजूद नए प्रदेश के रूप में नई पहचान देने तक कई उपाय करने पड़े।
इस दौरान देश पर कई विदेशी हमले हुए– 1948, 1962, 1965, 1971 और 1999 में। युद्ध अपने आप में महंगा सौदा होता है। इससे शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास आदि के मदों में कटौती करके राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए साधन जुटाने पड़ते हैं। इसलिए हर युद्ध ने हमारे राष्ट्रीय नव-निर्माण में गतिरोधक का काम किया। इससे हमलावर पड़ोसियों के प्रति शत्रुभाव भी गहराता रहा है, जिसने धीरे-धीरे हमें एक शांतिदूत देश के बजाय परमाणु शस्त्र से लैस देश में बदल दिया।
फिर एक बार तो देश की ही लोकतांत्रिक सरकार ने ‘आंतरिक अराजकता’ का कारण बताकर 1975-77 के दौरान 21 महीने तक हमारी सभी स्वतंत्रताओं को प्रतिबंधित कर दिया था। हमने लोकतंत्र को पुन: प्राणवान बनाया। लेकिन इंदिरा गांधी के 1971 के आम चुनाव के ‘गरीबी हटाओ’ के नारे की 1975 में तानाशाही में परिणति और 1977-80 की प्रथम केंद्रीय गैर-कांग्रेसी (जनता पार्टी) सरकार की अल्पजीवी योजनाओं की प्रभावहीनता से पैदा मोहभंग के बाद 1980 के दशक से गरीबी और गैर-बराबरी से मुक्ति का संकल्प लगातार कमजोर हुआ है।
सत्ता के केंद्रीकरण के विरुद्ध संविधान में 73वें–74वें संशोधन के बावजूद नेताशाही-बाबूशाही-थैलीशाही की त्रिकोणीय सत्ता बढ़ी है। इसे सूचना के अधिकार और लोकपाल व्यवस्था के आधे-अधूरे कार्यान्वयन से काबू में नहीं लाया जा सका है। लेकिन 1992 से केंद्र और प्रदेश सरकारों ने ‘नई’ आर्थिक नीतियों के साथ नब्बे के दशक से वैश्विक आर्थिक ताकतों ने बाजारीकरण के जरिए देश के आम औरत और आदमी को हाशिए पर ढकेल दिया। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, रोजगार, पानी, बिजली, यातायात और मनोरंजन तक को व्यवसायीकरण के हवाले करते देखा गया। इससे समता की कीमत पर संपन्नता की वासना प्रबल हो गई है। आज समता से ज्यादा संपन्नता का आग्रह है।
नब्बे के दशक में ही देश की राजसत्ता और अर्थतंत्र में बाजारवाद की वैश्विक शक्तियों के बढ़ते असर के समानांतर भारतीय समाज में अस्मिता चेतना की लहरें बढ़ीं और राजनीति के समीकरणों में भी बुनियादी बदलाव हुए। धर्म, जाति, स्त्री की दुर्दशा और दलितों-आदिवासियों के सवाल राष्ट्रीय मंच पर स्थापित हो गए। ‘सामाजिक न्याय’ के मंच से मध्यम जातियों द्वारा राजनीतिक समीकरणों को बदलने में सफलता मिली। इसकी अभिव्यक्ति ‘अन्य पिछड़े वर्गों’ के लिए शिक्षा और सरकारी रोजगार में 27 प्रतिशत देशव्यापी आरक्षण के रूप में सामने आई। इसे ‘मंडलीकरण’ की राजनीति कहा गया। इसने समाज परिवर्तन में निहित ‘संस्कृतिकरण’ की प्रक्रिया की जगह जाति अस्मिता को प्रबलता दी।
इस बीच मंडलीकरण ने सभी प्रभुजातियों के बीच जबरदस्त ईर्ष्या भावना को भड़काया। इसलिए पहले अवसर की समानता के पवित्र संवैधानिक आदर्श की दुहाई देकर ‘सामाजिक जनतंत्र मूलक आरक्षण व्यवस्था’ का विरोध हुआ, फिर अपने ‘शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन’ की दुहाई देकर आरक्षण की मांग फैलने लगी। इनके मनबहलाव के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की नीति भी 2019 से लागू करा दी गई है। दूसरे, राजनीतिक लोकतंत्र के जरिए सामाजिक लोकतंत्र की ओर दिशा परिवर्तन से दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों की वोट-शक्ति का महत्व बढ़ा। दलितों-आदिवासियों में वामपंथी प्रभाव का विस्तार बढ़ा और कम से कम 250 जिले ‘वामपंथी उग्रता’ से प्रभावित होने के कारण चिह्नित किए गए। तिरुपतिनाथ (आंध्र प्रदेश) से लेकर पशुपतिनाथ (नेपाल) तक एक चौड़ी ‘लाल पट्टी’ को पहचान मिली, जिससे बाद में सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर 2006 में ‘वन अधिकार कानून’ जैसे नए प्रावधानों की व्यवस्था को आकार दिया गया।
पश्चिमीकरण और आधुनिकीकरण के अंतर्विरोधों के प्रतिउत्तर में औपनिवेशिक राज में उपेक्षित सांस्कृतिक अस्मिताओं का उभरकर सामने आना हमारी स्वराज-यात्रा में निहित ‘विऔपनिवेशीकरण’ से जुड़ा एक आयाम है। लेकिन इससे हमारी ‘बंधुता’ की कमी और बढ़ गई है। बिना बंधुत्व को बल दिए समूचा लोकतांत्रिक ढांचा सत्ता के लिए भूखे भेड़ियों के आघातों से जर्जर होने को अभिशप्त हो चुका है।
अस्मिता की धार्मिक अभिव्यक्ति को मंदिर-मस्जिद विवादों से सामाजिक-सांस्कृतिक आधार मिला। सांप्रदायिकता की राजनीति से संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद हिला दी गई। धार्मिक विभेदों का राजनीतिकरण करके ‘अन्यता’ के प्रति असहिष्णुता को प्रबलता दी गई। इसमें हिंदू, मुस्लिम और सिखों के बीच सघन अभियान चलाए गए। हिंदू अस्मिता को केंद्र में रखकर ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का अभियान चलाया गया। अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्मभूमि विवाद का दशकों पुराना मुद्दा देशव्यापी ‘हिंदू जागरण और आंदोलन’ का आधार बना। इसकी प्रतिक्रिया में ‘बाबरी मस्जिद एेक्शन कमेटी’ भी अस्तित्व में आई। 6 दिसंबर 1992 को राम मंदिर आंदोलन के आवाहन पर देशभर से भीड़ को इकठ्ठा करके अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ध्वंस किया गया। इससे देश भर में कई स्थानों पर हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए।
इसी तरह सिख अलगाववाद की जड़ें 1946-48 में हुए भारत-विभाजन से जुड़ी थीं। पंजाबी सूबा बनाने के आंदोलन से 1966 में जन्मे पंजाब प्रदेश के कारण यह अगले कई बरसों तक सुप्तावस्था में रहा। लेकिन 1970-90 के दो दशकों में इसमें क्रमश: लोकप्रियता और उग्रता आई। इसे अंतरराष्ट्रीय सिख प्रवासी समुदाय से भी समर्थन मिला। पंजाब और पड़ोसी राज्यों पर इसका एक दशक तक प्रतिकूल प्रभाव रहा। इस दौरान अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर को सेना की कार्रवाई से क्षति पहुंची। 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई, जिसकी प्रतिक्रिया में दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में सिखों का नरसंहार किया गया। आज भी देश के सांस्कृतिक-सामुदायिक जीवन में हिंदू अस्मिता, मुस्लिम सरोकार और सिखों के प्रश्नों से उपजे इन आंदोलनों की गंध और धमक सुनी जा सकती है।
‘नई आर्थिक नीतियों’ के तीन दशकों के दौरान तीन समस्याओं को अप्रत्याशित विस्तार मिला है। तीनों ने संसदीय जनतंत्र को सहभागी लोकतंत्र की ओर बढ़ने से रोका है। एक, 1992 से हो रहे हर आम चुनाव के दौरान देश के जनतंत्र पर धनतंत्र, विशेषकर प्रदूषित देसी-विदेशी पूंजी, का ग्रहण लगने लगा है। समूची दलीय-व्यवस्था पिघल गई है। परिवारवाद, पैसावाद और संसदवाद ने हर वैचारिक प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया है। सिद्धांतहीन राजनीति से लोकतंत्र के शरीर में सामंतवाद की आत्मा प्रवेश कर गई है।
दूसरे, पूंजीवाद के लाभ तो सिर्फ साधन-संपन्न जमातों के खाते में गए हैं। पूंजीवाद के दोष से किसान, दस्तकार, छोटे उद्यमी और व्यवसायी त्रस्त हैं। आर्थिक न्याय राजनीतिक विमर्श में हाशिए पर ढकेला जा रहा है। इसमें भारत के मजदूर आंदोलन की कोई सुनवाई नहीं बची है।
तीसरे, उच्चस्तरीय आर्थिक-राजनीतिक भ्रष्टाचार की प्रबलता से समूचा संसदीय प्रबंध हाशिए की ओर जा रहा है। मंत्रालयों से लेकर बैंकों और विश्वविद्यालयों के प्रबंधन में न जवाबदेही, न पारदर्शिता, न नियमपालन, न लोकहित है। आर्थिक सुधार चोट पहुंचाने वाले साबित हुए हैं। बैंकों से लिए गए कर्ज में हुए घोटालों ने अर्थव्यवस्था में बैंकों की भूमिका नकारात्मक बना दी है। आमदनी में गिरावट और कृषि में बढ़ते कर्ज से देसी बाजार में मांग में गिरावट आई है। अर्थव्यवस्था के 16 संकेतकों में से साल भर से सात में गिरावट दर्ज हो रही है। फिर रोजगार कहां से पैदा हो और बेरोजगारी कैसे घटेगी?
देश की 65 प्रतिशत आबादी युवा है, लेकिन इस माहौल में युवाओं के सपनों का क्या होगा? बिना युवाओं को केंद्र में रखे स्वराज-यात्रा को अगले पड़ाव तक ले चलने के लिए सक्षम वाहक कहां से आएंगे?
(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार, जेएनयू में समाज विज्ञान विभाग के प्रोफेसर रहे हैं)