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आवरण कथा/ नई शिक्षा नीति: अब आगे बढ़ने की जरूरत

45 हजार से अधिक उच्च शिक्षा संस्थानों के साथ भारत के पास दुनिया की सबसे बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली, साल 2001 से इसमें चार गुना वृद्धि लेकिन अंतरराष्ट्रीय मानकों पर ये संस्थान बहुत पीछे
एआइएसएचई 2019-20 के अनुसार 18-23 आयु वर्ग में भारत का ग्रॉस एनरोलमेंट अनुपात 27.1 फीसदी

आउटलुक-आइकेयर इंडिया एमबीए रैंकिंग 2022

इक्कीसवीं सदी में प्रभुत्व सूचना और ज्ञान से संचालित समाज का है। उद्योगीकरण और आर्थिक विस्तार से दुनियाभर में तकनीकी बदलाव हो रहे हैं। ऐसे में विश्वविद्यालयों से सामाजिक बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने और 19वीं सदी से पारंपरिक रूप से चले आ रहे एक-विषयी ढांचे की बाधा को तोड़ने की उम्मीद की जा रही है। समाज के विकास में शिक्षा का महत्व सर्वोपरि है, जो प्रौद्योगिकी और आर्थिक वृद्धि लेकर आता है। समाज का सर्वाधिक विकास तभी हासिल किया जा सकता है जब लोगों के चहुंमुखी विकास के लिए शिक्षा का स्तर बढ़ाया जाए। समाज की आकांक्षाओं, मूल्यों और विकास की प्राथमिकताओं के लिए उच्च शिक्षा अहम है। इन सबका नियमित मूल्यांकन और सुधार किया जाना चाहिए।

45 हजार से अधिक उच्च शिक्षा संस्थानों के साथ भारत के पास दुनिया की सबसे बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली है। साल 2001 से इसमें चार गुना वृद्धि हुई है। लेकिन यह सेक्टर अब भी अपर्याप्त फंडिंग, छात्रों को रोजगार मिलने में दिक्कतों, अध्यापन के निम्नस्तरीय मानक, खराब गवर्नेंस और जटिल रेगुलेटरी प्रक्रिया जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है। भारत की जनसंख्या का जो ट्रेंड है, उसके आधार पर यह जल्दी ही चीन को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। इस लिहाज से आने वाले वर्षों में उच्च शिक्षा की मांग भी तेजी से बढ़ेगी।

भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली पहले चुनिंदा लोगों की जरूरतें पूरी करने के मकसद से तैयार की गई थी। अब उसे ज्यादा लोगों के काम लायक बनाने के लिए बदलाव किया जाना चाहिए। देश में अभी 1,043 विश्वविद्यालय हैं। इनमें 49 केंद्रीय विश्वविद्यालय, 405 राज्य विश्वविद्यालय, 135 राष्ट्रीय महत्व के संस्थान, 126 डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी और 328 निजी विश्वविद्यालय हैं। इनके अलावा 42,343 कॉलेज और 11,779 स्टैंडअलोन संस्थान हैं। यह संख्या लगातार बढ़ रही है।

उच्च शिक्षा में अभी करीब 3.5 करोड़ छात्र-छात्राओं ने दाखिला ले रखा है। इनमें 1.96 करोड़ छात्र और 1.89 करोड़ छात्राएं हैं। यानी कुल एनरोलमेंट का 49 फीसदी छात्राएं हैं। साल 2025 तक उच्च शिक्षा में दाखिला लेने वाले सबसे अधिक छात्र और छात्राएं भारत में ही होंगी। 2030 तक उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले सबसे अधिक युवा भारत में होंगे।

उच्च शिक्षा की चुनौतियां

भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली दुनिया की सबसे बड़ी होने के बावजूद इसे अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ये चुनौतियां पठन-पाठन की गुणवत्ता, सरकारी-निजी भागीदारी, विदेशी संस्थानों का प्रवेश, रिसर्च क्षमता में वृद्धि और फंडिंग, इनोवेशन, अंतरराष्ट्रीयकरण, वैश्विक अर्थव्यवस्था की बदलती मांग जैसे क्षेत्रों में हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती मांग को देखते हुए बीते दो दशकों में अनेक प्रयास हुए हैं, लेकिन नई चुनौतियां भी लगातार उभर रही हैं।

अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण (एआइएसएचई) के अनुसार 18-23 आयु वर्ग में भारत का ग्रॉस एनरोलमेंट अनुपात (जीईआर) 27.1 फीसदी (एआइएसएचई 2019-20) है। यह 36.7 फीसदी के वैश्विक औसत से बहुत कम है। छात्र जो शिक्षा ग्रहण करते हैं और रोजगार के लिए उन्हंे जिस कौशल की जरूरत होती है, उनमें भी बड़ा अंतर होता है। इसकी प्रमुख वजह है उच्च शिक्षा संस्थानों में गुणवत्ता की कमी। इसके अलावा पाठ्यक्रम में कौशल विकास का न होना भी एक कारण है। उच्च शिक्षा संस्थान इन दिनों शिक्षकों की भीषण कमी से जूझ रहे हैं। अनुमान है कि इन संस्थानों में 30 से 40 फीसदी फैकल्टी की जगह खाली है, क्योंकि उन पदों के लिए योग्य लोग ही नहीं मिलते हैं। इससे छात्र-शिक्षक अनुपात असंतुलित हो गया है। हाल के दशकों में सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त उच्च शिक्षा संस्थानों में फंडिंग का ट्रेंड देखें तो केंद्रीय विश्वविद्यालयों को ज्यादा फंडिंग हुई है। हमें व्यवस्था को मजबूत बनाने की जरूरत है ताकि गुणवत्ता सुनिश्चित हो। इससे रोजगार पाने योग्य ग्रेजुएट की संख्या बढ़ेगी।

रिसर्च और अध्यापन को अलग करने के लिए अनेक प्रयासों की जरूरत है। बदलते समय के साथ लचीले पाठ्यक्रम की भी आवश्यकता है। पाठ्यक्रम तय करने और कौशल विकास में नियोक्ता की भागीदारी बढ़ानी चाहिए। इसके अलावा अंतर-विषयी शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिए। गुणवत्तायुक्त अध्यापन की कमी, पुराने पड़ चुके पाठ्यक्रम और पुरानी शिक्षण विधि ने प्रशिक्षित फैकल्टी की कमी की समस्या को और बढ़ाया ही है। छात्रों को विभिन्न तरह की स्किल विकसित करने के पर्याप्त अवसर मिलने चाहिए। इनमें एनालिटिकल रीजनिंग, क्रिटिकल थिंकिंग, प्रॉब्लम सॉल्विंग और कोलैबोरेटिव वर्किंग जैसी स्किल शामिल हैं। इनकी पढ़ाई और इनका मूल्यांकन इस तरह हो कि छात्रों को रटना न पड़े। बहु-विषयी रिसर्च के अवसर न होने के कारण विज्ञान और समाजशास्त्र, दोनों में क्वालिटी रिसर्च की कमी है। इससे उद्योगों के साथ जुड़ाव प्रभावित हुआ है।

उच्च शिक्षा संस्थानों की विभिन्न चुनौतियों के समाधान के लिए रचनात्मक और गैर-पारंपरिक सोच का होना भी आवश्यक है। आज के प्रौद्योगिकी आधारित वातावरण में क्विक रेस्पांस कोड (क्यूआरसी) के साथ ओपन एजुकेशन रिसोर्स (ओईआर) और मैसिव ओपन ऑनलाइन कोर्स (एमओओसी) के रूप में अनेक संसाधन उपलब्ध हैं। कोविड-19 के समय में जब शारीरिक दूरी एक नया सामान्य बन गई है, ऑनलाइन संसाधनों और रिमोट लर्निंग टूल का इस्तेमाल ज्यादा प्रासंगिक हो गया है। फैकल्टी को इस तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि वे उत्साही, इनोवेटिव और प्रयोगधर्मी रहें तथा पढ़ाने में टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने में सक्षम हों।

गवर्नेंस के मौजूदा मॉडल से उच्च शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता प्रभावित होती है। इसका एक कारण तो यह है कि सरकार और नियामक विश्वविद्यालयों के छोटे-छोटे कामों में भी हस्तक्षेप करना चाहते हैं। इसके अलावा क्वालिटी सुनिश्चित करने की कमजोर व्यवस्था, संस्थानों के प्रदर्शन से उनकी फंडिंग को न जोड़ने और पारदर्शी व्यवस्था न होने से भी समस्याएं बढ़ी हैं। उच्च शिक्षा में पेशेवर मैनेजमेंट के जरिए उत्कृष्टता हासिल करने के लिए नए गवर्नेंस मॉडल की आवश्यकता है जिसमें पारदर्शिता, समानता जवाबदेही और समावेशिता जैसी विशेषताओं को शामिल किया जाना चाहिए। संस्थानों को विकेंद्रीकृत गवर्नेंस की दिशा में भी कदम बढ़ाना चाहिए ताकि कामकाज के विभिन्न स्तरों पर स्वायत्तता, जवाबदेही, लचीलापन, विश्वास और पारदर्शिता कायम हो सके। भावी जरूरतें पूरी करने वाला विश्वविद्यालय बनाने के लिए रेगुलेटर को भी अपनी भूमिका बदलने की जरूरत है।

वैश्वीकरण और प्रतिस्पर्धा के साथ शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण को देखते हुए उच्च शिक्षा संस्थानों को पारंपरिक विश्वविद्यालय प्रशासन का तरीका छोड़ना चाहिए, जो 19वीं सदी की जरूरतों पर आधारित है। उन्हें आधुनिक पेशेवर गवर्नेंस को अपनाना चाहिए। अगर प्रशासनिक मशीनरी में अनिवार्य कौशल, जानकारी और नजरिए का अभाव है, वह प्रगतिशील समाज की जरूरतों के मुताबिक नहीं चल रही है तो वह विश्वविद्यालय के विकास में बाधक बन सकती है। बदलती सामाजिक जरूरतों और वैश्विक ट्रेंड के मुताबिक लचीला, पारदर्शी, विकेंद्रीकृत, स्वायत्त और जवाबदेह गवर्नेंस संस्थान को आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभा सकता है।

गवर्नेंस के मौजूदा मॉडल से संस्थानों की स्वायत्तता प्रभावित होती है, इसका एक कारण यह है कि सरकार और नियामक छोटे-छोटे कामों में भी हस्तक्षेप करते हैं

उच्च शिक्षा संस्थानों के कुलपति, डायरेक्टर, रजिस्ट्रार और अन्य सचिवालय कर्मी शैक्षणिक प्रशासकों में शुमार किए जाते हैं, जिनके लिए अभी पेशेवर और प्रशासनिक प्रशिक्षण की व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। इन संस्थानों में पेशेवर मैनेजमेंट की कमी होती है, जिसे बदला जाना चाहिए। कुलपति को लीडरशिप प्रोग्राम में और अन्य प्रशासनिक कर्मचारियों को औपचारिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में शिरकत करना चाहिए। अभी उच्च शिक्षा संस्थानों में गवर्नेंस के जो मॉडल अपनाए जाते हैं उनसे भर्ती, प्रशिक्षण और अच्छे प्रशासकों तथा शिक्षकों को जोड़े रखने की प्रक्रिया प्रभावित होती है। इन संस्थानों को अकादमिक और प्रशासनिक दोनों क्षेत्रों में मानव संसाधन प्रबंधन के लिए अलग विभाग खोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अकादमिक प्लानिंग, भर्ती की बेहतर व्यवस्था, अच्छे कर्मचारियों को जोड़े रखने की रणनीति, कर्मचारियों का विकास और उनका प्रशिक्षण, व्यक्तिगत और प्रोफेशनल काउंसलिंग जैसे कदम उठाए जाने चाहिए। गुणवत्तापूर्ण पठन-पाठन और रिसर्च पर फोकस करने के लिए एक प्रभावी शिकायत निवारण व्यवस्था होनी चाहिए जो छात्रों और कर्मचारियों की सुरक्षा और सुविधाओं तथा अन्य मामलों में शिकायतों का समाधान कर सके।

विश्वविद्यालयों के लिए ई-गवर्नेंस कार्यक्रम की संकल्पना और उन्हें लागू करने के साथ एक ईआरपी सिस्टम भी विकसित करने की जरूरत है, ताकि प्रशासन और छात्रों तथा स्टाफ और लोगों के बीच सूचनाओं का सहज आदान-प्रदान हो सके। इससे आंतरिक कार्यों में गति आएगी और गुणवत्ता में भी सुधार होगा। कागजी कार्रवाई और जानकारी मुहैया कराने में लगने वाले समय में कमी, लागत में कटौती, पर्यावरण संरक्षण और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (आइसीटी) आधारित टूल के इस्तेमाल से उत्पादकता, कार्यक्षमता और ग्राहक संतुष्टि बढ़ेगी। पारंपरिक तरीके से अकादमिक प्रतिलिपि सत्यापन अब अतीत की बात हो जानी चाहिए। संस्थान आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ब्लॉकचेन जैसे आधुनिक टूल के इस्तेमाल से तेज, कम खर्च और ज्यादा निपुणता के साथ कार्यों को अंजाम दे सकते हैं।

पठन-पाठन की प्रक्रिया सभी छात्रों के लिए प्रभावी होनी चाहिए ताकि वे निर्धारित नतीजों को प्राप्त कर सकें, जिनका उनकी सोच और उनके व्यवहार पर दीर्घकालिक, महत्वपूर्ण और सकारात्मक असर होता है। यह बात शिक्षा प्रणाली के मूल में है और उच्च कोटि की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक भी है। पढ़ाने का पारंपरिक तरीका बदलने के लिए शिक्षकों को प्रौद्योगिकी आधारित सेवाओं का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। संस्थान भी इसमें मदद करें। यह भी महत्वपूर्ण है कि उच्च शिक्षा संस्थान दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पठन-पाठन का तरीका अपनाएं। अध्यापन और मूल्यांकन के प्रभावी वैश्विक तरीके अपनाकर, फैकल्टी के पेशेवर विकास और मौजूदा तथा भावी जरूरतों के मुताबिक प्रौद्योगिकी आधारित इकोसिस्टम विकसित करके श्रेष्ठ पठन-पाठन सुनिश्चित किया जा सकता है।

कोविड-19 संकट के दौरान छात्रों के बाह्य मूल्यांकन पर अधिक जोर देना और रचनात्मक आकलन कम करना एक बड़ा मुद्दा रहा है। डिग्री और योग्यता के बीच असंतुलन ने परीक्षा और क्वालिफिकेशन प्रणाली के औचित्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं। ‘अध्ययन का मूल्यांकन’ वास्तव में ‘अध्ययन के लिए मूल्यांकन’ होना चाहिए। इस संदर्भ में शिक्षक की भूमिका ऐसी हो कि हर छात्र को सीखने का अपना तरीका विकसित करने में मदद मिले। जब स्पष्ट लक्ष्य के साथ छात्रों के लिए अध्ययन के अवसर तैयार किए जाएंगे और शिक्षक भी उनमें शामिल होंगे तो छात्र भी सीखेंगे। रुचि, कौशल, व्यक्तित्व, निपुणता और एक्सीलेंस हासिल करने की क्षमता के आधार पर व्यक्ति की खूबियों का आकलन किया जाना चाहिए।

किताबें

ज्यादातर उच्च शिक्षा संस्थानों में अध्यापन अभी तक रटने और लेक्चर वाले तरीके पर आधारित है। इसमें छात्रों की भागीदारी की गुंजाइश बहुत कम होती है। इस भागीदारी से विवेचनात्मक सोच और विश्लेषण क्षमता बढ़ती है। पाठ्यक्रम का ढांचा पुराने ढर्रे पर और तंग होता है। उसमें ज्ञान तथा कौशल हासिल करने के व्यापक नजरिए का अभाव होता है। जरूरत इस बात की है कि हम ‘शिक्षक केंद्रित अध्यापन व्यवस्था’ से ‘छात्र केंद्रित व्यवस्था’ की तरफ जाएं, जो अनुभव आधारित हो तथा छात्रों की कल्पना को साकार करने में सक्षम हो।

गूगल और व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया तथा इंटरनेट का इस्तेमाल अध्ययन-अध्यापन में नियमित रूप से किया जाना चाहिए। इससे छात्रों और शिक्षकों दोनों को फायदा होगा। सामान्य और ऑनलाइन क्लास के मिश्रित रूप पर फोकस होना चाहिए। यह रणनीति अपनाने पर शिक्षकों का प्रशिक्षण तथा क्षमता विकास आवश्यक होगा। ऊंची सोच, नतीजा आधारित अध्ययन और मिश्रित अध्ययन जैसे नए तरीके अपनाने से अध्यापन ज्यादा प्रभावी होगा। अध्ययन का अनुभव बेहतर बनाने और दूसरी भाषा के छात्रों की समस्याओं का उनकी शैली तथा भाषा के अनुरूप समाधान करने के लिए पठन-पाठन व्यवस्था को छात्र केंद्रित बनाया जाना चाहिए। इसे बेहतर बनाने के लिए वीडियो, फिल्म क्लिप, टीवी क्लिप, एनिमेशन, एलएमएस, मूडल, ऑनलाइन अटेंडेंस व्यवस्था तथा अन्य तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है। प्रौद्योगिकी और शिक्षा को जोड़ने के लिए ओपन सोर्स टूलकिट का प्रयोग हो सकता है।

नेशनल अकादमिक क्रेडिट बैंक (एनएसीबी) की अवधारणा को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, जिसका लक्ष्य विभिन्न संस्थानों के हस्तांतरणीय क्रेडिट की रिपोजिटरी तैयार करना है। इससे छात्र किसी विशेष कोर्स के लिए विश्वविद्यालय में दाखिला ले सकेंगे। न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करते हुए छात्र ने जिन विषयों में ज्यादा क्रेडिट हासिल किए हैं, विश्वविद्यालय उन्हें उसकी डिग्री दे सकता है। स्कूल स्तर पर अच्छी फैकल्टी नियुक्त करने और शिक्षकों की क्वालिटी सुधारने का भी उच्च शिक्षा में ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो और क्वालिटी पर सीधा असर होगा।

भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में नई फैकल्टी के लिए शुरुआती प्रशिक्षण और पुरानी फैकल्टी के पेशेवर विकास के अवसर सीमित होते हैं। इसलिए अध्यापन में सुधार, रिसर्च और स्कॉलरशिप में बेहतर प्रदर्शन, नए विषयों की जानकारी, अध्यापन के नए तरीके आदि के लिए उनके पास अधिक मौके नहीं होते। अध्यापन ऐसा पेशा है जिसमें शिक्षकों के व्यक्तित्व का उनके छात्रों पर असर होता है। इसलिए अध्यापकों की नियुक्ति तथा आगे उनके पेशेवर विकास कार्यक्रमों में बताया जाना चाहिए कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं। अध्यापकों की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी छात्रों में सृजनात्मक सोच विकसित करने और समाज तथा पर्यावरण के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाने के लिए प्रेरित करने के साथ-साथ उपलब्ध तथ्यों से आगे जाकर सोचने और सीखने के लिए प्रोत्साहित करने की होती है। इस दिशा में शिक्षकों की क्षमता विकसित करना भी जरूरी है।

लेक्चर

सरकार को विश्वविद्यालयों में अध्यापन से जुड़ी समस्याओं के समाधान तथा शिक्षकों के लिए प्रौद्योगिकी आधारित सॉल्यूशन विकसित करने के मकसद से उच्च शिक्षा अनुसंधान एवं विकास केंद्र स्थापित करने चाहिए। ये केंद्र विश्वविद्यालय तथा उनसे संबद्ध कॉलेजों के अध्यापकों को समय-समय पर प्रशिक्षण देते रहेंगे ताकि वे दुनिया भर में हो रहे विकास से अपने आपको वाकिफ रख सकें। आइसीटी के युग में यह महत्वपूर्ण है कि सभी उच्च शिक्षा संस्थानों में अत्याधुनिक इंफ्रास्ट्रक्चर हों। शिक्षकों और छात्रों, दोनों के कौशल और अध्ययन प्रक्रिया को बेहतर बनाने के लिए प्रौद्योगिकी (वीडियो, आइसीटी ओपन रिसोर्स, सेल्फ लर्निंग माड्यूल आदि) के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। आजकल ज्यादातर छात्र स्मार्टफोन का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए पठन-पाठन में उसका बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है। फैकल्टी को प्रौद्योगिकी विकास की पूरी जानकारी होनी चाहिए ताकि वे अपनी अध्यापन क्षमता में भी सुधार कर सकें।

भारत टिकाऊ विकास के दम पर आगे बढ़ना और विश्व प्रणेता बनना चाहता है। ऐसे में इसे ज्ञान, रिसर्च और इनोवेशन के क्षेत्र में आगे होना चाहिए। इस मिशन में युवाओं को प्रभावी माध्यम बनाया जा सकता है। इसके लिए त्रिस्तरीय नजरिया अपनाने की जरूरत होगी। पहला, हमें उच्च क्वालिटी के मानव संसाधन तैयार करने होंगे जो दुनिया में सर्वश्रेष्ठ के समकक्ष हों, जिन्हें रिसर्च और इनोवेशन की गहरी समझ हो तथा जो विवेचनात्मक और गैर-पारंपरिक तरीके से सोच सकें। दूसरा, रिसर्च और इनोवेशन के लिए बड़ी संख्या में वैश्विक एक्सीलेंस केंद्र स्थापित करने की जरूरत है, जिनका समाज और अर्थव्यवस्था के साथ मजबूत जुड़ाव हो। तीसरा, रिसर्च और इनोवेशन का फोकस बदल कर राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को केंद्र में रखा जाना चाहिए।

रिसर्च और इनोवेशन ईकोसिस्टम विकसित करने के लिए उच्च शिक्षा संस्थानों को अपनी रिसर्च नीतियों में इनोवेशन तथा विचार प्रकोष्ठ को शामिल करना चाहिए। विश्वविद्यालयों तथा कॉलेजों में सामूहिक अंडरग्रेजुएट रिसर्च की शुरूआत करनी चाहिए। इनसे उच्च स्तर के अनुसंधान का आधार तैयार होता है। फैकल्टी की मदद और विश्वविद्यालय इंफ्रास्ट्रक्चर के इस्तेमाल से छात्रों ने जो नई चीजें विकसित की हैं, विश्वविद्यालय को उनका पेटेंट कराना चाहिए। उच्च क्वालिटी के रिसर्च के लिए फैकल्टी को पुरस्कृत किया जाना चाहिए। विश्वविद्यालयों के इनोवेशन केंद्र समस्या और समाधान के बीच की कड़ी होने चाहिए। इन केंद्रों में उद्योग, सरकार और समाज की समस्याओं की पहचान हो तथा उन पर फैकल्टी तथा छात्रों को रिसर्च के लिए कहा जाए। विश्वविद्यालयों को बिजनेस के संग हाथ मिलाना चाहिए और हर विश्वविद्यालय की कम से कम एक बिजनेस को साथ लेने की नीति होनी चाहिए। राज्य विश्वविद्यालयों को बुनियादी वैज्ञानिक ढांचा विकसित करने और रिसर्च फेलोशिप के लिए अधिक राशि आवंटित करने की जरूरत है। विश्वविद्यालयों को प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन के लिए भी समन्वय स्थापित करना चाहिए। बहुमुखी रिसर्च गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए उच्च शिक्षा संस्थानों में आपस में भी सहयोग जरूरी है। रिसर्च के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना भी आवश्यक है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की रैंकिंग अभी बहुत नीचे होती है। ‘क्यूएस रैंकिंग 2020’ में शीर्ष 100 संस्थानों में कोई भी भारतीय संस्थान नहीं है। शीर्ष 200 में तीन, शीर्ष 500 में आठ और शीर्ष 1000 में 21 भारतीय संस्थान हैं। रैंकिंग में सुधार के लिए सरकार को ये कदम उठाने चाहिए-

•             अध्यापन और रिसर्च की क्वालिटी में सुधार, डॉक्टरेट अनुपात, संस्थान की आय, रिसर्च से होने वाली आय, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, पुराने छात्रों और शिक्षकों को मिली पहचान, फैकल्टी को पुरस्कृत और सम्मानित करके अकादमिक प्रतिष्ठा तैयार करनी चाहिए।

•             नियोक्ताओं में प्रतिष्ठा होनी चाहिए। इसके लिए सक्षम और नई सोच वाले ग्रेजुएट तैयार करने और उद्योगों के साथ जुड़ाव पर फोकस हो।

•             अंतरराष्ट्रीय छात्र अनुपात बेहतर हो, खासकर पड़ोसी देशों के छात्रों को दाखिला देने पर जोर रहे।

•             अंतर्राष्ट्रीय फैकल्टी रखने पर जोर दिया जाए।

•             इनोवेशन और आंत्रप्रेन्योरशिप पर फोकस के साथ फंडिंग।

•             राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर असाधारण फैकल्टी और छात्रों के व्यक्तिगत प्रदर्शन को दिखाया जाए।

भविष्य के लिए कौशल विकास

भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में छात्रों के संपूर्ण विकास पर जोर दिया जाता था। इसके लिए उच्च कोटि का ज्ञान, विवेचनात्मक सोच, जीविकोपार्जन के लिए उन्हें तैयार करने और नैतिक मूल्य विकसित करने पर फोकस रहता था ताकि वे बेहतर समझ और नैतिकता वाले इंसान बन सकें। आज हमारे विश्वविद्यालयों को ये सब बातें सुनिश्चित करने की दरकार है। विश्वविद्यालयों और अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों के छात्रों को प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षा प्रणाली के लिए तैयार करना चाहिए जिसमें उन्हें रोजगार के योग्य बनाने पर फोकस रहे।

21वीं सदी में छात्रों को पठन-पाठन में लचीलेपन की जरूरत होगी ताकि वे अलग-अलग समय पर दाखिला ले सकें या बाहर निकल सकें। विश्वविद्यालयों को ऐसा नजरिया अपनाना पड़ेगा जिसमें छात्रों को अपना अध्ययन मार्ग खुद तय करने की आजादी हो। कोविड-19 के बाद उच्च शिक्षा बिल्कुल अलग होगी। छात्रों के पास तमाम तरह के ऑनलाइन संसाधन होंगे। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स, वर्चुअल और ऑगमेंटेड रियलिटी, बिग डाटा एनालिसिस, 3डी प्रिंटिंग, इंटरनेट ऑफ थिंग्स, ब्लॉकचेन और अन्य आधुनिक प्रौद्योगिकी सॉल्यूशन को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय जुड़ाव जरूरी

उच्च शिक्षा में व्यावसायिक प्रशिक्षण को बढ़ावा देने के लिए चीन, जर्मनी और स्विट्जरलैंड जैसे देशों के व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण (वीईटी) मॉडल को अपनाया जा सकता है। छात्रों और फैकल्टी को अंतरराष्ट्रीय स्तर का अनुभव दिया जाना चाहिए। विश्वविद्यालयों को अपनी फैकल्टी और छात्रों को दूसरे देशों में भेजने के साथ दूसरे देशों की फैकल्टी और छात्रों को अपने यहां आमंत्रित करना चाहिए। इससे बेहतर पाठ्यक्रम डिजाइन तैयार करने, प्रशिक्षण, अध्यापन, रिसर्च और इनोवेशन तथा छात्रों में उद्यमी सोच विकसित करने में मदद मिलेगी। दूसरे देशों की संस्कृति, आदतों, प्रथाओं, भूगोल, जलवायु, परिस्थितियों, भाषाओं, खान-पान, पहनावा और अन्य पहलुओं की जानकारी देने के लिए अंतरराष्ट्रीय इवेंट आयोजित किए जाने चाहिए।

रेगुलेटरी ढांचे में सुधार

छात्र अपनी व्यक्तिगत रुचि और वरीयता के आधार पर कौशल का चयन कर सकें, इसके लिए विश्वविद्यालयों को लचीला रुख अपनाना होगा। इसके लिए भी रेगुलेटरी सुधार की जरूरत है। ऐसी व्यवस्था विकसित की जानी चाहिए जिसमें विश्वविद्यालय छात्रों की क्षमता और उनकी रुचि को पहचान सकें तथा उसके मुताबिक पाठ्यक्रम में आवश्यक बदलाव कर सकें। कौशल विकास की धारणा छात्रों में प्राथमिक स्कूल स्तर पर ही शुरू की जानी चाहिए, जो उच्च शिक्षा ग्रहण करने तक जारी रहे। इसके लिए स्कूल और उच्च शिक्षा विभाग में आपसी सहयोग जरूरी है। कौशल शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकारों और नियामकों को उच्च शिक्षा संस्थानों को स्वायत्तता देनी पड़ेगी। अकादमिक और उद्योग के बीच जुड़ाव मजबूत करना भी समय की जरूरत है।

वैश्विक सोच

अंतर्राष्ट्रीय जुड़ाव को बढ़ावा देने के लिए कई तरह के कदम उठाने की आवश्यकता है। इनमें इंफ्रास्ट्रक्चर सुधारने, पाठ्यक्रम अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने, वीजा नियम आसान करने, फॉरेनर्स रीजनल रजिस्ट्रेशन ऑफिसर (एफआरआरओ) की समस्याएं दूर करने, विदेशी फैकल्टी नियुक्त करने, विदेशी अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के साथ समन्वय, दाखिले को लचीला बनाने जैसे कदम शामिल हैं। भारतीय शिक्षा व्यवस्था के बारे में दूसरे देशों की सोच बदलने की भी जरूरत है, जिसमें भारत की उपलब्धियों और ताकतों को दिखाया जाए। विदेशी फैकल्टी और छात्रों के लिए विश्वविद्यालयों को अपने कैंपस में अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं विकसित करनी चाहिए। भारतीय शिक्षा को बढ़ावा देने के मकसद से विदेशी विश्वविद्यालयों के विशेषज्ञों को आमंत्रित करने के साथ नियमित रूप से वर्कशॉप, सेमिनार, कान्फ्रेंस आयोजित करने चाहिए। देश-विदेश में भारतीय उच्च शिक्षा की ब्रांडिंग के लिए एल्युमनी की मदद ली जा सकती है।

कोविड-19 के बाद के काल में भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों को अंतरराष्ट्रीय जुड़ाव को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर अपेक्षित विश्वसनीयता हासिल हो सके। इस दिशा में विश्वविद्यालयों, सरकारों और उच्च शिक्षा नियामकों को साथ मिलकर काम करने की जरूरत है। संस्थानों में विदेशी छात्रों को आकर्षित करने के लिए क्लासरूम के भीतर और बाहर छात्रों के अनुभव को बेहतर बनाना जरूरी है। दूसरे देशों में राजनयिक मिशन का इस्तेमाल भी विदेशी छात्रों को आकर्षित करने के लिए किया जा सकता है। भारत की उच्च शिक्षा के फायदे बताने के लिए विश्वविद्यालयों को भारतीय दूतावासों का सक्रिय सहयोग लेना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपनी पहचान बनाने के लिए नीति निर्माताओं की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी विश्वविद्यालयों की। शिक्षा मंत्रालय और अन्य शीर्ष निकायों को दूसरे मंत्रालयों के साथ चर्चा करनी चाहिए ताकि नीतियों और नियमों को सरल बनाया जा सके और विदेशी छात्रों को आकर्षित करने के लिए बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित किया जा सके।

निष्कर्ष

उच्च शिक्षा और उभरते ट्रेंड के बीच तालमेल होना जरूरी है। यह शिक्षा ऐसी हो कि छात्र भविष्य के जीवन के लिए तैयार हो सकें। इसलिए अध्यापन का कार्य भविष्य को ध्यान में रखकर हो, जिसमें छात्रों को तेजी से बदलते सामाजिक परिदृश्य में एक ऐसे अनजाने भविष्य के लिए तैयार किया जा सके जहां खेल के सभी नियम बदले हुए होंगे। लेकिन इसके साथ हमारा पारंपरिक ज्ञान, कौशल, मूल्य और संस्कृति भी अक्षुण्ण रहे। उच्च शिक्षा को किसी नौकरी के लिए डिग्री हासिल करने का माध्यम मात्र न माना जाए, बल्कि इसे व्यक्ति की पूर्ण क्षमता विकसित करने का जरिया समझा जाना चाहिए। शिक्षा विवेचनात्मक सोच को बढ़ावा देने के साथ समस्याओं का समाधान करने और इनोवेशन जैसे कौशल को विकसित करने में मदद करती है। आखिरकार, उच्च शिक्षा का लक्ष्य समय और समाज की जरूरतों को पूरा करने के लिए सर्वश्रेष्ठ मानस विकसित करना ही तो है।

(इंडियन सेंटर फॉर अकादमिक रैंकिंग्स एंड एक्सीलेंस (आइकेयर) के वाइस चेयरमैन और भारत की पहली सरकारी स्वीकृतिप्राप्त अकादमिक ऑडिट एंड रेटिंग एजेंसी के पुरोधाओं में एक हैं)

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