महात्मा गांधी के शुरुआती जीवन और उनके बुनियादी चरित्र के निर्धारण में अब तीन महिलाओं- मां पुतली बाई, घरेलू सहयोगी रंभा और पत्नी कस्तूरबा के योगदान को स्वीकार किया जाने लगा है। मां समेत इन तीनों के योगदान को गांधी ने खुद अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है और कुछ प्रसंग भी दिए हैं जिनका असर जीवन भर रहा, गांधी के स्वभाव में उसका योगदान रहा। सत्य को प्रत्यक्ष देखे या अनुभव बगैर स्वीकार न करना एक प्रसंग है जो मां के उपवास और चंद्रमा के बादलों में छुप जाने से उपवास न तोड़ने की कहानी के रूप में आया है और बहुत अच्छी तरह अपनी कहानी बताता जाता है। राम का नाम निर्भय बनाता है, यह मंत्र रंभा का दिया हुआ था, और कस्तूरबा तो जीवन भर की सबसे मजबूत स्तंभ रहीं।
जब गांधी पर दूसरे प्रमुख प्रभावों की चर्चा होती है तो हम फौरन रस्किन, थोरो और टॉलस्टाय पर चले जाते हैं जिनके प्रभाव को कौन अस्वीकार करेगा और खुद गांधी ने भी उन्हें उसे श्रद्धा से याद किया है, लेकिन गांधी की आत्मकथा और दूसरे अन्य स्रोत उनके पिता करमचंद गांधी उर्फ काबा गांधी के प्रभावों की जो चर्चा करते हैं उसको लेकर ज्यादा कुछ नहीं कहा जाता। होना ठीक उलटा चाहिए था। नन्हे गांधी को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाला और उनके अंदर फौलादी इरादों से लेकर एक करुणा भरा दिल बनाने में उनके पिता का जितना बड़ा योगदान था, उतना किसी और का नहीं दिखता।
बेटा बाप का नाम लेकर समाज में जाता है और उसी से उसकी पहचान बनती है। इस सामान्य नियम ने भी विराट व्यक्तित्व वाले गांधी के आगे काबा गांधी की चर्चा को कम किया है। फिर यह बात ज्यादा प्रभावी रही है कि वे ज्यादा समय जिंदा न रहे और उन्होंने गांधी के जीवन को अन्य पिताओं की तरह ज्यादा दिन तक अपने हिसाब से चलाने का प्रयास नहीं किया। यह काम गांधी के बड़े भाई लक्ष्मीदास ने किया जिनका सफेद पक्ष जितना आया है, उतना ही स्याह या सामान्य दुनियादारी वाला पक्ष आया है जिसे खुद गांधी पसंद नहीं करते और उसके चलते गांधी ने उनसे रिश्ता तोड़ लिया। फिर जो उनके जीवन में अन्य पुरुष पात्र आते हैं, वे अनेक सारी दुष्टताएं सिखाते हैं, जिनकी चर्चा के बीच गांधी अपने विकास की कहानी सुनाते हैं। शायद इस वजह से भी करमचंद गांधी वाले प्रसंग ओट में चले जाते हैं।
गांधी के पिता दीवान करमचंद उर्फ काबा गांधी
लेकिन हम पाते हैं कि गांधी अपने दादा उत्तमचंद गांधी उर्फ ओता गांधी और पिता काबा गांधी के जिन गुणों की चर्चा करते हैं, वह गुणगान कम है, अपने व्यक्तित्व का हिस्सा ज्यादा। ये गुण हैं सच्चाई, निष्ठा, दृढ़ता, मुश्किल स्थिति में भी न भटकना। इन्हीं गुणों के चलते वे बड़ी रियासतों को संभालते थे, उसके लिए विख्यात थे। दीवान होना बड़ी बात थी लेकिन उससे उन्होंने धन नहीं, यश कमाया था। तब भी समुद्र से लगा होने के चलते पोरबंदर बहुत संवेदनशील राज था और अंग्रेजी हुकूमत ने षड्यंत्र से उसे अपने अधीन किया था। गांधी के मन में अंग्रेजों के प्रति बैर भाव तभी बैठा होगा, हालांकि इन्हीं पिता के चलते गांधी के मन में एक खुलापन भी था, सबको अवसर देने का भाव भी था।
इस प्रसंग में गांधी ने बड़े विस्तार से अपने बिगड़ने की कथा बताई है- मांसाहार से लेकर सुट्टा लगाने और झूठ बोलने वगैरह। इसमें उनके बड़े भाई, जो एक कक्षा आगे ही थे, भी शामिल थे। लेकिन जब यह सब गड़बड़ी उधार या कर्ज लेने तक पहुंच गई और बीमार बाप के आगे भेद खुलने का खतरा पैदा हो गया तो गांधी ने सोने के कड़ा का एक हिस्सा बेचकर कर्ज चुकाया (जी, हां, कड़ा छह-छह तोले का था और तीन तोले में ही उधार चुक गया) लेकिन पिता को सारी बातें लिखकर बता दीं और आगे से गलतियां न दोहराने का वादा भी किया। चिट्ठी मिलने और बिना पत्र पढ़े पिता की जो प्रतिक्रिया होती है, उसने गांधी के मन पर क्या असर किया होगा, यह तब समझ आता है जब आप खुद भावुकता के सागर में डूबने-उतराने लगते हैं। रोते पिता ने मोहनदास को गले लगाया और पत्र फाड़कर फेंक दिया। हर व्यक्ति में सुधार के जिस बुनियादी गुण के भरोसे के चलते गांधी अहिंसक बदलाव के इतने बड़े वकील बने, उसके बीज इसी प्रसंग में हैं। प्रायश्चित से मन का कलंक धुलना और माफी के सबसे ऊपर होने का भाव भी यहां दिखता है।
करमचंद गांधी को पांच पोथी पढ़ा माना जाता था अर्थात वे साक्षर भर थे, लेकिन सामान्य हिसाब-किताब, बड़ी रियासत के प्रबंधन से लेकर धार्मिक ग्रंथों और साहित्य का भी स्वाद उनको मालूम था। जिन नाटकों तथा पौराणिक कथाओं ने गांधी के अंदर बुनियादी गुण भरे, जिसमें पिता और बड़ों के प्रति भक्ति भी शामिल है, उसका असली स्रोत काबा गांधी और उनकी पोथियां ही थीं। तब आसपास के मंदिर, त्यौहार-व्रत और सच्चे लोग भी, जिनसे पिता और परिवार का गहरा नाता था, गांधी के चरित्र निर्माण में मददगार बने। खाने-पीने, भोग-विलास और भौतिक सुख-साधन जुटाने की कोई होड़ इस दीवान परिवार में न थी तो इसका श्रेय इसके मुखिया को ही जाएगा। तब भी गांधी अपने पिता द्वारा चालीस साल की उम्र में दूसरी शादी करने (पहली पत्नी से सिर्फ दो बेटियां थीं और उनकी मृत्यु हो गई थी) के प्रसंग पर चुटकी लेने से नहीं रुकते।
गांधी ने पढ़ाई का जो रास्ता चुना, अपने कैरियर की जो शुरुआती योजना बनाई, उस पर तो करमचंद गांधी ही नहीं, दादा ओता गांधी का भी असर दिखता है। पिता की जल्दी हुई मौत के बाद भी पढ़ाई जारी रखनी थी तो बहुत ही सामान्य छात्र गांधी क्या पढ़ें, यह सवाल बड़ा था। वे पास भर करते जाने वाले थे। बड़े भाई लक्ष्मीदास ने तो बीच में पढ़ाई छोड़ दी लेकिन मोहनदास को पढ़ना था और वे कॉलेज भी गए, लेकिन परिवार के हितैषी श्यामकांत दवे, जिन्हें लोग जोशी महाराज कहते थे, ने कहा कि बीए करके साठ सत्तर रुपए की नौकरी मिलेगी, बिलायत से बैरिस्टरी पढ़ोगे तो पिता की जगह दीवान रखे जा सकते हो। गांधी के मन में पिता और उनके काम के प्रति एक खास आकर्षण था, तो उन्होंने फौरन इंग्लैंड जाने का मन बना लिया और लाख परेशानियां झेलकर भी बैरिस्टर बने। पिता का चुनाव रजवाड़ों के लिए दीवान चुनने वाली ब्रिटिश एजेंसी ने किया था, जिनकी कम शिक्षा भी बाधक नहीं बनी।
मोहनदास का काफी समय बीमार पिता की सेवा-सुश्रूषा में बीतता था। स्कूल से आते ही वे इस काम में लग जाते थे- खेलना तक छोड़ दिया था। पिता के पैर दबाने से लेकर हर तरह की सेवा करते थे। घाव धोना, मरहम लगाना, दवा देना ही नहीं, वैद्य जी की बताई जड़ी-बूटियां लाना और कूटना-पीसना। गांधी पर इन चीजों का असर जीवन भर रहा। साफ-सफाई बहुत रही लेकिन घिन या बीमारी से डर कभी न रहा। पिता घोर कष्ट में रहे और भगंदर जैसी बीमारी बिगड़ती गई। उनकी कष्ट सहने की क्षमता और अंतिम समय तक स्वच्छता बरतने की जिद का भी गांधी पर असर रहा। जिस तरह पिता ने सर्जरी की बात न मानी और उसी रोग से मरे वैसी जिद गांधी को करते हम कई बार देखते हैं। कस्तूरबा को मांस वाला सूप न देना और आखिर में पेनिसिलीन की सुई न लगाने देने में इसकी साफ छवियां दिखती हैं।
मोहनदास और उनके दो भाइयों (एक अपने और एक चचेरे) की शादी साथ ही हुई थी। पिता ने ही शादी ठीक की थी। दीवान थे लेकिन खर्च बचाने के लिए तीनों शादियां एक साथ की गई थीं, मगर हुआ यह कि खुद उन्हें ही समय से छुट्टी नहीं मिल पाई। जब छुट्टी मिली तो शादी की जगह पहुंचना सामान्य सवारी के हिसाब से दूर था। सो, जल्दबाजी की सवारी हुई और बैलगाड़ी की जगह आया तांगा उलट गया (मोहनदास को अपनी शादी में सबसे उल्लेखनीय व्यंजन कंसार ही लगा था)। काफी चोट लगी। मरहम-पट्टी हुई और प्लास्टर की तरह खपच्ची वाली पट्टी भी बांधनी पड़ी। मोहन को याद रहा कि किस तरह भारी कष्ट में होने के बावजूद पिता पूरी शादी में खुश दिखते रहे। कष्ट सहने का यह गुण भी मोहन ने पिता से सीखा था।
बीमार पिता की सेवा के दौरान वे पिता से मिलने आने वालों की बातों और व्यवहार को भी गौर से देखते थे। कभी कोई मुसलमान फकीर आता और कई एकदम नई बातें बताकर जाता। कभी कोई जैन जानकार आते तो कभी लाघा महाराज की धार्मिक कहानियां चलतीं। घर में अछूतों वाला भेदभाव था लेकिन अन्य धर्म वालों से दूरी न थी। पिता के मुसलमान और पारसी दोस्त थे, जो बीमारी वाले दौर में अक्सर आते रहते थे। जिस बच्चे ने शुरू से ऐसा माहौल देखा हो, उस पर कैसा प्रभाव होगा यह समझा जा सकता है। वैसे गांधी ने खुद लिखा है कि शुरू में ईसाई धर्म अपवाद था। बाद में यह अपवाद न रहा और गांधी ने जाने कितनी सीख बाइबिल से ली।
पिता की मौत के वक्त किशोर मोहनदास का अपनी पत्नी के संग होने का प्रकरण उन्होंने खुद लिखा है और उसका पछतावा जीवन भर रहा। सेक्स के प्रति नजरिया बदलने और भरी जवानी में ब्रह्मचर्य का व्रत लेने में भी इस प्रसंग की भूमिका रही होगी। सत्याग्रह करने वालों की क्षमता ब्रह्मचर्य से बढ़ती है, यह धारणा भी उनके मन में थी।
पिता गांधी के जीवन में सत्तरह-अठारह साल भी नहीं रहे लेकिन मोहनदास को महात्मा और दुनिया के लिए नायाब हीरा बनाने में उनका आचरण, व्यवहार, नजरिया और छोटा ही जीवन कैसा प्रभावी था, इस बारे में कोई भ्रम नहीं रहना चाहिए। वे मोहनदास के जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले पुरुष थे।
(लेखक चंपारण सत्याग्रह और गांधी तथा कस्तूरबा पर कई चर्चित किताबें लिख चुके हैं)