वाकया 22 फरवरी, 2009 की हल्की सर्द दोपहर का है। कोलकाता के साल्ट लेक स्टेडियम में बड़ी संख्या में उदास-से मन ही मन कोसते फुटबॉल प्रशंसकों को कुछ अलग देखने को मिला। ईस्ट बंगाल टीम के हाल में नियुक्त कोच थुलथुले-से सुभाष भौमिक लाल और पीली जर्सी पहने उसी रंग के बैनर-फेस्टून लहराते दर्शकों के एक स्टैंड की ओर तेज कदमों से बढ़े और खुद ही मानो चीयरलीडर बन गए। ऊंची आवाज में उनके नारों से गुमसुम-से बैठे दर्शकों का भी जोरदार कोलाहल गूंजने लगा। यह सिलसिला घंटे भर पहले शुरू हुआ और मैच शुरू होने तक बुलंदी पर पहुंच गया। वह आइ-लीग मैच था। अपने चिर प्रतिद्वंद्वी मोहन बागान के खिलाफ निराशाजनक रिकॉर्ड के साथ ईस्ट बंगाल टीम मानो रस्म अदायगी के लिए डर्बी मैच में उतरी थी।
अगस्त 2007 से शुरू हुए नौ डर्बी मैचों में से छह मैचों में ईस्ट बंगाल हरे और कत्थई रंग की जर्सी वाले मोहन बागान से हार चुकी थी। हैरान-परेशान ईस्ट बंगाल क्लब के प्रबंधकों ने भौमिक से टीम को लगातार हार के अपमान से उबारने के लिए मदद मांगी, जो सालगावकर क्लब के कोच पद से इस्तीफा देकर शांतिनिकेतन में आराम फरमा रहे थे। 2008 में क्रिसमस डे पर भौमिक ने आगामी आइएफए शील्ड और आइ-लीग (नेशनल लीग) के लिए स्टेनले रोजारिया का स्थान ले लिया। ईस्ट बंगाल के कोच के तौर पर यह उनका तीसरा कार्यकाल था। इससे पहले 2001-04 के बीच लाल-पीली जर्सी वाली टीम के कोच के तौर पर उनका पिछला कार्यकाल शानदार रहा था। क्लब ने दर्जन भर ट्रॉफी जीती थी। जुलाई 2003 में एशियन क्लब कप की विजय खास थी।
भौमिक याद करते हैं, “जब मैं पहुंचा, क्लब का मनोबल गिरा हुआ था और खिलाड़ियों का आत्मविश्वास डगमगाया हुआ था। अगले कुछ हफ्तों में आइ-लीग मैच के दूसरे दौर में मोहन बागान से मुकाबला था। मैंने ठान लिया कि इस मैच में सब कुछ बदलना है। हम कड़ा अभ्यास कर रहे थे, लेकिन मुझे एहसास था कि हमारे खिलाड़ियों को एक ही चीज प्रेरित कर सकती है, वह है, प्रशंसकों का जोश। मैच शुरू होने से पहले मैं ईस्ट बंगाल फैन वाले स्टैंड में गया और बैंड मास्टर की तरह खिलाड़ियों का मूड बदलने के लिए प्रशंसकों में जोश भरने में जुट गया। टीम के लिए प्रशंसकों का जोशीला समर्थन काफी था। हमने मोहन बागान को 3-0 से हरा दिया। एक लाख प्रशंसकों का जोशीला शोर बहुत मायने रखता है।”
दुनिया भर में भव्य खेल आयोजनों में जब भी ठहराव-सा आता है, मैदान खाली होने लगता है, या फिर हाई-वोल्टेज हंगामा ठंडा पड़ जाता है, तो ये तरीके अपनाए जाते हैं। कोविड-19 के कारण कई हफ्तों के लॉकडाउन के बाद 16 मई को प्रोफेशनल खेल बुंदेसलिगा के साथ पूरी एहतियात बरतते हुए शुरू हुए। जर्मन फुटबॉल लीग के बाद इंग्लिश प्रीमियर लीग, स्पेनिश और इटैलियन चैंपियनशिप शुरू हुईं। खाली स्टेडियमों में खेलों का आयोजन नया चलन बन गया है। आउटडोर खेलों पर अजीब-सा माहौल तारी हो गया है।
नीदरलैंड की यूनिवर्सिटी ऑफ ग्रोनिंजेन में स्पोर्ट्स ऐंड परफॉरमेंस साइकोलॉजी के रिसर्चर निकलस डी. न्यूमैन बताते हैं, “ऐसे दौर का एक अहम सबक वह है, जैसा चार्ल्स डार्विन ने कहा है कि जो बेहतरीन उपायों में काबिल होगा, वही बचा रहेगा। फर्क बस यह है कि मौजूदा दौर में अस्तित्व का संकट कम, हालात के मुताबिक ढलने और कोशिश करने का मामला ज्यादा है।” न्यूमैन कहते हैं, “बदलते हालात वाली दुनिया में खिलाड़ियों में उसके अनुकूल ढलने की क्षमता होनी चाहिए।”
भारत की दो महानतम खेल हस्तियां- सचिन तेंडुलकर और एम.सी. मेरीकॉम मानती हैं कि खाली स्टेडियम से जोश मंद पड़ सकता है। उसैन बोल्ट जैसे हाई परफॉरमेंस एथलीटों को प्रशंसकों से ऊर्जा मिलती है, जबकि तेंडुलकर मानते हैं कि नई सोशल डिस्टेंसिंग आउटडोर खेल में लागू नहीं हो सकती। सचिन ईडेन गार्डेन में लगातार उठते शोर को याद करते हैं, “मैं हमेशा कोलकाता (ईडन गार्डेन), चेन्नै (चेपक) और मुंबई (वानखेड़े) में खेलने को उत्साहित रहता था। प्रशंसकों का हुजूम चारों ओर रहता। वे खेल की हर बारीकी समझते, और जोश-जुनून फिजा में घुली रहती। उनके होने से हमारा उत्साह दोगुना हो जाता है।” छह बार वर्ल्ड एमेच्योर बॉक्सिंग चैंपियन मेरीकॉम भी इसी तरह की राय रखती हैं। मेरीकॉम कहती हैं, “खाली स्टेडियम का मतलब उत्तेजना गायब। इससे हमारा जज्बा घट जाता है। प्रशंसकों और परिजनों के उत्साह से हमारा हौसला कई गुना बढ़ जाता है।”
फुटबॉल या क्रिकेट के विपरीत जहां टीमें चीखती-चिल्लाती, यहां तक कि डरावनी ‘हुह’ जैसी आवाजें निकालती हैं, इससे ‘डोपामाइन इफेक्ट’ को बढ़ावा मिलता है। स्पोर्ट्स ऐंड परफॉरमेंस साइक्लॉजिस्ट डॉ. चैतन्य श्रीधर कहते हैं, “हर खिलाड़ी अलग-अलग तरीके से इस आवाज को एडजस्ट कर लेता है।” डोपामाइन हारमोन नर्व सेल्स को संकेत भेजता है। यह हमारे मूड को नियंत्रित करता है। यही हंसी-खुशी और भावनाओं में उफान लाता है।
तोक्यो जाने वाले शूटर अंगद बाजवा (शॉटगन) और अंजुम मुदगिल (राइफल) कहते हैं कि शोर-शराबा उनके खेल में कोई मायने नहीं रखता, क्योंकि इसमें एकाग्र ध्यान और लक्ष्य पर एकदम सटीक निशाने से मतलब होता है। बाजवा कहते हैं, “हम शूटिंग स्टेशन पर पहुंचने के बाद हर चीज से दूर हो जाते हैं। हम इतने एकाग्रचित्त हो जाते हैं कि बाकी कुछ सुनाई नहीं पड़ता।” इंडियन प्रीमियर लीग और इंग्लिश प्रीमियर लीग जैसे बड़े खेल आयोजनों में वर्चुअल फैंस और क्राउड सिमुलेशन के प्रयास शुरू हो चुके हैं, जहां वैश्विक प्रसारण अधिकार अरबों डॉलर में बिके हैं। लेकिन डॉ. श्रीधर कहते हैं, “वर्चुअल कभी भी असली का स्थान नहीं ले सकता है। अंततः खिलाड़ियों को नए हालात के अनुसार खुद को ढालना ही होगा क्योंकि प्रदर्शन से कमाई सीधे जुड़ी हुई है।”
घरेलू मैदान में खेलने के फायदे का कंसेप्ट भी अब बदल गया है। दिलचस्प है कि फुटबॉल में घरेलू मैदान में खेलने के फायदे का ट्रेंड भी बदलता जा रहा है। घरेलू मैदान में जीत और हार का अनुपात पहले 60 फीसदी और 40 फीसदी था, लेकिन अब यह बिलकुल उलटा हो चुका है।
विवादास्पद एड्रिया टुअर में अपनी भूमिका के लिए नोवाक जोकोविच को क्रोएशिया में जान से मारने की धमकियां मिलीं, तो आयोजकों को निकट भविष्य में अपना खजाना भरने के लिए खेल आयोजनों के बारे में पुनर्विचार करना होगा। दुनिया के नंबर वन टेनिस खिलाड़ी के चैरिटी टूर्नामेंट में सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ने के बाद वह क्रोएशियाई शहर कोविड हॉटस्पॉट बन गया। न सिर्फ जोकोविक और उनकी पत्नी जेलेना संक्रमित हो गईं, बल्कि कोच गोरान इवानिसेविच और अन्य खिलाड़ी जैसे ग्रिगोर दिमित्रोव, बोरना कोरिक और विक्टर त्रोइकी सभी वायरस की चपेट में आ गए। तेंडुलकर पूछते हैं, “आखिर सुरक्षा नियमों की परवाह न करके ऐसे खेल आयोजनों की जल्दबाजी का क्या मतलब है?” डॉ. श्रीधर भी कहते हैं कि ऐसी मूर्खतापूर्ण जल्दबाजी से नुकसान ही होगा। पिछले 24 मार्च को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन की घोषणा की थी, विराट कोहली, तेंडुलकर और मेरीकॉम जैसी खेल हस्तियों ने सोशल डिस्टेंसिंग और अन्य एहतियात पर जोर देने के लिए कई अभियानों में हिस्सा लिया था। अब वक्त है कि दूसरे खिलाड़ियों को भी ऐसा ही करना चाहिए। खेल स्वास्थ्य का सामाजिक संदेश दे सकते हैं, क्योंकि अच्छे अभियान या फिर साइकिल रैली से टीवी विज्ञापन के मुकाबले अधिक मुकम्मल संदेश मिलेगा।
भीड़ हौसलाअफजाई कर सकती है। मेरा ईस्ट बंगाल के प्रशंसकों से भावनात्मक जुड़ाव रहा है। कड़ी टक्कर वाले मैचों में प्रशंसक हमारा प्रदर्शन कम से कम 40 फीसदी बेहतर कर देते थे। जब मैच अतिरिक्त समय तक खिंचते थे, तो हमारी थकान भरी टांगों को भीड़ के समर्थन से ऊर्जा मिलती थी
बाईचुंग भूटिया, भारतीय फुटबॉल के पूर्व कप्तान
कई टूर्नामेंटों में हमें बहुत कम दर्शक दिखाई दिए। न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों को छोड़कर आपको कहीं भी महिला हॉकी के लिए भीड़ नहीं मिलेगी। मुझे नहीं लगता, इससे हम पर असर पड़ेगा। सभी की सुरक्षा महत्वपूर्ण है। खेल न होने से हर हाल में बेहतर है दर्शक रहित आयोजन हों
रानी, भारतीय महिला हॉकी की कप्तान
जब तक कोविड-19 की वैक्सीन नहीं बन जाती है, तब तक कांटैक्ट स्पोर्ट्स नहीं होने चाहिए। स्टेडियम में दर्शकों का होना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे उत्साह बढ़ता है और अलग तरह की ऊर्जा मिलती है। लेकिन अभी प्रतियोगिताओं पर रोक रहनी चाहिए
वीरेंदर सिंह, प्रोफेशनल बॉक्सर