मेरी आंख सुलगते, धधकते कोयले और धुएं के गुबार वाले शहर झरिया में ही खुली थी। यहीं जन्म लिया। लेकिन जब कभी रात के अंधेरे में इसे कैमरे में कैद करने निकलता हूं, कोयले की आग के करीब जाता हूं, अलग ही एहसास में डूब जाता हूं। चारों तरफ चमकती आग देखता हूं तो लगता है किसी अलग ग्रह पर हूं। जलने की आवाज के साथ एक अलग सा गंध नथुनों में भर जाता है। कभी-कभी एक अजीब सी खुशबू से रोमांचित हो जाता हूं। मगर यह आग कितनी खतरनाक है। सौ साल से ज्यादा हो गए, उसकी लपट कायम है। कभी धीमी होती है तो कभी धधकती है। जिसने करीब से नहीं देखा, वह विश्वास नहीं करेगा कि भय और सौंदर्य का सह-अस्तित्व हो सकता है।
पिछले जुलाई की ही बात है जब 12 साल की मेरी छात्रा ज्योति ने इसी कोयले में जला अपना पांव दिखाया तो व्यक्तिगत दर्द का एहसास हुआ। इससे कहीं बहुत ज्यादा आग की पीड़ा को लोग लगातार झेलते हैं। इसके बावजूद हजारों परिवार पेट की आग बुझाने के लिए बोरी भर कोयले की खातिर रोज आग से खेलते हैं।
झरिया की जमीन से मेरा पुराना जुड़ाव है। लगभग 100 साल पहले पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले से मेरे दादा निजी कोयला खदानों में नौकरी के लिए झरिया आए थे। बाद में मेरे पिता एक निजी कोयला कंपनी में प्रबंधक बन गए। इसी कोलमाइंस की गोद में 1967 में मैंने आंखें खोलीं। यहीं झरिया शहर में कोयले की आग के बारे में भांति-भांति के किस्से सुनते, देखते बड़ा हुआ। मेरे मामा बीसीसीएल की खदान, टीके कोनार के सर्वेक्षक थे। अक्सर कहते थे, “झरिया में आग लगी है, टाउनशिप को स्थानांतरित किया जाने वाला है।” 30 साल बाद 2005 में मैं चकित था, जब मैंने सीबीएसई की कक्षा 10 की किताब में वही शब्द छपे देखे- झरिया शिफ्ट हो जाएगा।
झरिया के शिफ्ट होने की बात जब भी सुनता हूं, एक गहरी उदासी मेरे भीतर उतर आती है। यह पूरे वजूद के उखड़ने का सवाल है। पड़ोस के चाचा, ताई, दोस्त, पहचान वाले सब के उजड़ जाने का डर। बस्ती बहुत बड़ी है और बेलगड़िया में पुनर्वास की कवायद बहुत छोटी, सिर्फ 22 सौ लोगों का छोटा-छोटा घर। अव्यवस्थित तरीके से बसाने की कवायद है। न कोई साधन, न रोजगार के इंतजाम, लोग वहां रहें भी तो कैसे। नाम याद नहीं आ रहा, एक अकेली विधवा को भी वहां घर मिला, वनवास की तरह। वापस लौट आई हैं। कोयला खनन करने वाली कंपनी को तो जमीन चाहिए, फायदा चाहिए, लोगों की चिंता कौन करे।
झरिया कोलफील्ड हमेशा से ऐसा नहीं था। मेरे चाचा बताते थे कि झरिया भी एक हद तक आम शहर जैसा था। हरियाली थी, राजापुर क्षेत्र में फुटबॉल खेला करते थे। तब ओपन कास्ट खदानें नहीं थीं। जो होता था, जमीन के भीतर। मगर 1971 में कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के बाद झरिया का रंग बदलता गया। कम लागत और आसान प्रक्रिया को देखते हुए कोयले की निकासी के लिए ओपन कास्ट को प्राथमिकता दी गई। कोयला तो निकला, मगर कोयले की तरह यहां के लोगों का जीवन भी बदरंग हो गया।
बुआ बताती थीं कि 1960-70 के दशक में जब कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ था, नदी के किनारे से रेत से भरी ट्रॉली रोपवे से झरिया शहर के करीब ऊपर कुल्ही के पास बैंकोर में जमा होती थी। झरिया के पूर्वी हिस्से में आग को रोकने के लिए इतनी मात्रा में रेत-बालू जमा किया जाता था कि आज भी उस जगह को बालूगुडा नाम से जाना जाता है। मगर अब रेत तो नहीं दिखता, चारों तरफ आग और जमीन से निकलता धुआं है।
यही देखते-सुनते मेरे भीतर भी आग सुलगने लगी और मैं ‘झरिया कोलफील्ड बचाओ’ का हिस्सा बन गया। कोयला चुनने वाले बच्चों का बचपन बचाने के लिए 2015 में प्रयास शुरू किया। बिना शुल्क कंप्यूटर, अंग्रेजी, पेंटिंग, नृत्य की शिक्षा देने लगा। कोयला चुनने और कोयला लोडरों का परिवार मेरे जीवन का हिस्सा बन गए। 8 नवंबर 2018 को मेरी छात्रा चंदा राजपुर कोलियरी में कोयला चट्टान गिरने से जान गंवा बैठी। दो बच्चों के साथ तीन की मौत हुई थी। हालांकि जायज-नाजायज खदानों से कोयला निकालने के दौरान इस तरह की घटनाएं आम हैं। दरअसल पतली दरारों से कोयला निकालने में बच्चें ज्यादा कारगर होते हैं। चंदा की मौत हुई तो मेरा प्रयास संघर्ष में बदल गया। आज मेरे ‘कोलफील्ड चिल्ड्रेन क्लासेज’ के माध्यम से बड़ी संख्या में बच्चे मुझसे जुड़े हुए हैं।
बहरहाल, अब भी पूरा झरिया कोयला क्षेत्र आग से नहीं भरा है, लेकिन धुआं और धूल है। पूरा झरिया खतरनाक नहीं है, लेकिन आग के आसपास रहने वालों को स्थानांतरित करने की जरूरत है। जहां आग पर काबू पाया जा सकता है, बस्ती को स्थानांतरित करने के बदले आग पर काबू पाने का इंतजाम किया जाना चाहिए।
2000 में ‘झरिया बचाओ अभियान’ से जुड़ने के बाद आग और उससे उपजी पीड़ा को करीब से देखा। हालांकि बचपन में आग के बारे में जिज्ञासा तब बढ़ी, जब मैंने ताउजी से सुना कि 1940-41 में बड़ालाट (ब्रिटिश गवर्नर जनरल) कोयले की आग देखने झरिया के घुनूदीही आए थे। भूमिगत आग के बारे में 1916 में लोगों को जानकारी मिली मगर 1935-36 में इसने विकराल रूप धारण कर लिया था। झरिया देश-दुनिया के मीडियाकर्मियों की भी दिलचस्पी का केंद्र रही। अमेरिका, फ्रांस, मिस्र, जापान और भी न जाने किन-किन देशों से छायाकार आते रहे, मगर नहीं बदली तो यहां की तस्वीर।
पिनाकी रॉय: शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता, शौकिया फोटोग्राफर, हेटलीबांध, झरिया