इमरजेंसी के बाद 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने पुलिस सुधारों की सिफारिश के लिए नेशनल पुलिस कमीशन (एनपीसी) का गठन किया। आयोग ने 1979 से 1981 के बीच आठ रिपोर्ट दीं। चौथी रिपोर्ट हिरासत में प्रताड़ना पर थी। इसमें कहा गया कि हिरासत में मौत के मामले बढ़ गए हैं। पुलिस कस्टडी में टॉर्चर अमानवीय है। आईपीसी, 1860 की धारा 330-331 के तहत किसी को चोट पहुंचाना दंडनीय अपराध है। सबूत नहीं होने से पुलिसवालों पर मुश्किल से कार्रवाई होती है। संविधान में दिए गए जीवन और आजादी के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून में प्रावधान किए जाने चाहिए।
इंदिरा गांधी की वापसी हुई तो 1981 में एनपीसी को बंद कर दिया गया। आयोग ने जनता सरकार के समय 1979 में पहली रिपोर्ट जारी की थी। बाकी सात रिपोर्ट्स मार्च 1983 में जारी कर दी गईं। सीवी नरसिम्हन एनपीसी के सदस्य सचिव थे। वे उस समय सीबीआई के प्रमुख थे जब इस एजेंसी ने इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया था। इंदिरा सरकार ने एनपीसी की ज्यादातर सिफारिशें खारिज कर दीं। एनपीसी की सिफारिशें लागू करने के लिए 1996 में दो रिटायर्ड डीजीपी प्रकाश सिंह और एन.के. सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की। कोर्ट ने 10 साल बाद 2006 में अपने फैसले में सात निर्देश दिए। चौथा निर्देश है कि कानून-व्यवस्था बनाए रखने और जांच करने वाली पुलिस, दोनों अलग होनी चाहिए। इससे जांच जल्दी पूरी हो सकेगी। छठा निर्देश है कि राज्य और जिला स्तर पर पुलिस कंप्लेंट अथॉरिटी (पीसीए) का गठन हो, जो पुलिस अधिकारियों के खिलाफ शिकायतों की तहकीकात करे। कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) की 2016 की रिपोर्ट के अनुसार 23 प्रदेशों ने राज्य और 15 ने जिला स्तर पर पीसीए का गठन किया है। सिर्फ 12 राज्यों में यह राज्य और जिला, दोनों स्तर पर है।
एनपीसी के बाद पुलिस रिफॉर्म पर कई समितियां बनाई गईं। इनमें रिबेरो समिति (1998), पद्मनाभैया समिति (2000) और मलिमथ समिति (2003) प्रमुख हैं। रिटायर्ड डीजीपी जूलियो एफ रिबेरो की अध्यक्षता वाली समिति ने अक्टूबर 1998 में पहली रिपोर्ट दी। इसने हर राज्य में पुलिस परफॉर्मेंस ऐंड एकाउंटिबिलिटी कमीशन (पीपीएसी) और हर जिले में पुलिस शिकायत अथॉरिटी (डीपीसीए) बनाने की सिफारिश की। मार्च 1999 में सौंपी दूसरी रिपोर्ट में केंद्रीय पुलिस समिति बनाने, जांच और कानून-व्यवस्था के लिए अलग-अलग बल तैनात करने, हर राज्य में पुलिस भर्ती बोर्ड बनाने जैसे सुझाव दिए गए।
पूर्व गृह सचिव के. पद्मनाभैया की अध्यक्षता वाली समिति ने हिरासत में बलात्कार या मौत की अनिवार्य न्यायिक जांच की सिफारिश की। हर जिले में डीपीसीए गठित करने की बात कही और डीएम को इसका चेयरमैन बनाने को कहा। रिटायर्ड चीफ जस्टिस वीएस मलिमथ की समिति ने कहा, हिरासत में लिए गए आरोपी की सुरक्षा तय करने और टॉर्चर कम करने के प्रावधान हों। हिरासत में किसी के साथ बलात्कार या टॉर्चर हुआ है तो वह मजिस्ट्रेट के सामने बताए। मजिस्ट्रेट उसे न्यायिक हिरासत में भेज सकता है।
विधि आयोग की सिफारिशें
. जुलाई 1985ः 113वीं रिपोर्ट में इंडियन एविडेंस एक्ट 1872 में नई धारा 114बी जोड़ने की सिफारिश की। इसके अनुसार पुलिस किसी को गिरफ्तार करे तो पहले उसकी मेडिकल जांच कराए। पुलिस हिरासत में कोई जख्मी होता है तो कोर्ट मान सकता है कि उसे वह जख्म संबंधित पुलिस अधिकारी के द्वारा दिया गया है।
. अगस्त 1994ः 152वीं रिपोर्ट में हिरासत में हिंसा कम करने के लिए आइपीसी की कई धाराओं में संशोधन की सिफारिश की। सीआरपीसी की धारा के तहत पुलिसकर्मियों को किसी भी कार्रवाई से सुरक्षा मिली होती है। आयोग का कहना था कि पुलिस अधिकारी इस का दुरुपयोग कर रहे हैं। इसलिए पुलिस ज्यादती के मामलों में धारा 197 लागू नहीं होनी चाहिए।
. दिसंबर 2001ः 177वीं रिपोर्ट में आयोग ने सीआरपीसी की धारा 55ए में संशोधन का सुझाव दिया। इसका मकसद हिरासत में लिए गए व्यक्ति की सुरक्षा सुनिश्चित करना था।
. मई 2017ः 268वीं रिपोर्ट में आयोग ने सीआरपीसी में नई धारा 41(1ए) जोड़ने और 41बी में संशोधन की सिफारिश की। इसके मुताबिक पुलिस अधिकारी गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को उसके अधिकारों के बारे में बताएगा।
. अक्टूबर 2017ः 273वीं रिपोर्ट में टॉर्चर की परिभाषा में संशोधन कर इसका दायरा बढ़ाने की सिफारिश की गई। इसने टॉर्चर के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के कन्वेंशन को शामिल करने को कहा। टॉर्चर करने वाले पुलिस अधिकारी के खिलाफ आजीवन कारावास तक की सजा की सिफारिश है। इसमें 113वीं रिपोर्ट की सिफारिशों को भी दोहराया गया है।