Advertisement
20 जनवरी 2025 · JAN 20 , 2025

फिल्म: जिंदगी संजोने की अकथ कथा

पायल कपाड़िया की फिल्म ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट परदे पर नुमाया एक संवेदनशील कविता
फिल्म का एक दृश्य

यह सिर्फ तीन महिलाओं की कहानी नहीं है। यह निचले स्तर पर काम करने वाले उन लोगों की वास्तविकताओं की कहानी है, जो कहीं गहरे हमारे अनुभव और कल्पना में छुपे हुए हैं। यह मध्यवर्गीय भारत के बारे में है। हम सभी के बारे में, हमारी इच्छाओं, सीमाओं और रोशनी तथा छाया के बीच के नाजुक अंतरसंबंध के बारे में, जो हमारे जीवन को आकार देता है। ऑल दैट वी इमेजिन ऐज लाइट में पायल कपाड़िया की दृष्टि सिनेमा को अपनी विधा की सीमाएं तोड़ती है और कोई कविता, संवाद और कई बार एकालाप जैसा आभास देती है। कपाड़िया धीमे लेकिन पुरजोर तरीके से दर्शकों से ऐसी दुनिया के बारे में अपनी भूमिकाओं पर पुनर्विचार करने का आग्रह करती हैं, जहां विशेषाधिकार और हाशिए के लोगों के साथ असहज सह-अस्तित्व है। कपाड़िया हमें जीवन के व्यक्तिगत और राजनैतिक दोनों आयामों पर आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करती हैं।

सिनेमाई विधा में स्टिल फ्रेम का इस्तेमाल विरले ही होता है, लेकिन कपाड़िया उसके इस्तेमाल से ऐसी जगह बनाती हैं, जहां जुड़ाव के लिए एक बिंदू है, जो कथा को बुनता है, जो प्रामाणिक है, प्रतीकात्मक है और कई स्तरों पर प्रतिबिंबित होता है। हाइब्रिड फॉर्म में कपाड़िया की महारत सहजता से फिक्शन को नॉन-फिक्शन के साथ जोड़ती है। इससे फिल्म के पात्रों और दर्शकों दोनों के लिए गहन और अंतरंग अनुभव तैयार होता है।

कभी न ठहरने वाली मुंबई की रफ्तार और रत्नागिरी की अलसाई शांति की दोहरी पृष्ठभूमि पर आधारित यह फिल्म आधुनिक भारत के सभ्य परिदृश्यों के भीतर मानव अस्तित्व की जटिलताओं की पड़ताल करती है। सिर्फ प्यार के लिए नहीं, बल्कि स्थान, पहचान और संबंध की भावना के लिए हम तीन महिलाओं के जीवन के गोपनीय पहलुओं से परिचित होते हैं, उनकी लालसा की पड़ताल करते हैं। पार्वती, प्रभा और अन्नू तीनों परिस्थितियों के अनुसार बदलती जा रही हैं।

पायल कपाड़िया

फिल्म की निर्देशक पायल कपाड़िया

चिकित्सा पेशे के अंधेरे पहलू को उजागर करते हुए, नर्सिंग पेशा इस फिल्म को कैटलाइज करता है। यह फिल्म हमें महिलाओं की स्वतंत्रता और सीमा के बीच के संबंधों का विश्लेषण करने की अनुमति देती है, जो देखभाल के गुमनाम काम पर हावी है। कपाड़िया ने बताया कि कैसे नर्सिंग का पेशा महिलाओं को स्वतंत्रता देते हुए उन्हें घर से बाहर निकल कर नए शहरों में जाने का मौका देता है। लेकिन यह दमघोंटू भी हो सकता है। फिल्म में हम पाते हैं कि अस्पताल के भीतर, महिला केंद्रित कोई जगह कैसे पेशेवर संयम अक्सर भावनात्मक अभिव्यक्ति को दबा देता है। सिनेमा में शायद ही कभी इतनी सूक्ष्मता को खोजा गया। यही वजह है कि कपाड़िया का चित्रण इसे मार्मिक और व्यावहारिक दोनों बनाता है। अस्पताल के भीतर ही पार्वती, प्रभा और अन्नू की परस्पर जुड़ी जिंदगियां अस्तित्व और एकजुटता में निहित पीढ़ी दर पीढ़ी जुड़े बहनापे के संबंधों की छवि को उजागर करती हैं। इस अर्थ में देखा जाए, तो कपाड़िया का सूक्ष्म नारीवाद सैद्धांतिक व्याख्या से परे गहन मानवतावादी परिप्रेक्ष्य दिखाता है।

विधवा पार्वती दो दशकों से ज्यादा समय से मुंबई की एक चॉल में रह रही है। फिर भी उसके पास उसे अपना कहने का दावा करने के लिए दस्तावेज नहीं हैं। बेरंग जीवन जीने वाली प्रभा की जिंदगी में प्यार दूर से परिभाषित होने वाली चीज है। पति के साथ संबंध की एकमात्र निशानी जर्मनी से भेजा गया राइस कुकर है, जिससे वह चिपकी रहती है। एक युवा प्रशिक्षु नर्स अनु, मुस्लिम लड़के के साथ अपने प्रारंभिक रिश्ते और उनके लिए अंतरंगता के क्षणों के संघर्ष के बीच संतुलन बनाती है। ये महिलाएं जिंदगी और शांतिपूर्ण विद्रोह की जटिल तस्वीर प्रस्तुत करती हैं।

सबसे ज्यादा ध्यान देने योग्य जो बात है, वह यह कि कपाड़िया ने समय को कैसे अपने पात्रों की भावनात्मक गति के अनुसार प्रस्तुत किया है। मुंबई की व्यस्त और अव्यवस्थित लय शहर की पहचान को आकार देने वाली निरंतर गति को दर्शाती है। सीमित प्रकाश और हवा से घिरी जिंदगी की भावना को व्यक्त करने के लिए कॉम्पैक्ट, सख्त फ्रेम का उपयोग किया गया है, जबकि मानसून की गीली चिपचिपाहट भावनात्मक आधार के रूप में बनी रहती है। दूसरे शब्दों में, पूरी फिल्म सिनेमाई परतों का उत्कृष्ट उदाहरण है।

शुरुआत में, हम पार्वती के चरित्र को मुख्य कथानक के सहायक, एक प्रकार के पूरक के रूप में पाते हैं। लेकिन यह कपाड़िया की कहानी कहने की कला में महारत को दर्शाता है, क्योंकि पार्वती की ही कहानी है, जो कहानी के भावनात्मक संकट को हल करने में मदद करती है। तीनों अपने घर लौट रही हैं, रत्नागिरी। मानसून विदा ले रहा है। रत्नागिरी में मुंबई के अंधेरे और बंद कमरे के मुकाबले हवा-रोशनी भरपूर है। फिल्म का यह जीवंत विरोधाभास पहले भाग को दूसरे भाग से बिलकुल अलग कर देता है। विदा होते मानसून वाला रत्नागिरी फिल्म निर्माता को शांत और सूरज की रोशनी से भरपूर विकल्प प्रदान करता है, जो शहर की धीमी गति को दर्शाता है। धूप से नहाए चमकीले दृश्य बदलते मौसम और वातावरण के खूबसूरत प्रतीक के रूप में सामने आते हैं। उसी तरह जैसे, पात्रों की यात्रा दुख-सुख से मुक्ति की ओर बढ़ती है। बार-बार आने वाला पियानो संगीत आनंद और स्वप्न के क्षणिक पलों को पकड़ता है, लालसा की जटिल भावना को व्यक्त करता है।

फिल्म में सबसे यादगार दृश्यों में से एक वह है, जहां सुनसान समुद्र तट पर अनु और उसका साथी अंतरंगता के निजी क्षण का अनुभव करते हैं, जो उन्हें मुंबई में कभी नहीं मिले। ‘आजादी’ और ‘पप्पू लव्स शालू’ वाली इबारतों के विपरीत, फिल्म व्यक्तिगत मुक्ति को प्रतिरोध और लचीलेपन के सामूहिक इतिहास से सूक्ष्मता से जोड़ती है। कपाड़िया ने फिल्म में वास्तविक लोकेशन इस्तेमाल की हैं। जैसे- मुंबई की लोकल ट्रेन, दादर का फूल बाजार, लोअर परेल के लगातार विकसित हो रहे निर्माण क्षेत्र- सब मिलकर कथा को विश्वसनीय बनाते हैं। मुंबई एक चरित्र और रूपक दोनों के रूप में उभरता है। विरोधाभासों का वह शहर जहां स्वतंत्रता अस्तित्ववादी मांगों के साथ असहज रूप से सह-अस्तित्व में है।

हर जगह धूम

82वें गोल्डन ग्लोब अवार्ड्स में सर्वश्रेष्ठ मोशन पिक्चर (गैर-अंग्रेजी भाषा) श्रेणी में नामांकन

 सर्वश्रेष्ठ निर्देशन (मोशन पिक्चर) के लिए भी नामांकित। इस श्रेणी में नामांकित होने वाली पहली भारतीय फिल्म।

 कान फिल्म फेस्टिवल में प्रतिष्ठित ग्रां प्री जीता।

 ऑस्कर 2025 में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भी फ्रांस में शॉर्टलिस्ट की गई थी।

 मलयालम-हिंदी नाटक ने प्रतिष्ठित गोथम अवार्ड्स 2024 में सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फीचर की ट्रॉफी हासिल की।

 

( लेखक फिल्म स्कॉलर हैं। वे नेशनल लॉ स्कूल, बेंगलूरू और दुबई के मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन में अतिथि शिक्षक हैं।)

Advertisement
Advertisement
Advertisement