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जनादेश’21: जीतने वाला भी होगा जवाबदेह

महामारी की दूसरी प्रचंड लहर के बीच चुनावी नतीजों की सियासी संभावनाएं
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी

मद्रास हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीब बनर्जी की वह टिप्पणी कइयों को वेजा लगी कि चुनाव आयोग पर हत्या के मुकदमे चलने चाहिए। लेकिन आंकड़े तो यही कहते हैं कि कम से कम कोविड-19 की जानलेवा दूसरी लहर को दूरदराज के संक्रमण-मुक्त गांव-देहात में पहुंचाने का एक बड़ा जरिया चुनावों की लंबी-चौड़ी प्रक्रिया ही बनी। पश्चिम बंगाल में ही नहीं, जहां सीधे राज्य की सत्ता दांव पर है, उत्तर प्रदेश और कुछ दूसरे राज्यों में स्थानीय निकाय और पंचायतों के चुनाव भी कोरोनावायरस के शानदार वाहन बने। पश्चिम बंगाल में महीने भर से ज्यादा के आठ चरणों के मतदान की प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ती रही, कोविड संक्रमण के मामले सैकड़ों से हजारों में छलांग लगाते रहे, और अंतत: तीन उम्मीदवारों की मौत भी हो गई। उत्तर प्रदेश में भी पंचायत चुनावों को संक्रमण का सबसे बड़ा वाहक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध राष्ट्रीय शिक्षक संघ ही बता रहा है, जिसके मुताबिक उससे जुड़े 136 शिक्षकों की चुनाव ड्यूटी में जाने से संक्रमण के कारण मौत हो गई। संघ ने उनके आश्रितों को 50-50 लाख रुपये मुआवजा देने की मांग की है। आज उत्तर प्रदेश सर्वाधिक संक्रमण और मौत वाले देश के दस राज्यों में शुमार है।

जाहिर है, जब हर ओर हाहाकार मचा है, ये दलीलें भी यूं ही नहीं उठने लगी हैं कि चुनाव प्रक्रिया ही संक्रमण की वाहक नहीं है। इसके लिए महाराष्ट्र और कर्नाटक का उदाहरण दिया जा रहा है। हालांकि यह पूरी तरह सही नहीं है और इन दोनों राज्यों के कुछ हिस्सों में स्थानीय स्तर के चुनाव जारी थे। फिर भी यह समझ से परे है कि फरवरी में डब्लूएचओ और हमारे विशेषज्ञों की भी दूसरी लहर की चेतावनियों के बावजूद क्यों चुनाव की इतनी विस्तृत प्रक्रिया अपनाई जाती रही। शायद चुनावों को हर मर्ज का इलाज और अर्थव्यवस्था के मोर्चे से लेकर तमाम क्षेत्रों में नाकामियों का जवाब मान लिया गया है। यह दलील धड़ल्ले से दी जाने लगी है कि अगर सरकारी नाकामियां इतनी ही भारी हैं तो लोग उसी पार्टी को लगातार क्यों चुन रहे हैं। शायद यही वजह है कि पंचायतों के चुनाव भी अपना दबदबा दिखाने, नाकामियों को ढंकने और असंतोष दबाने का लाइलाज औजार माने जाने लगे हैं। जैसा उत्तर प्रदेश के मामले में दिख सकता है, जिसके खासकर पश्चिमी हिस्से में किसान आंदोलन से लोगों में राज्य और केंद्र दोनों सरकारों के प्रति नाराजगी दिखने लगी है। हालांकि कोविड की दूसरी लहर से नाकामियां इतनी भयावह रूप में सामने आ रही हैं कि ये दलीलें शायद ही लोगों को सवाल पूछने से रोकें।

इसीलिए बचाव की दलीलें भी तैयार की जाने लगी हैं। चुनाव संक्रमण का वाहक नहीं बना, यह दलील तो खुद केंद्रीय गृह मंत्री तथा चुनाव प्रक्रिया में जोरशोर से हिस्सा लेने वाले अमित शाह की ही है। वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ पश्चिम बंगाल में मार्च के आखिरी हफ्ते से अप्रैल के आखिरी हफ्ते तक 50 से ज्यादा रैलियां कर चुके हैं। बंगाल में उनकी प्रतिद्वंद्वी तृणमूल कांग्रेस की नेता तथा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आरोप है कि प्रधानमंत्री की रैलियों की खातिर एसी पंडाल बनाने के लिए गुजरात तथा दूसरे प्रदेशों से आए लोगों और लाखों की तादाद में अर्द्धसैनिक बल के जवानों की आमद से राज्य में कोविड की हालत इतनी संगीन हुई है। तृणमूल और बाकी दलों ने आखिरी के तीन चरणों के मतदान को एक चरण में करने की सिफारिश की मगर चुनाव आयोग को वह संभव नहीं लगा। उसने बाहर से आने वालों, चुनाव पर्यवेक्षकों और अर्द्धसैनिक बलों के लिए कोई विशेष कोविड प्रोटोकॉल का प्रावधान नहीं किया लेकिन अब मद्रास हाइकोर्ट की फटकार के बाद मतगणना में शामिल होने वालों के लिए कोविड निगेटिव टेस्ट या वैक्सीन की दो खुराक लेना अनिवार्य कर दिया है।

यकीनन कोविड-19 महामारी की दूसरी प्रचंड लहर के बीच चार राज्यों असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और केंद्र शासित पुदुच्चेरी के चुनावी नतीजों की अहमियत कुछ अलग ही रंग ले चुकी है। जब ये चुनाव मार्च में शुरू हुए थे तो सरकार और सत्तारूढ़ राजनैतिक प्रतिष्ठान यही उम्मीद जाहिर कर रहा था कि कोविड महामारी तो अब देश से विदा हो चुकी है। इसलिए नवंबर में हुए बिहार चुनाव के बाद खासकर दिल्ली की सीमा पर डटे किसान आंदोलन के मद्देनजर मौजूदा चुनावों की अहमियत बढ़ गई। जैसे लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली और बेपनाह बेरोजगारी के दंश को बिहार चुनावों के नतीजों से ढंकने कोशिश हुई, उसी तरह इन चुनावी नतीजों के सियासी समीकरण भी नया संदेश दे सकते हैं। और ये संदेश विभिन्न राज्यों के आगामी विधानसभा और अंतत: 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए इस कदर महत्वपूर्ण हैं कि कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी जा सकती थी।

सो, चाहे कोविड की दूसरी लहर से हाहाकार मचा हो, लेकिन राजनैतिक नेता 24-25 अप्रैल तक अपनी रैलियों में भारी भीड़ देखकर फूले नहीं समा रहे थे। रैलियां रद्द करने का सिलसिला तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी की पहल और बाद में चुनाव आयोग के निर्देश के बाद हुआ। तो, आइए 2 मई को आने वाले चुनावी नतीजों की सियासी संभावनाओं पर गौर करें, जिनकी वजह से ये चुनाव इस कदर अहम बन गए।

सख्ती से पहलेः मिदनापुर की रैली में अमित शाह, कैलाश विजयवर्गीय और दिलीप घोष

संभावना एक: केरल, तमिलनाडु, असम, पश्चिम बंगाल और पुदुच्चेरी में अगर भाजपा या उसके सहयोगियों को कहीं जीत हाथ नहीं लगती है तो केंद्र में भाजपा की सत्ता और मोदी की लोकप्रियता तथा शाह के चुनावी प्रबंधन पर बड़े सवाल खड़े हो जाएंगे। कोविड-19 की दूसरी प्रचंड लहर से चारों तरफ तबाही के मंजर के बाद मोदी-शाह की जोड़ी ही नहीं, भाजपा के अन्य स्टार प्रचारकों पर भी सवाल तीखे हो सकते हैं। पहली बार भाजपा और संघ परिवार के अंदर से भी गुस्से और नाराजगी के स्वर उभरने लगे हैं। शायद इन्हीं स्वरों पर लगाम लगाने के लिए संघ के नए सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले ने बयान जारी किया कि ‘‘मौजूदा महामारी की विकट परिस्थिति से देश विरोधी ताकतें फायदा उठाना चाहेंगी।’’ इसके सियासी नतीजे विपक्ष की गोलबंदी के रूप में भी हो सकती है, ताकि मोदी-शाह जोड़ी को चुनौती दी जा सके। इसका असर अगले साल उत्तर प्रदेश, पंजाब, ओडिशा जैसे कई अहम राज्यों के चुनावों में भी दिख सकता है। असम और बंगाल में हार भाजपा की पूर्वोत्तर राजनीति के लिए खतरे की घंटी की तरह होगी। अगर ममता बनर्जी ठीक-ठाक बहुमत से चुनाव जीतती हैं तो वे देश भर में भाजपा विरोधी दलों की मजबूत धुरी बन सकती हैं।

 कोविड की दूसरी लहर के बाद मोदी-शाह की जोड़ी ही नहीं, भाजपा के अन्य स्टार प्रचारकों पर भी सवाल तीखे हो सकते हैं

संभावना दो: अगर भाजपा असम में सरकार बनाने के काबिल हो जाती है और बंगाल में 100 के आसपास सीटें लाकर राज्य में बड़ा विपक्षी दल बन जाती है तो यह मोदी-शाह जोड़ी की उपलब्धि में नए ताज जैसा होगा। इसके साथ अगर तमिलनाडु में उसकी सहयोगी अन्नाद्रमुक की सरकार भी बच जाती है और पुदुच्चेरी में भी एन. रंगास्वामी वाले गठजोड़ की जीत हो जाती है तो मोदी-शाह जोड़ी का जयकारा बड़े पैमाने पर शुरू हो जाएगा और महामारी के प्रति घोर लापरवाही के आरोपों पर भी वे भारी पड़ेंगे। इसके बाद यह भी संभव है कि किसानों को दिल्ली की सीमा से हटाने की मुहिम भी शुरू हो जाए।

 संभावना तीन: अगर तमिलनाडु में द्रमुक-कांग्रेस गठजोड़ जीत जाता है, केरल में कांग्रेस की अगुआई वाला मोर्चा यूडीएफ सत्ता में आ जाता है, असम में भी कांग्रेस का महाजोट जीत जाता है, ऐसे हालात में कांग्रेस की गुड्डी चढ़ जाएगी और राहुल-प्रियंका भी पार्टी में कथित असंतुष्ट गुट जी-23 पर भारी पड़ेंगे।

बहरहाल, 2 मई के नतीजे ही बताएंगे कि देश की अगली सियासत का रुख क्या होगा? इस बीच नतीजे हल्के भर भी मोदी-शाह जोड़ी के पक्ष में आए तो महामारी की दूसरी लहर पर हो रही चहुंतरफा आलोचना कुछ थमेगी, वरना इसमें भयंकर इजाफा हो सकता है। सो, आने वाले दिन देश की सियासत के लिहाज से दिलचस्प होंगे।

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