अलग धर्म मानने वालों के बीच विवाह होना सदियों से चला आ रहा है। हालांकि एक समुदाय तक ही विवाह सीमित रखने के लिए कानून भी बनते रहे। इसका एक उदाहरण दक्षिण अफ्रीका में मिश्रित विवाह प्रतिबंध कानून 1949 के रूप में मिलता है। ब्रिटिश सरकार के समय बनाए गए इस कानून के अनुसार यूरोपीय लोग, गैर-यूरोपीय लोगों से शादी नहीं कर सकते थे। इस कानून का उल्लंघन करने पर सजा का भी प्रावधान था। 1985 में इस कानून को रद्द कर दिया गया। भारत में इन दिनों इस तरह के विवाह को लेकर राजनीति हो रही है। एक प्रमुख वर्ग इस तरह के विवाह को लव जेहाद का नाम दे रहा है। यही नहीं, कई राज्यों ने कहा है ऐसे विवाह को वे रेगुलेट करेंगे। इसके लिए वे कानून लाने की तैयारी में हैं।
वैसे तो लव जेहाद न कोई साहित्यिक शब्द है, न ही वैधानिक। लेकिन इस समय यह भारत के एक बड़े वर्ग को बेहद तेजी से प्रभावित कर रहा है। इन परिस्थितियों में अगर भारतीय मुसलमान लड़के अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग कर किसी हिंदू लड़की से विवाह करते हैं, तो वे एक तरह से अछूत हो जाएंगे। इस मनगढ़ंत शब्द को वैधानिक रूप देने के लिए भाजपा शासित राज्यों में होड़ लग गई है।
ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जब धर्म परिवर्तन के तहत हुए विवाह के मामले न्यायालय में पहुंचे हैं। न्यायालय ने कभी इस तरह के विवाह को धर्म परिवर्तन के नजर से नहीं देखा है। 1891 में एक हिंदू शादीशुदा महिला ने अपना धर्म परिवर्तित कर इस्लाम कबूल कर लिया और एक मुस्लिम लड़के से शादी कर ली। उस वक्त कोलकाता हाइकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि धर्म परिवर्तन कर विवाह करने से उस महिला की पहली शादी अवैध नहीं हो जाती, और उसे भारतीय दंड संहिता के तहत सजा भुगतनी पड़ी थी। ऐसा ही एक और मामला 1919 में लाहौर में आया जब एक हिंदू महिला ने पहले इस्लाम धर्म कबूल किया और फिर शादी कर ली थी। तब लाहौर हाइकोर्ट ने, कोलकाता हाइकोर्ट के फैसले की तरह, धर्म परिवर्तन करने से पहले की शादी को अवैध नहीं माना था। कोर्ट ने इसी फैसले को दूसरे धर्मों, मसलन ईसाई और जोरोएस्ट्रियन महिलाओं पर भी लागू किया। यह व्यवस्था बिना किसी कानून के हिंदू विवाह कानून आने तक बनी रही।
1955 में हिंदू विवाह कानून लागू हुआ। इसके बाद 1995 के सरला मुद्गल मामले में सिक्के का दूसरा पहलू भी उजागर हुआ जब कई हिंदू, इस्लाम धर्म अपना कर दूसरी महिलाओं से शादी कर रहे थे। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई पति या पत्नी शादी के लिए धर्म परिवर्तन कर ले तो इसका मतलब यह नहीं होता कि पहले की शादी खत्म हो गई। वह शादी बरकरार रहेगी, उसे हिंदू विवाह कानून 1955 के तहत ही खत्म किया जा सकता है।
सामान्य परिस्थितियों में अगर कोई व्यक्ति अपना धर्म परिवर्तन करता है, तो वह राज्य की चिंता का विषय नहीं होना चाहिए। ठीक उसी तरह, अगर दो अलग धर्म के लोग आपस में विवाह करने का फैसला करते हैं तो उनके पास विशेष विवाह कानून 1954 के तहत ऐसा करने का हक होता है। इस कानून के तहत दोनों व्यक्तियों में से किसी को अपना धर्म परिवर्तन करने की जरूरत नहीं है। हालांकि, कानून यह अधिकार भी देता है कि शादी के बाद अगर कोई व्यक्ति चाहे तो धर्म परिवर्तन कर सकता है। यह किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकार जैसा है।
ऐसा ही मामला 2018 के हादिया केस में सामने आया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में व्यक्ति के निर्णय को महत्व दिया था। कोर्ट ने कहा था, हो सकता है लड़की के पिता को ऐसा लगता है कि उसकी रक्षा करना उनका अधिकार है, इसलिए वे धर्म परिवर्तन कर किए गए विवाह को स्वीकार नहीं करते। लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण लड़की की स्वतंत्रता का अधिकार है और उसकी रक्षा होनी चाहिए। उसी मौलिक अधिकार के तहत उसे अपना साथी चुनने का अधिकार है।
इस फैसले ने संविधान के तहत दिए गए स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को और मजबूत किया। इससे किसी व्यक्ति को यह अधिकार मिलता है कि वह अपनी इच्छा के अनुसार जीवन साथी चुने, चाहे वह किसी भी धर्म का हो। इससे पहले एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की खंडपीठ ने कहा था कि परिवार, शादी, जन्म और यौन इच्छा व्यक्तिगत मामला है और वह व्यक्ति की संप्रभुता का अहम हिस्सा होता है। दूसरी तरफ, गुजरात सरकार ऐसा कानून ला चुकी है जिसके तहत सरकार द्वारा अधिसूचित विवादित क्षेत्र में कोई भी अचल संपत्ति किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति को न तो बेची जा सकती है और न ही किराए पर दी जा सकती है। ऐसा करने के लिए स्थानीय प्रशासन से अनुमति लेना जरूरी किया गया है।
हाल ही में केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून लागू किया है, जिसमें खासतौर से मुसलमानों को अलग रखा गया है। लव जेहाद के मामले में भी अपराध की धारणा को मुसलमान पुरुषों तक ही सीमित कर दिया गया है। इसमें यह माना जाता है कि मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नियों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। भारत में मुस्लिमों की संख्या काफी है, फिर भी यहां खुलेआम यूएपीए और एनएसए जैसे कानून मुस्लिमों पर लगाए जाते हैं। इस विभाजनकारी नीति का ही परिणाम है कि अनेक मुस्लिम अब चुनाव प्रक्रिया से भी दूर होते जा रहे हैं।
1994 के एस.आर. बोम्मई केस में न्यायधीश के. रामास्वामी ने कहा था, “कट्टर धार्मिक सोच न केवल नजरिए को संकुचित करती है बल्कि कानून के राज को भी कमजोर करती है। धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा मिलने से ऐसी ताकतें मजबूत होती जाती हैं, जो दो अलग धर्म के लोगों के बीच वैमनस्य को बढ़ावा देने का काम करती हैं। ऐसे दौर में लोकतंत्र भी कमजोर होता है।”
ऑनर किलिंग मामले में भी एक विचार सामने आता है कि किसी व्यक्ति की शादी करने के अधिकार को केवल इसलिए नहीं नकारा जा सकता कि अगला व्यक्ति दूसरी जाति का है। लोग इस तरह के कृत्य को जाति के सम्मान के साथ जोड़ लेते हैं।
दो अलग धर्म के लोगों के बीच होने वाली शादी में कई तरह की निगरानी की व्यवस्था भी होती है। यह संतुलन तभी बना रह सकता है, जब कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन अपनी इच्छा से कर रहा हो। इस तरह के विवाह में कोई जबरदस्ती और धोखेबाजी नहीं होनी चाहिए।
सवाल उठता है कि अगर कोई व्यक्ति किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी करता है तो क्या केवल इस वजह से उसे सरकार के सामने कानूनी रूप से जानकारी देनी चाहिए कि वह धर्म परिवर्तन अपनी इच्छा से कर रहा है? हमारे पास ऐसा सिस्टम है जिसमें राशन कार्ड, आय प्रमाण पत्र यहां तक कि मृत्यु प्रमाण पत्र बनाने में कई महीने या कई बार वर्षों लग जाते हैं। ऐसी स्थिति में जब शादी के मामले में प्रशासनिक अधिकारियों की अनुमति लेना जरूरी होगा, तो ऐसे निजी मामले में असामाजिक तत्व निगरानी की भूमिका नहीं निभाएंगे, इसकी गारंटी कौन देगा? इस बात की आशंका इसलिए है क्योंकि पहले से ही इस तरह के तत्व पार्क में लोगों पर हमले कर रहे हैं। लोगों के खाने पर भी नजर रखी जा रही है। कुछ लोगों के किसी समारोह में शामिल होने को भी धर्म परिवर्तन कार्यक्रम के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। यही नहीं, लोगों पर एफआइआर भी दर्ज कराई जा रही है।
कुछ लोग विशेष विवाह कानून का भी हवाला देते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि ऐसे कानून का संरक्षण प्रमुख रूप से उच्च-मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के लोगों को ही मिलता है। एक बात यह भी समझना जरूरी है कि ऐसे लोगों को कानूनी मदद भी आसानी से मिल जाती है।
मौजूदा दौर में ऐसे तत्वों को ज्यादा बढ़ावा मिला है जो धर्मनिरपेक्षता को नुकसान पहुंचाने में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। कई संस्थाओं के काम-काज में भी इस तरह की प्रवृत्ति दिख रही है। ये बदलाव बहुत तेजी से हमारे सामाजिक ताने-बाने पर प्रतिकूल असर डाल रहे हैं। न्यायपालिका पर भी असर दिख रहा है। पुराने मामले देखें तो कुछ प्रमुख मामलों को छोड़ कर न्यायालय ने लोगों के मौलिक अधिकारों के लिए बहुत सक्रिय भूमिका नहीं निभाई है।
हादिया मामले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की निगरानी में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) को जांच की जिम्मेदारी दी गई थी। सामान्य तौर पर एनआइए राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों की जांच करती है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से व्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रतिस्थापित हुआ। उसने अपनी मर्जी से शादी करने के अधिकार को भी स्थापित किया, जिसे केरल हाइकोर्ट ने खारिज कर शादी को ही अवैध घोषित कर दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की तरफ से एनआइए को किसी बड़े षड्यंत्र की जांच के लिए नियुक्त करना कई सारे सवाल खड़े करता है।
विवाह के संबंध में जो भी कानून बनाए गए हैं, वे व्यक्ति के धार्मिक विश्वास पर आधारित हैं। हमारी विविधता भरी संस्कृति में किसी एक धर्म के विवाह और तलाक के तरीके दूसरे पर लागू नहीं होते। हमारे पास हिंदू विवाह कानून है, लेकिन यह अनुसूचित जनजातियों पर नहीं लागू होता। साफ है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार किसी भी व्यक्ति से विवाह करने का कानूनी अधिकार है और यह उसका मौलिक अधिकार भी है। अगर इसे नजरअंदाज किया गया तो निश्चित तौर पर समाज के गैर-जरूरी तत्व न केवल ठेकेदार बन जाएंगे, बल्कि पुलिस और न्यायालय में अपराधिक विवाद भी बढ़ेंगे।
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं)