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मीडिया, राजनीति और स्वतंत्रता

व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने के लिए सत्ता के दुरुपयोग की बढ़ती मिसालें बेहद चिंताजनक हैं। सो, मानहानि को दीवानी मामला बनाना भी जरूरी
पिछले कुछ दिनों में ऐसा बहुत कुछ घटा है जिससे सत्ता के दुरुपयोग और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर गंभीर सवाल खड़े होने लगे हैं

आखिर सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि संविधान में प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी की कतई अवहेलना नहीं की जा सकती। लेकिन पिछले कुछ दिनों में ऐसा बहुत कुछ घटा है जिससे सत्ता के दुरुपयोग और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर गंभीर सवाल खड़े होने लगे हैं। मीडिया पर सत्ताधारियों की भाषा बोलने को विवश करने के लिए गैर-जरूरी कठोर कानूनी कार्रवाई करने के उदाहरण भी बढ़ते जा रहे हैं। मौजूदा मामला दिल्ली के एक स्वतंत्र पत्रकार प्रशांत कनौजिया का है, जिन्हें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ से जुड़े एक वीडियो को शेयर करने और आपत्तिजनक ट्वीट करने के आरोप में राज्य की पुलिस ने दिल्ली से गिरफ्तार कर लिया। मीडिया संगठनों और एडिटर्स गिल्ड ने इसे दमनात्मक कार्रवाई माना। सुप्रीम कोर्ट ने भी प्रशांत कनौजिया को तुरंत रिहा करने का आदेश दिया। अदालत ने गिरफ्तारी को पूरी तरह से गलत बताया और राज्य की पुलिस को फटकार लगाई। हालांकि न्यायालय ने यह भी कहा कि वह कनौजिया की पोस्ट को जायज नहीं ठहराता है और कानूनी प्रक्रिया जारी रहेगी, लेकिन राज्य को उदारता बरतनी चाहिए।

बात केवल एक प्रशांत कनौजिया की नहीं है। नोएडा स्थित एक निजी न्यूज चैनल नेशन लाइव के तीन पत्रकारों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। वजह चैनल में आदित्यनाथ के साथ संबंध बताने वाली महिला से जुड़े मुद्दे पर डिबेट है। हालांकि आलोचना बढ़ने पर सरकार ने कार्रवाई से पल्ला झाड़ लिया और स्थानीय प्रशासन ने कानून-व्यवस्था और सांप्रदायिक सद्‍भाव बिगड़ने की आशंका को कार्रवाई की वजह बताया। चैनल को जरूरी कानूनी मान्यता नहीं होने की बात भी कही गई। लेकिन अगर ऐसा था तो इस खबर और डिबेट के पहले तक यह चैनल कैसे चल रहा था, इसका जवाब भी प्रशासन को देना चाहिए। कुल मिलाकर, मामला मीडिया पर अंकुश और अभिव्यक्ति की आजादी के हनन का है, जिसके लिए सत्ता की ताकत का दुरुपयोग साफ दिखता है।

बात केवल उत्तर प्रदेश की ही नहीं है। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल में भाजपा की एक कार्यकर्ता को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की एक मीम सोशल मीडिया पर डालने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था। इस कार्यकर्ता को भी सुप्रीम कोर्ट से ही जमानत मिली थी। इसके पहले मणिपुर के मुख्यमंत्री पर टिप्पणी करने के मामले में राज्य के पत्रकार किशोरचंद्र वानखेम को जेल में रहना पड़ा था। उन पर तो रासुका लगा दिया गया था। ओडिशा सरकार ने भी एक लेखक-पत्रकार को ट्वीट करने के लिए गिरफ्तार किया था, जिससे कथित तौर पर राज्य की संस्कृति को ठेस पहुंची थी। इस तरह के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। इनको लेकर शोर मचता है और बात आगे बढ़ जाती है, उसके बाद फिर एक नया मामला आ जाता है।

असल में यह सब तब तक चलता रहेगा जब तक मानहानि को क्रिमिनल ऑफेंस मानने का कानून मौजूद रहेगा। इसलिए इसे दीवानी मामला बनाने की जरूरत है। वैसे भी पुलिस स्थानीय सरकार के आदेश के तहत काम करती है और राजनैतिक आकाओं को खुश करना ही उसकी प्राथमिकता बन जाती है। नेताओं से जुड़े मामलों में वह स्वतःस्फूर्त संज्ञान ले लेती है जो हाल के मामलों में दिख रहा है। हालांकि मीडिया को भी अपने गिरेबां में झांकने की जरूरत है क्योंकि फेक न्यूज का वह शिकार ही नहीं होता, कुछ मीडियाकर्मियों के इसमें भागीदार बन जाने की भी शिकायतें हैं।

ऐसा ही चिंताजनक मामला क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों के खातिर हत्या और बलात्कार तक के मामलों को सांप्रदायिक रंग देने की राजनैतिक नेताओं और कुछ मामलों में मीडिया की संदिग्‍ध भूमिका भी है। मसलन, उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले में एक दो साल की बच्ची की नृशंस हत्या को लेकर जो आक्रोश पैदा हुआ है, वह जायज है और दोषियों को सख्त सजा मिलनी चाहिए। लेकिन इसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशें पूरे मामले को गलत दिशा में ले जा सकती हैं।

इत्तेफाक से इसी समय जम्मू-कश्मीर के कठुआ में एक बच्ची के साथ हुए बलात्कार और नृशंस हत्या के मामले में अदालत का फैसला भी आया है। इसकी अदालती कार्रवाई राज्य के बाहर चली। अदालत ने तीन दोषियों को उम्रकैद और तीन पुलिसवालों को साक्ष्य नष्ट करने के लिए पांच-पांच साल की सजा सुनाई है। इस मामले को भी सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई थी। जब यह घटना घटी थी, तब राज्य की भाजपा-पीडीपी सरकार के दो मंत्रियों ने आरोपियों के पक्ष में इसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की थी। यही नहीं, देश के झंडे का दुरुपयोग करते हुए आरोपियों के पक्ष में तिरंगा यात्रा भी निकाली गई थी। हालांकि, दोनों मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा था लेकिन सांप्रदायिकता को राजनैतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने का यह बे‌हद घृणित उदाहरण है।

कठुआ मामले में कुछ समाचार पत्रों ने भ्रामक समाचार छापने में कोई संकोच नहीं किया था। यह चौथे स्तंभ के भविष्य के लिए भी चिंता पैदा करता है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को नेताओं, प्रशासन और मीडिया को भी ध्यान में रखना चाहिए।

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