कई बार किसी के पास इतनी ताकत हो जाती है कि उसे नापा नहीं जा सकता। उदाहरण के लिए, शतरंज के खेल में घोड़े की चाल सबसे अलग होती है। वह कई अन्य दूसरे मोहरों की तरह ज्यादा दूरी तक तो मार नहीं कर सकता, लेकिन किसी भी दिशा में ढाई घर चल कर वार कर सकता है। इसलिए उसकी चाल का अनुमान लगाना थोड़ा मुश्किल होता है। वह एक और मायने में अलग है कि अगल-बगल के घरों में मोहरे होने के बावजूद वह छलांग लगाकर ढाई घर जा सकता है, यानी उसे रोका नहीं जा सकता। इसलिए आगे बढ़ने के साथ वह घातक होता जाता है। भारतीय राजनीति के शतरंज के खेल में भी एक घोड़ा इसी तरह आगे बढ़ रहा है। ध्यान से देखने पर किसी को वह सुसज्जित कवच में नजर आता है, तो दूसरों को उसकी मौजूदगी परेशान करने वाली लगती है। पर्यवेक्षकों की नजरों में भी, निपट तटस्थ भाव से भी देखें तो, असदुद्दीन ओवैसी के पास एक अनजानी-सी गुगली है। हाल ही संपन्न बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी पांच सीटें जीतकर सुर्खियों में आई। अब आगे पश्चिम बंगाल का चुनाव है। हर कोई यह थाह लेने का प्रयास कर रहा है कि चार बार का यह लोकसभा सांसद हैदराबाद से बाहर कितना प्रभावी है। पहले उन्होंने महाराष्ट्र में कदम रखा और अब हिंदी भाषी राज्यों में बढ़ रहे हैं। जैसे क्रिकेट में गुगली गेंद के बारे में अंदाजा लगाना मुश्किल होता है कि किधर घूमेगी, उसी तरह ओवैसी के बारे में लोग सवाल करते हैं कि उनका अगला कदम क्या होगा।
10 नवंबर को हैदराबाद के दार उस सलाम स्थित ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआइएमआइएम) के मुख्यालय में दिवाली कुछ जल्दी आ गई थी। बिहार विधानसभा चुनाव में पांच सीटें जीतना संख्या के लिहाज से बहुत छोटा लग सकता है, लेकिन करो या मरो की लड़ाई में जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को मामूली अंतर से बहुमत मिला, तो ओवैसी मानो किंगमेकर की भूमिका में आ गए। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह रही कि ओवैसी अब राष्ट्रीय राजनीति में कदम रखते नजर आ रहे हैं, जिसकी ख्वाहिश वे वर्षों से कर रहे थे। पांच साल पहले प्रदेश में हुए चुनाव में उन्हें एक भी सीट नहीं मिली थी। इसलिए इस बार की जीत दलित आइकॉन काशीराम के उस कथन को सच साबित करने जैसा है जिसका उल्लेख ओवैसी भी करते हैं, “पहला चुनाव हारने, दूसरा लोगों की नजरों में आने और तीसरा जीतने के लिए होता है।”
अलग आकर्षणः औवेसी की लोकप्रियता इधर बढ़ी है, मगर कई मुसलमानों को वे नहीं भाते
मुसलमानों के वोट डालने के पैटर्न में बदलाव 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान ही दिखने लगा था। वहां ओवैसी की एआइएमआइएम ने महत्वपूर्ण मौजूदगी दर्ज कराई थी। उसे दो सीटों पर जीत मिली और चार जगहों पर दूसरे नंबर पर रही। असदुद्दीन के दादा अब्दुल वाहिद ओवैसी ने 1958 में पुरानी एमआइएम नाम से पहले ‘ऑल इंडिया’ जोड़ा था। अब्दुल वाहिद ने उसी वर्ष पार्टी की बागडोर संभाली थी। आखिरकार 62 वर्ष बाद पार्टी ने अपने नाम के ‘ऑल इंडिया’ को सार्थक किया है, भले ही इससे अनेक हलकों में बेचैनी हो रही है।
51 साल के असदुद्दीन ओवैसी अलग-अलग लोगों की नजरों में अलग शख्सीयत हैं, लेकिन इस बात पर एक राय है कि वे शिष्ट, तेज, करिश्माई और साफ बोलने वाले व्यक्ति हैं। उनकी यह आखिरी विशेषता ज्यादा चर्चित रहती है। एक दिन उनका साफ बोलना शायद लोगों को कर्कश लगने लगे। ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिन्हें वे मोहम्मद अली जिन्ना के जिन्न लगते हैं, जिसमें भारत विरोधी बीज मौजूद हैं। यह बात और है कि पाकिस्तान के एक कार्यक्रम में वहां मौजूद बाकी सभी लोगों की तुलना में ओवैसी संविधान को मानने वाले भारत की राष्ट्रीयता की पुरजोर वकालत करते नजर आते हैं। उनके इस भाषण का वीडियो भी मौजूद है। यह भी सच है कि वे भारत के लोकतांत्रिक टर्फ पर ही अपना खेल खेलना चाहते हैं। यही कारण है कि भारतीय राजनीति में व्याप्त एक महत्वपूर्ण शून्य को भरने वाले नेता के रूप में ओवैसी मुसलमानों के बीच लोकप्रिय होते जा रहे हैं। मौलाना आजाद के बाद भारत में ऐसा कोई मुस्लिम नेता नहीं हुआ, जिसकी स्वीकार्यता पूरे भारत में हो। इसकी एक वजह विभाजन भी है। हालांकि मौलाना आजाद होते तो आज उन्हें सरकारी मुसलमान कहा जाता। सब जानते हैं कि ओवैसी, आजाद नहीं हैं। लेकिन मोदी के भारत में जिन मुद्दों पर दूसरे नेता चुप्पी साध लेते हैं, उन पर ओवैसी साफ बोलते हैं। चाहे वह अयोध्या का मुद्दा हो, नागरिकता संशोधन कानून या यूएपीए का मुद्दा हो। एक बैरिस्टर होने के नाते वे अपनी दलील यकीनी तौर पर रखते हैं और जो संविधान के दायरे में ही होती है। जाहिर है, इस वजह से उनके ब्रांड की राजनीति को अनेक मुसलमान पसंद करते हैं।
ओवैसी एक दशक से यह बात कहते आए हैं कि सभी गैर-भाजपा पार्टियां सुरक्षा देने और धर्मनिरपेक्षता को बचाने के नाम पर मुस्लिम वोट हासिल करती आई हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद वे मुसलमानों के हितों को भूल जाती हैं। वैसे, यह बात काफी हद तक सही भी है। इसलिए उस्मानिया यूनिवर्सिटी में ओवैसी के सीनियर रहे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक मुरलीधर राव कहते हैं कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां ओवैसी का राजनीतिक कद बढ़ने के लिए जिम्मेदार हैं। विभिन्न राज्यों में खाली जगह होना उन्हें विस्तार के लिए आमंत्रण देने जैसा है।
लेकिन कई बातें परेशान करने वाली हैं। ओवैसी भाजपा के विपरीत धर्मनिरपेक्ष पार्टी का विकल्प नहीं देते, दक्षिणपंथी राजनीति के प्रतिबिंब की तरह नजर आते हैं। अंतर सिर्फ इतना होता है कि वे मुसलमानों की बात करते हैं। ओवैसी संघ की विचारधारा के कटु आलोचक हैं। संघ की पत्रिका ऑर्गेनाइजर के पूर्व संपादक शेषाद्रि चारी बड़ी साफगोई से कहते हैं कि ओवैसी में उन्हें एक जैसा चरित्र नजर आता है। आउटलुक से बातचीत में चारी कहते हैं, “ओवैसी मुसलमानों में व्याप्त असुरक्षा की भावना से खेल रहे हैं। उन्होंने मुसलमानों को यह भरोसा दिलाया कि कांग्रेस और दूसरी पार्टियां उन्हें ‘भाजपा-संघ के गुंडों’ से नहीं बचा सकती हैं, और वही उनके एकमात्र तारणहार हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे विश्व हिंदू परिषद या कोई अन्य हिंदूवादी नेता हिंदुओं से कहे कि सिर्फ भाजपा उन्हें बचा सकती है।”
परेशान करने वाली दूसरी बात यह है कि हर मुसलमान समान उत्साह के साथ ओवैसी के संग नहीं हैं। अनेक मुसलमान ओवैसी को अपना नेता नहीं मानते और उन पर समुदाय को बांटने का आरोप लगाते हैं। दशकों से करोड़ों मुसलमान बड़ी पार्टियों का साथ देते आए हैं और ये पार्टियां उनके साथ अन्य समुदायों के जैसा ही बर्ताव करती रही हैं। जब तक उनके हितों की बात होती रही, तब तक मुसलमानों को अलग वर्ग के रूप में खड़ा होने का जोखिम नहीं उठाना पड़ा। पहले कांग्रेस और वामदलों ने यह भूमिका निभाई, और फिर मंडल के बाद पनपी पार्टियों और तृणमूल कांग्रेस जैसे दलों ने। बिहार में चुनाव अभियान के वीडियो देखें तो उसमें यह साफ नजर आता है कि कुछ पार्टियों ने तो पहले की तरह ही राजनीति करने का प्रयास किया, लेकिन कुछ पार्टियों ने अलग रास्ता अपनाया। इसका नतीजा वोटों के बंटवारे के रूप में दिखा। यही कारण है कि कांग्रेस और अन्य राजनैतिक पार्टियां ओवैसी को ‘भाजपा की बी-टीम’ या ‘वोट कटवा’ कहती हैं, जिसका फायदा भाजपा को मिलता है। इन पार्टियों के अनुसार ओवैसी सिर्फ उन्हीं सीटों पर धर्मनिरपेक्ष वोटों का बंटवारा नहीं करते जहां उनकी पार्टी चुनाव लड़ती है, बल्कि दूसरी सीटों पर भी लोगों को प्रभावित करते हैं जिससे भाजपा को फायदा मिलता है। एआइएमआइएम का कहना है कि बिहार चुनाव से पहले वह महागठबंधन के नेताओं के संपर्क में आई थी, लेकिन उसे भगा दिया गया। शायद इसलिए कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस ने उसे कमतर आंका या फिर उसके नेता ओवैसी से दूर रहना चाहते थे।
इस बात ने मुसलमानों के बीच एक नई बहस को जन्म दे दिया है। मुरादाबाद से समाजवादी पार्टी के सांसद एस.टी. हसन मानते हैं कि मुस्लिम समुदाय के पिछड़े और कट्टरपंथी लोगों को जोड़कर एआइएमआइएम खतरनाक और विभाजनकारी राजनीति कर रही है, लेकिन इसका दोष वे पुरानी पार्टियों पर ही मढ़ते हैं। वे कहते हैं, “गुलाम नबी आजाद या सलमान खुर्शीद की स्वीकार्यता उतनी नहीं है, ओवैसी इस बात को भुनाना चाहते हैं। कांग्रेस छद्म मुसलमानों को बढ़ावा देती है जो अल्पसंख्यकों से जुड़े मसलों पर मजबूत राय देने से बचते हैं। यही कारण है कि ओवैसी और आजम खान जैसे नेता विवादास्पद मुद्दों पर बयान देते हैं।” कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री तारिक अनवर इसका बचाव करते हुए कहते हैं, “दुर्भाग्यवश हम ऐसे काल में जी रहे हैं जब मुसलमानों के वाजिब अधिकारों की बात को भी भाजपा अलग रंग देने की कोशिश करती है।” अनवर के मुताबिक, “कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रीय पार्टी है, वह किसी एक समुदाय से अपील नहीं कर सकती। जिस तरह हम मुस्लिम कट्टरपंथियों का मुकाबला करते हैं, उसी तरह हिंदू कट्टरपंथियों के भी खिलाफ हैं। हमें हर समुदाय को साथ लेकर चलना है। ओवैसी का फोकस सिर्फ मुस्लिम वोट और भाजपा का हिंदू वोट है।”
वजूद की कश्मकशः चेन्नै में ईद की पूर्व संध्या पर नमाज अदा करतीं मुस्लिम महिलाएं
क्या मुस्लिम संगठनों के लिए मुख्यधारा की पार्टियों के साथ व्यापक गठजोड़ संभव है? इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आइयूएमएल) के नेता एम.के. मुनीर तो ऐसा मानते हैं। इसके लिए वे कांग्रेस के केरल मॉडल का उदाहरण देते हैं जो आइयूएमएल के साथ है। मुनीर के अनुसार, “हम यह नहीं कहते कि ओवैसी भाजपा के एजेंट हैं, लेकिन उनकी मौजूदा रणनीति धर्मनिरपेक्ष ताकतों की एकता को नष्ट कर रही है। बिहार में महागठबंधन को उन्हें साथ लेना चाहिए था। कांग्रेस को और उदार होना चाहिए था।”
बिहार में किशनगंज से कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद की राय शेषाद्रि चारी से मिलती-जुलती है। वे कहते हैं कि भाजपा-संघ और एआइएमआइएम एक दूसरे की पूरक हैं। उनकी रणनीति एक दूसरे को मदद करती है, जिससे धर्मनिरपेक्ष जगत को नुकसान होता है। वे कहते हैं, “अगर आप बीते एक दशक की राजनीति को देखें तो आप पाएंगे कि हिंदू ध्रुवीकरण सिर्फ हिंदुओं के भाजपा को वोट देने तक सीमित नहीं है, बल्कि कट्टर हिंदू इतने निडर हो गए हैं कि वे मुसलमानों की हत्या भी कर रहे हैं। उन्हें कानून का कोई डर नहीं है। ओवैसी जैसे नेता इस बात का इस्तेमाल मुसलमानों के ध्रुवीकरण के लिए करते हैं।” जावेद का मानना है कि हिंदू कट्टरवाद के जवाब में एआइएमआइएम उभरा है, और दोनों भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के लिए चुनौती हैं। हिंदू कट्टरपंथियों के जवाब में एआइएमआइएम ऐसे मुद्दे उठाती है जो मुसलमानों के एक वर्ग के लिए काफी भावनात्मक होता है।
रूढ़िवादिता के प्रति स्पष्ट झुकाव से इनकार नहीं किया जा सकता। यह ऐसा खेल है जिसे तुष्टीकरण की राजनीति के नाम पर सब खेल रहे हैं। ईएमएस नंबूदरीपाद ने मुस्लिम बहुल मलप्पुरम जिले का गठन किया तो कांग्रेस के नाम चर्चित शाहबानो मामला है। मुलायम सिंह यादव से लेकर ममता बनर्जी तक सबने हार्डलाइन या रूढ़िवादी तत्वों का समर्थन किया। लेकिन उनका कदम एक अदूरदर्शी राजनीतिक निर्णय था, जो सबको साथ लेकर चलने वाली राजनीति का हिस्सा था। औपचारिक राजनीति में एआइएमआइएम भी निस्संदेह वही करेगी। जब वह तीन तलाक पर प्रतिबंध का विरोध करती है तो वह भाजपा के संदिग्ध राजनीतिक लक्ष्य का विरोध मात्र नहीं होता, वह वास्तव में महिलाओं के प्रति विचारों में यथास्थिति रखने का खुलकर समर्थन होता है।
इस रूढ़िवादी और शरिया आधारित नजरिए से एक और बात जुड़ी है जिसे कम लोग ही स्वीकार करते हैं, और वह है जाति। हिंदू समाज तो खुले तौर पर जाति आधारित है, लेकिन इस्लाम जाति की बात स्वीकार नहीं करता है। हालांकि भारत में इस्लाम पर इसका मौलिक रूप से असर दिखता है। यहां मुस्लिम राजनीति हमेशा प्रभावशील अशरफ अभिजात्य वर्ग के नेतृत्व में रही है। चाहे वह विभाजन से पहले मुस्लिम लीग हो, कांग्रेस के मौलाना आजाद हों, आइयूएमएल या वामपंथी कला मर्मज्ञ और सांस्कृतिक आइकॉन हों, उनकी मौजूदगी अलग ही नजर आती है। आम मुसलमान काम के आधार पर बंटी जातियों से ही जुड़े हैं पशुपालक, बुनकर, धोबी, नाई, कसाई आदि जो दलित पसमांदा कहलाते हैं। फिर भी ओवैसी मुसलमानों के भीतर आरक्षण के विचार का प्रबल विरोध करते हैं। उनका नया नारा है ‘जय भीम, जय मीम’, जिसमें भीम को मीम के बारे में कुछ कहने की अनुमति नहीं है। इसलिए जब वे फायदे के लिए सामाजिक गठबंधन बनाते हैं, जैसा उन्होंने महाराष्ट्र में प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन आघाडी के साथ किया, तो संदेह बना रहता है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद कहते हैं कि ओवैसी का दलित-मुस्लिम एकता का विजन दिखावा है। वे कहते हैं, “सभी मुसलमानों को एक समान नहीं दिखाया जा सकता और ओवैसी समुदाय में व्याप्त अलग-अलग सतहों की अनदेखी करते हैं। ऐसा करके वे हिंदू और मुस्लिम दलितों को एक श्रेणी में रखना चाहते हैं। इसी वजह से पसमांदा मुसलमान उन्हें स्वीकार नहीं करते।”
यह बात सही है कि धर्मनिरपेक्ष राजनीति के विघटन के कारण ही ओवैसी का उदय हुआ है। वर्षों से भारत गरीब मुसलमानों को सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से ऊपर लाने में विफल रहा है। अब भाजपा के हमले तथा लगातार उपहास ने स्थिति और बदल दी है। राजनीतिक दल अपने कदम वापस खींचने लगे हैं। 12 नवंबर को जब तेजस्वी यादव ने चुनावी नतीजों के बाद अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस की तो स्टेज पर एक भी मुस्लिम नेता नहीं होने के कारण सोशल मीडिया पर अनेक सवाल दागे गए। प्रो. सज्जाद कहते हैं, “चर्चा तो यह भी है कि यादव नेताओं ने इस चुनाव में मुस्लिम और गैर-यादव उम्मीदवारों को हराने का प्रयास किया।“ हालांकि राजद नेता मनोज कुमार झा इसे ‘मनगढ़ंत कहानी’ बताते हैं। लेकिन एआइएमआइएम पर कोई आरोप में वे भी नहीं लगाते।
महाराष्ट्र के कांग्रेस नेता हुसैन दलवई की बात शायद सबसे गंभीर है। वे बताते हैं कि उन्हें पूर्णिया में चुनाव प्रचार करने के लिए कहा गया था लेकिन कांग्रेस उम्मीदवार के आग्रह पर उन्हें अपनी योजना रद्द करनी पड़ी। दलवई के अनुसार, “मैं बिहार के लिए निकलने ही वाला था कि मेरे पास उम्मीदवार का फोन आया। उन्होंने मुझसे यात्रा रद्द करने का आग्रह किया क्योंकि उन्हें डर था कि अगर मैं चुनाव प्रचार के लिए गया तो हिंदू मतदाता उन्हें वोट नहीं देंगे। यह मेरे लिए काफी तकलीफदेह था। पार्टी ने एक भी मुस्लिम नेता को बिहार नहीं भेजा। उनसे कहा गया कि वहां न जाएं।” दलवई मानते हैं कि कांग्रेस की इस भीरुता के कारण ही मुसलमान सांप्रदायिक पार्टियों की तरफ जा रहे हैं। पार्टी के रवैये में सुधार की बात करते हुए वे कहते हैं, अगर कांग्रेस नरम हिंदुत्व अपनाएगी तो हम मुसलमानों को एआइएमआइएम जैसी पार्टियों के खतरे के बारे में कैसे समझाएंगे?
इस जटिल घालमेल से क्या निष्कर्ष निकलता है? ओवैसी का उदय भारतीय राजनीति के लिए क्या संकेत है? राजनीतिक टिप्पणीकार सईद नकवी मौजूदा अवतार में ओवैसी के लिए दीर्घकालिक भविष्य नहीं देखते। वे कहते हैं, “ओवैसी मुसलमानों को एक तरह की सुरक्षा का एहसास कराते हैं, लेकिन इसका नकारात्मक पहलू यह है कि वे दूसरी तरफ लोगों को एकजुट करने में मदद करते हैं और वे बहुसंख्यक हैं। हिंदुत्व को कौन रोक सकता है, ओवैसी रहें या ना रहें, हिंदुत्व तो रहेगा ही।” एक तरह से ओवैसी का होना हिंदुत्व की सफलता की गारंटी है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया में इतिहास और संस्कृति के प्रोफेसर रिजवान कैसर भी मानते हैं कि ओवैसी की दक्षिणपंथी राजनीति भाजपा की बहुसंख्यक राजनीति का समाधान नहीं है। मुसलमानों को अधिकार संपन्न बनाने के बजाय ओवैसी उन्हें नुकसान पहुंचा रहे हैं। कैसर कहते हैं, “एक समुदाय को दूसरों से अलग करने वाली राजनीति क्यों करें? विचार तो पुल बनाने का है।” कैसर की नजरों में ओवैसी मुसलमानों को सुरक्षा का झूठा आश्वासन दे रहे हैं।
दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के असीम अली को लगता है कि स्वतंत्र मुस्लिम राजनीतिक संगठनों की अपनी सीमाएं हैं। वे कहते हैं, “दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग के विपरीत मुसलमानों ने अपने समुदाय की पार्टी या नेता का समर्थन करने से परहेज किया है, खासकर राष्ट्रीय स्तर पर। अगर एआइएमआइएम पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें जमाती है तो यह भारतीय राजनीति के लिए मौलिक रूप से नया चरण होगा।” हालांकि उनका तर्क है कि मुख्यधारा की पार्टियों को त्यागना दीर्घकाल में मुसलमानों के लिए अच्छा नहीं है। मुसलमान संख्या में कम हैं, इसलिए एआइएमआइएम जैसी पार्टी सत्ता की प्रमुख दावेदार नहीं हो सकती है। बहुत हुआ तो वह दबाव बनाने वाले एक समूह के रूप में काम कर सकती है। अली कहते हैं, “भाजपा को चुनौती तो धर्मनिरपेक्ष पार्टियों से ही मिलेगी। इसलिए मुसलमानों के लिए इन पार्टियों से दूर होना ठीक नहीं है।”
उर्दू कवयित्री इकरा खिलजी जाति और महिलाओं के मामले में एआइएमआइएम के नजरिये की आलोचना करती हैं, लेकिन वे मुस्लिम मतदाताओं को दोषी ठहराने के खिलाफ हैं। इकरा कहती हैं, “भाजपा को वोट देना और एआइएमआइएम को वोट देना, दोनों काफी अलग बातें हैं। हिंदू बहुल देश में भाजपा जैसी पार्टियों के जरिए आप सिर्फ प्रतिनिधित्व नहीं चाहते, आप अल्पसंख्यकों के खिलाफ बदला भी चाहते हैं। लेकिन अल्पसंख्यक एक वैध उद्देश्य के लिए प्रतिनिधित्व चाहते हैं। एआइएमआइएम के नजरिए और उनकी राजनीति की आलोचना की जा सकती है, लेकिन मैं मुस्लिम मतदाताओं के प्रतिकार स्वरूप कट्टर होने के आरोप का विरोध करती हूं।”
दरअसल कट्टरवाद को लेकर होने वाली चर्चा में एआइएमआइएम के बारे में अनेक बातें छिप जाती हैं। संगठन ने आजादी के बाद खुद को कैसे दोबारा खड़ा किया, इसके बारे में जामिया में राजनीति शास्त्र पढ़ाने वाले अदनान फारूकी रोचक जानकारी देते हैं, “आजादी के समय पार्टी को सांप्रदायिक मान लिया गया था। सत्ता हस्तांतरण का विरोध करने की वजह से उसे भारत विरोधी संगठन करार दिया गया। उसके बाद एआइएमआइएम ने जनहितकारी कदम उठाकर लोगों में अपनी पैठ बनाई।” फारूकी बताते हैं, “लंबे समय तक एआइएमआइएम को रिक्शावालों की पार्टी माना जाता था। अभिजात्य मुसलमान इस पार्टी को नहीं बल्कि कांग्रेस को वोट देते थे। लेकिन कमजोर वर्ग के लोगों को लगा कि एआइएमआइएम उनके हितों की बात करती है।”
2008 में पार्टी की बागडोर संभालने के बाद असदुद्दीन ओवैसी ने इस मॉडल पर काफी परिश्रम किया और यह आश्वस्त किया कि उनके जनप्रतिनिधि लोगों के प्रति जवाबदेह बने रहें। पार्टी मुख्यालय में एआइएमआइएम विधायकों को हफ्ते में छह दिन मौजूद रहना पड़ता है। ओवैसी भी अक्सर वहां रहकर देखते हैं कि उनके विधानसभा क्षेत्रों में क्या चल रहा है। स्थानीय लोग, चाहे वे किसी भी धर्म या वर्ग के हों, इस दरबार में आकर सार्वजनिक कार्यों की प्रगति के बारे में पूछ सकते हैं या व्यक्तिगत मामलों में मदद मांग सकते हैं। ओवैसी भी अपने वोटरों के लिए सहज उपलब्ध होते हैं। उन्हें हैदराबाद में कभी भी घूमते और लोगों से बातचीत करते देखा जा सकता है। हाल ही बेमौसम बारिश के बाद हैदराबाद में जब बाढ़ आई तो ओवैसी रोजाना घंटों सड़क पर रहते, लोगों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में मदद करते और आधी रात तक राहत कार्यों का जायजा लेते थे। नए इलाकों में पैठ बढ़ाने के लिए भी एआइएमआइएम यही तरीका अपनाती है।
2019 के लोकसभा चुनाव में एआइएमआइएम उम्मीदवार को किशनगंज में करीब तीन लाख वोट मिले थे। स्थानीय लोगों का कहना है कि 2017 में जब जिले में सौ साल की सबसे भीषण बाढ़ आई थी, तब पार्टी कार्यकर्ताओं ने काफी राहत कार्य किए थे। यह वोट उसी का नतीजा था। इस साल लॉकडाउन के दौरान भी पार्टी ने पांच हेल्पलाइन स्थापित की थीं थे और तेलंगाना से बिहारी प्रवासी मजदूरों को लाने के लिए कई ट्रेनों यों की व्यवस्था की थी।
पार्टी इस बात से इनकार करती है कि उसे सिर्फ ध्रुवीकरण की वजह से जीत हासिल हुई। बिहार में एआइएमआइएम युवा शाखा के अध्यक्ष आदिल हसन आजाद ने आउटलुक से कहा, “हमारे 18 में से पांच उम्मीदवार हिंदू थे, यहां तक कि मुस्लिम बहुल बरारी में भी। हमें सभी विधानसभा क्षेत्रों में बड़ी संख्या में हिंदुओं के वोट मिले हैं। किशनगंज में 10,000 से ज्यादा हिंदुओं ने हमें वोट दिया।” आजाद के अनुसार किशनगंज, बस्तर या कालाहांडी जैसा ही पिछड़ा क्षेत्र है और ओवैसी ने संसद में बहस के दौरान इस जिले को दार्जिलिंग की तरह विशेष दर्जा देने की मांग की थी। आजाद कहते हैं, “भाजपा यह कहकर वोटरों के ध्रुवीकरण की कोशिश करती है कि किशनगंज एक और बांग्लादेश बन जाएगा। राजद और कांग्रेस, भाजपा के प्रति लोगों में डर बैठाने का प्रयास करती हैं। इन दोनों से दूर हम सीमांचल के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं।”
बाहर दिखने वाले चेहरे के पीछे एक व्यग्र चेहरा छिपा है। फारूकी ने ओवैसी भाइयों के बीच एक तरह के बंटवारे की बात लिखी है। यह एक तरह की दोहरी राजनीति है जिसमें असदुद्दीन पार्टी का तार्किक, नरम और राष्ट्रीय चेहरा पेश करते हैं तो दूसरी तरफ अकबरुद्दीन मुसलमानों के बीच भड़काने वाला भाषण देते हैं और कई बार अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति हिंसा का रास्ता भी अपनाते हैं।
खुद असदुद्दीन का चरित्र भी दोहरा है। जब वे अंग्रेजी बोलते हैं तब अलग शख्सीयत होते हैं, और जब हैदराबाद में अपने लोगों के बीच दक्कनी बोलते हैं तब उनकी भाषा परिहास और राजनीति की होती है। अन्य मुस्लिम नेताओं के विपरीत सोशल मीडिया पर उनकी मौजूदगी काफी अधिक रहती है। उनके भाषण यूट्यूब पर सर्कुलेट किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, ओवैसी बिकते हैं। वे पारंपरिक मुस्लिम नेता की तरह नहीं। वे शेरवानी पहनते हैं, लंबी दाढ़ी रखते हैं और धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते हैं। वे भले ही धर्म की बात करें, लेकिन उनकी शब्दावली संविधान की होती है। इसलिए युवा आकांक्षी मुसलमानों को उनके भीतर पारंपरिक और आधुनिक दोनों का संगम नजर आता है।
अपने लोगों के बीच बड़े आधार को देखते हुए एक बड़ा सवाल भी उठता है। क्या एआइएमआइएम मुस्लिम राजनीति से परे जा सकती है? पार्टी का कोई उम्मीदवार धर्म से परे जाकर गवर्नेंस मॉडल के आधार पर लोगों से वोट की अपील कर सकता है, जैसा पार्टी ने किशनगंज में किया? क्या यह समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों के लिए चेतावनी की तरह है? सपा नेता घनश्याम तिवारी ऐसा नहीं मानते। वे कहते हैं, “ओवैसी ने अपने लिए जो राजनीतिक जगह बनाई, वह उनके कार्यों की वजह से नहीं, बल्कि भाजपा की राजनीति का नतीजा है। भाजपा जो ध्रुवीकरण करती है उसके जवाब में एआइएमआइएम जैसी पार्टियों के लिए जगह बन जाती है। हमारा लक्ष्य इस जगह को गलत साबित करना है।” हालांकि इस सोच के बावजूद निकट भविष्य में कुछ नई या बदली हुई प्राथमिकताएं देखने को मिल सकती हैं। शायद यही वह मोड़ होगा, जहां स्थितियां और बदल सकती हैं।
कैसर मानते हैं कि मुसलमानों के अलावा ओवैसी को ज्यादा समर्थन मिलने की संभावना नहीं है। पार्टी का नाम ही ऐसा है कि उसका गठन मुसलमानों को एकजुट करने के लिए किया गया। आधार बढ़ाने के लिए ओवैसी को वैचारिक को राजनीतिक स्तर पर खुद को बदलना पड़ेगा, लेकिन अगर उन्होंने ऐसा किया तो उनके मूल समर्थक उनसे दूर हो सकते हैं। शेषाद्रि चारी भी कहते हैं कि अगर ओवैसी मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से बाहर जाकर अखिल भारतीय नेता बनने की कोशिश करते हैं तो यह उनके लिए अभिशाप के समान होगा। शायद ओवैसी भी अति महत्वाकांक्षा के नतीजे से वाकिफ जान पड़ते हैं। इसलिए वे कहते हैं कि मुझे हर राज्य की विधानसभा में सिर्फ एक विधायक चाहिए जो मुसलमानों के हक की बात कर सके, जो काम धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने नहीं किया। लेकिन फिलहाल तो मंसूबे कुछ और लगते हैं।
बहरहाल, ऐसे समय जब वे सभी पक्षों को कड़ी चुनौती दे रहे हैं और उनके सितारे बुलंदी की तरफ बढ़ रहे हैं, तो हमें राजनीति में आने वाले दिनों में कई नए मोड़ देखने को मिल सकते हैं।
इतिहास के गायब पन्ने
अतीतः अब्दुल वाहिद ओवैसी (बाएं), सलाहुद्दीन ओवैसी
भारत का आधुनिक राजनीतिक इतिहास काफी लचीला है। राजनीति में जैसे-जैसे लोग आगे बढ़ते गए, अपनी सहूलियत के मुताबिक उन्होंने इसमें भी बदलाव किया। इसलिए इस बात में आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि एआइएमआइएम के इतिहास के बारे में भी बहुत कम जानकारी है। जब असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने पुराने हैदराबाद शहर से बाहर कदम रखना शुरू किया तो उस पर खुद को श्रेष्ठ मानने वाले मुस्लिम, हिंसक रूप से हिंदू विरोधी और पाकिस्तान समर्थक होने के आरोप लगे। ओवैसी ने 2008 में जब अपने पिता, छह बार के सांसद मरहूम सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी, से पार्टी की बागडोर ली तो उन्हें पुरानी मजलिस ए इत्तेहाद उल मुस्लिमीन (एमआइएम) से थोड़ा अलग होना बेहतर जान पड़ा। असदुद्दीन के दादा अब्दुल वाहिद ओवैसी को एमआइएम की बागडोर कुख्यात सैयद कासिम रिजवी से मिली, जो बाद में पाकिस्तान चले गए थे। सितंबर 1948 में भारतीय सेना के ‘ऑपरेशन पोलो’ के बाद हैदराबाद का भारत में विलय हुआ और रिजवी को कैद कर लिया गया था। करीब एक दशक तक संगठन की गतिविधियां बंद रहने के बाद अब्दुल वाहिद ने 1958 में उसे पुनर्जीवित किया।
एआइएमआइएम की वेबसाइट पर 1927 से 1938 की अवधि का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। मौलवी महमूद नवाज खान, मौलवी पाशा हुसैनी जैसे इस्लामी नेताओं ने निजाम के संरक्षण में 1927 में एमआइएम का गठन किया था। उसका मकसद हैदराबाद के इस्लामी साम्राज्य पर असफ जाही की पकड़ बनाए रखना था। 1938 में बहादुर यार जंग संगठन के प्रेसिडेंट बने। संगठन के संपादित इतिहास में इस पर भी चुप्पी है कि एमआइएम का नेतृत्व रिजवी को सौंपे जाने के बाद क्या हुआ। रिजवी के नेतृत्व और एमआइएम के इतिहास से ओवैसी पीछा छुड़ाने की कोशिश करते रहे हैं। वेबसाइट पर रिजवी के प्रेसिडेंट बनने का कोई जिक्र नहीं है और कहा गया है कि सितंबर 1948 के बाद एमआइएम का अस्तित्व खत्म हो गया था। यह नहीं बताया गया है कि ऐसा रिजवी के कैद किए जाने और खून-खराबा फैलाने की वजह से एमआइएम पर प्रतिबंध लगाने के कारण हुआ था।
इतिहासकारों के अनुसार रिजवी रजाकारों का नेता था। रजाकार एक स्वयंभू मुस्लिम मिलिशिया था जिसे निजाम का संरक्षण हासिल था। रिजवी और उसके रजाकार, जिन्हें एमआइएम का भी समर्थन हासिल था, हैदराबाद के हिंदुओं को आतंकित करते थे। उन्होंने निजाम के साथ मिलकर पाकिस्तान में विलय का प्रयास भी किया। इस बारे में ओवैसी हमेशा यही कहते हैं, “रजाकार भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गए, हम यहां रह गए।”
एआइएमआइएम का बदलता चेहरा
आशीष नंदी
भारतीय राजनीति में ओवैसी एक बड़े रोचक चरित्र की तरह हैं, और मेरा मानना है की उनके लिए यहां उचित जगह होनी चाहिए। देखा जाए तो ओवैसी में एक खास तरह का मिश्रण है। वे एक विद्वान नेता हैं, बेहतरीन वक्ता और बहुत ही अच्छे वकील भी हैं। इन गुणों की वजह से संसद के भीतर और बाहर उन्हें काफी ख्याति मिली है। वे संविधान को मानने वाले रहे हैं। उनकी भाषा उनके भाई अकबरुद्दीन जैसी नहीं। असदुद्दीन संविधान में निहित अधिकार ही चाहते हैं। वे इन अधिकारों को बिना शर्त और आत्मविश्वास के साथ चाहते हैं। शायद इसी आत्मविश्वास की वजह से वे भाजपा के निशाने पर रहते हैं। ओवैसी पर हमला करने वाले उन्हें लेकर सहज नहीं हैं। मुसलमान उन्हें ऐसे नेता के रूप में देखते हैं जो भाजपा के साथ अपनी शर्तों पर लड़ सकता है। हालांकि उनका यह चरित्र एक ऐतिहासिक तथ्य से जुड़ा है जो एआइएमआइएम के लिए नकारात्मक है। इस पार्टी का जुड़ाव रजाकारों के साथ रहा है। 1940 के दशक में पार्टी का प्रतिनिधित्व कासिम रिजवी के हाथों में था। कासिम रिजवी रजाकारों के नेता थे। रजाकार एक मुस्लिम मिलिशिया था जिसका गठन भारत में हैदराबाद के विलय का विरोध करने के लिए किया गया था। लेकिन एआइएमआइएम के इस अतीत से हैदराबाद के कुछ चुनिंदा पुराने निवासी ही वाकिफ होंगे। उसके बाद पीढ़ियां बदल गई हैं। भाजपा ने ओवैसी के खिलाफ इस तथ्य का इस्तेमाल करने की कोशिश की थी, लेकिन आखिरकार उसने यह कोशिश छोड़ दी। उसने ऐसा किसी उपकार के तौर पर नहीं किया, बल्कि किसी भी व्यक्ति को यह बात समझाने में उन्हें आधा घंटा लग जाता था। और फिर एआइएमआइएम भी बदली है। कुछ लोगों का यह मानना कि संघ और एआइएमआइएम एक दूसरे के प्रतिबिंब हैं, यह पूरी तरह सच नहीं है। एआइएमआइएम सांप्रदायिक रेखा से परे जा चुकी है। उसे बड़ी संख्या में हिंदुओं का भी समर्थन हासिल है। यह अनेक तरह के कार्य करती है, सामाजिक कार्य, राहत कार्य, शिक्षण संस्थान चलाना और इन सबका फायदा हर धर्म के लोगों को मिलता है। इसलिए ओवैसी एक खास तरह का मिश्रण हैं और यह बात जाहिर है कि भाजपा इस तरह के खास मिश्रण को पसंद नहीं करती है।
ऐसा ही खास मिश्रण तब देखने को मिला था जब दिल्ली के शाहीन बाग में मुस्लिम महिलाएं धरने पर बैठ गई थीं। उन्होंने तो विरोध का संविधान सम्मत तरीका अपनाया था। भाजपा ने उस महान आंदोलन को भंग करने की भरसक कोशिश की और आखिरकार उसमें कामयाब भी रही। अगर ओवैसी राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते हैं तो मैं चाहूंगा कि वे मुसलमानों में दलितों के हितों की बात करें। मुस्लिम नेता अपने धर्म में जाति प्रथा या किसी अन्य भेदभाव की बात से इनकार करते हैं। यह एक बड़ी ट्रैजडी है क्योंकि इसी वजह से हलालखोर जैसी जातियों, जिन्हें भारत ही नहीं, पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी अछूत माना जाता है, का विकास नहीं हो पा रहा है।
(जैसा भावना विज अरोड़ा को बताया। आशीष नंदी राजनीतिक मनोविज्ञानी और सामाजिक विचारक हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)