विनोद कुमार शुक्ल पहले भारतीय या एशियाई लेखक हैं जिन्हें हाल ही में सर्वोच्च पेन अमेरिका व्लादिमीर नाबाकोव अवॉर्ड फॉर अचीवमेंट इन इंटरनेशनल लिटरेचर-2023 से सम्मानित किया गया। छत्तीसगढ़ में राजनांदगांव के रहने वाले हिंदी के शीर्षस्थ कवि, कहानीकार, उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल को यह अवॉर्ड विश्व साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए दिया गया। इनके कुछ प्रमुख उपन्यासों मे ‘नौकर की कमीज’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी’ और ‘बौना पहाड़’ वगैरह हैं। उनके कुछ प्रमुख कविता संग्रह ‘लगभग जयहिंद’, ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह’, ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’ वगैरह हैं। उनके उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिल चुका है। आउटलुक के अनूप दत्ता से बातचीत में विनोद कुमार शुक्ल कहते हैं कि लेखक की तुलना में कवि अपनी बात कहने में ज्यादा स्वतंत्र होता है। मुख्य अंश:
किस सोच या घटना ने लेखक बनने के लिए उकसाया और कैसे? कोई विशेष घटना जिसका उल्लेख करना चाहें?
ऐसी कोई विशेष घटना नहीं जिसने मुझे लेखक बनाया। जबसे लिखना शुरू किया, तभी से जितना लिख सका उतना ही लिखा। घर में लिखने-पढ़ने का माहौल था। संयुक्त परिवार में बचपना बीता। मेरा बचपन मेरी लेखनी के लिए नींव के पत्थर की तरह रहा। यही अनुभव कारण बना। और जिंदा रहने के लिए, सांस लेने की तरह हो गया।
पिछले लगभग तीन दशकों में प्रसारण माध्यमों का दबाब बढ़ता जा रहा है, अब मनोरंजन प्रधान कार्यक्रम अधिक बन रहे हैं और लोकप्रिय भी हो रहे हैं। जाहिर है, इससे अच्छी रकम कमा पाने की संभावना है तो क्या इस तरह उसकी स्वायत्तता बनी रह पाएगी?
समय बदला है। प्रसारण माध्यमों का दबाव अगर है तो प्रसारण का सहारा भी है। समय को बदलने से कोई नहीं रोक सकता। समय की अपनी गति है। अपनी गति से समय आता और जाता है। कथन में तो यह भी कहा जाता है कि, ‘समय लौटता है।’ पर विशेषण के साथ कहा जाता है, ‘अच्छा समय, बुरा समय।’ यह व्यक्तिगत हो सकता है या सामूहिक भी; जैसे, मनुष्य का समय, राष्ट्र का समय, विश्व का समय। समय के साथ संभावनाएं बदलती जाती हैं। जिसके साथ, या अनुसार प्रक्रिया बदलती है। अच्छे और बुरे समय की पहचान तरह-तरह से है, उसमें रकम भी एक पहचान है। जैसे छोटे-छोटे हाट-बाजार हैं तो वैश्विक बाजार भी। और, अपने को बचाने और जिंदा रहने के लिए इक्के-दुक्के, मरने-मारने की घटनाओं से लेकर युद्ध भी होते हैं। एक निश्चित स्वायत्तता हमेशा नहीं होती। निश्चित और अनिश्चित दो पटरियां हैं। आश्चर्य होता है कि दोनों समानांतर हैं और उन पर समय की रेलगाड़ी चलती है।
तो इस दौर में एक कवि, लेखक, रचनाकार या उपन्यासकार अपनी नींव को कैसे मजबूती के साथ जकड़ कर चल सकता है?
कवि या लेखक अपनी बात कह सकें, इसकी स्वतंत्रता एक हद तक होती है। बहुत अधिक स्वतंत्रता में अराजकता का डर होता है। समाज के घोषित-अघोषित नियम होते हैं। व्यक्ति की नागरिकता होती है। व्यवस्था में कानून है, न्यायालय है, दंड है। इसलिए भविष्यवाणी की तरह कुछ कह सकना मुश्किल है। कवि, लेखक को अपने लेखन का आलोचक होना जरूरी है। वह अपने लेखन का अपना समीक्षक पहले हो। लिखना एक वैश्विक सामाजिकता है, क्योंकि...
आपके हिसाब से अपनी बात कहने में ज्यादा स्वतंत्र लेखक होता है फिर या कवि?
अधिक स्वतंत्र तो कवि होता है। यह कोशिश कम शब्दों में कविता में होती है। कविता में अधिकतम बात होती है। कविता अपने शिल्प और रचनात्मकता में अधिक स्पष्ट भी है। गद्य भी कवितानुमा अपने कथन की गहराई में हो सकता है, होता भी है। चाहे वह लिखी गई कोई कहानी हो या कई पृष्ठों का कोई उपन्यास।
आज का हिंदी साहित्य देसी या राष्ट्रीय समाज की अस्मिता कितनी ईमानदारी के साथ प्रस्तुत कर पाता है?
लेखन की ईमानदारी पाठकों और समय के अनुसार तय होती है। लेखन ‘साहित्य’ के अंतर्गत होता है। लेखन कितना साहित्य है? कितना नहीं? समय में साहित्य, वर्तमान में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए अपने काल से कालातीत हो सकता है।
हमारे यहां के साहित्य के परिदृश्य में तरह-तरह की विसंगतियां, रुकावटें पाई जाती हैं। फिर भी कहने वाले अपनी बात कहते भी हैं, और बड़े तम-तड़ाक के साथ कहते हैं। क्या इन सबसे बच पाने या उबर पाने को कोई विकल्प भी हो सकता है?
पाठक पढ़ने का चुनाव करता है और वह अपना लेखक भी चुनता है। इन प्रसार माध्यमों से सारी दुनिया का लेखन पाठक के समीप है। हम सब कुछ नहीं पढ़ सकते। हम चुने हुए में से चुनते हैं। चुनने और पसंदगी का अपना तरीका कोई भी हो सकता है।
विनोद कुमार शुक्ल अगर कवि-लेखक नहीं होते तो मेरी बात किस शख्स से हो रही होती?
विनोद कुमार शुक्ल अगर कवि-लेखक नहीं होते तो आज मुझ विनोद कुमार शुक्ल से बात नहीं होती।